कविताएँ और तस्वीरें ::
गार्गी मिश्र

गार्गी मिश्र

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बनारस स्थित अपने पैतृक आवास के
अपने कमरे के लिए,
जहाँ मैंने लगभग चौदह वर्ष बिताए हैं
और जिसे अब तक मेरा कमरा कहा जाता है।

— गा. मि.

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हेलो—मैं गार्गी बात कर रही हूँ

जल्द ही फोन करती हूँ, कहकर कितनी बार मैंने ख़ुद को वक़्त और उम्मीद के चंगुल से बचा लिया
कितनी बार कोई ज़रूरी फ़ोन न उठाकर मैंने ज़रूरत जैसी चीज़ को आईना दिखाया

कितनी बार फ़ोन नंबर मिलाकर मैंने तुरंत फ़ोन काट दिया
और वापस फ़ोन आने पर कहा है—अरे ग़लती से लग गया कोई बात नहीं थी
कितनी बार मैंने फ़ोन कुछ कहने के लिए किया और अंत तक नहीं कही है अपनी बात
कितनी बार मैंने बात को मरते देखा

कितनी बार मैं फ़ोन पर बोलती रही हूँ बिना सुने
और न सुनते हुए बोली है अपनी ही बात लगातार न बोलकर
कितनी बार फ़ोन में ढूँढ़ा है कोई नाम और
ढूँढ़ने भर में ही वह नाम एकाएक फ़ोन की स्क्रीन पर चमकने लगा

कितनी बार सोचा है फ़ोन करूँ उन नंबरों पर जिन्हें मैंने सालों-साल नहीं फ़ोन किया
कितनी बार ऐसा करना भी स्थगित कर दिया

कितनी बार मन होता है कि उन नंबरों पर फ़ोन करूँ जिनके मालिक अब दुनिया में नहीं रहे
मन होता है मिलाकर देखूँ नंबर और सुनूँ कि उस पार से कौन बोल रहा है

कितनी बार मैंने पुराने फ़ोन के साथ एक पुराना जीवन हमेशा के लिए ख़राब चीज़ों को रखने वाले दराज़ में रखकर बंद कर दिया
कितनी बार फ़ोन पर ही बने कुछ रिश्ते, फ़ोन पर ही पले-बढ़े फ़ोन पर ही टूट गए
उनमें कितना लोहा था

कितनी बार सोचती हूँ कि कभी मेरे पास हमेशा रहने वाला यह फ़ोन जिसका नंबर कुछ लोगों में बँटा है वह हो जाएगा किसी और के नाम
ऐसा कब होगा और तब तक कौन कौन करता रहेगा फ़ोन

कितनी बार होली-दीवाली करूँगी फ़ोन
देने को शुभकामनाएँ दोस्तों और क़रीबियों को
जबकि जानती हूँ कि यह सब उदास होने वाली और प्यार में मजबूर होने वाली बातें हैं

कितनी बार!
पता नहीं…

तैंतीस पार
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता…— ग़ालिब

मैं उसे मिली कई दफ़े मरकर
वह भी मुझे कई बार दफ़्न होकर मिला
हम पतझड़ की पत्तियाँ थे
हमारे दुःखों ने बुहारकर हमें हरे रंग की एक कटोरी में रख दिया था
वह काँच की कटोरी थी जिसकी दरकी हुई उम्मीद की मरम्मत चाँद की सुनहरी से की थी
किसी यक़ीनवाले ने

उसी काँच की कटोरी में परोसती हूँ उसे
चार उबले अंडे
तीन उसे देती हूँ
एक मैं लेती हूँ

उसी काँच की कटोरी में समेटती हूँ
हर सुबह उसे नाश्ता देने के सपने
वह मेरी गदाई बाज़ुओं को देखकर
आहिस्ता-आहिस्ता पीता है काली चाय
कहता है इतना भी तो नहीं खाती मेरी औरत
इतना फूलती क्यूँ है

मैं उसे देखकर फूलती हूँ
जैसे फूलते हैं बच्चे के गाल खिलकर
फूल जैसे फूल जाते हैं सूरज की रौशनी तले
जैसे फूलता है पानी आँखों में ख़ुशी से

एक लंबी टेर से पुकारता है वह मेरा नाम
बहुत ही छोटा नाम मैं चुन लेती हूँ उसके लिए
उबले अंडे, काँच की तश्तरी, काली चाय और धूप
यही सारा सामान लेकर दिन उगता है
यहीं से हम शुरू करते हैं
जीवन भर का साथ
कई दफ़े राख होकर हम फिर
खिलते हैं हमारे बचे-खुचे हरे के साथ।

अम्मा-बाबू

बचपन में वे हमारे नन्हे हाथों का पीला फूल थे
जिसे हम अबोधता में तोड़ लाए
जिसकी पंखुड़ियों को हमारी छोटी-छोटी उँगलियों ने
मुट्ठी में भर-भरकर ख़ूब मीसा
वे हमारी छोटी-छोटी हथेलियों में
एक स्थायी वसंत
हमेशा के लिए छोड़कर
हमसे बिछड़ गए

जब हम जवान हुए
वे किसी हज़ार वर्ष पुराने पेड़ की खोखल बन गए
जहाँ छिपाए हमने अपने दुःख
अपनी बचत
अपने सपने
वे दर्पण बन गए जिनमें हम न देखते हुए भी
कुछ-कुछ उनकी तरह दिखने की कोशिश करते रहे

और उन दिनों में जब पेड़ों से पीली और भूरी पत्तियाँ अपने-आप झरने लगती हैं
नाव छूटने लगती है किनारे से
जब चश्मे का पावर बढ़ता ही जाता है
और घटती जाती हैं कुशल पूछने वाली आवाज़ें
वे आँसू बन गए
जिन्हें पोंछते हुए याद आते दो जोड़ी मुलायम हाथ
कभी न थकती गुनगुनाती चाँद रात
हवा की थपकी पाता गुलाबी पालना
और संकोच में पकी कोई अनकही बात

मेरी माँ के समय में वे
अम्मा-बाबू थे
मेरे समय में मम्मी-पापा
मेरे बच्चों के समय में भी वे कुछ ऐसे ही होंगे
छोटे से पुकारू नाम
बहुत ही छोटी होती है जिनकी अवधि पुकारे जाने की।

भूलना

भूलने के बारे में बात करते हुए
वे कुछ उदास और परेशान से दिखाई देते थे

दीवार पर टँगी हुई बंद घड़ी ने अपनी चुप में कहा—
‘भूलना एक तहख़ाना है। उसके आख़िरी दरवाज़े पर मृत्यु तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है’

‘आज कल बहुत भूलने लगा हूँ’, बुदबुदाते हुए वे एक कमरे से दूसरे कमरे में दाख़िल होते
वह कोई भूली हुई बात थी जो उनकी हथेलियों से सरक कर मेरी पीठ पर आ गिरी
और फिर वह भी भूल गई

भूलते-भूलते उन्हें बहुत कुछ याद हो आता था
मसलन, चोरी की हुई पेंसिल
सर्कस का बूढ़ा शेर
रेलवे-लाइन पर मालगाड़ी को गुज़रते हुए देखना
कलकत्ते जाकर न पढ़ पाने का दुःख
नए जूते ख़रीदने के लिए पैसों का संकोच
छोटे भाई की मृत्यु
और एक बहुत बड़े से परिवार की बातें
जो वे गर्मियों की दुपहरों में दुहराते रहते

दरअस्ल, भूलना उन्हें परेशान करता था
जिसे वे ‘उम्र’ कहकर टालने की कोशिश करते

मेरे लिए भूलना कोई और बात थी
कुछ देर पहले ही मुस्कुराकर रह गई यह सोचकर
कि न जाने कितने ही लोग हमें भूल गए…
हम भी तो उन्हें भूल गए…
याद आते-आते भूल गया रोना
चाबी भूलने जैसी बातें रोज़मर्रा के दुःखों को भुलाए रखती थीं
जबकि रेस्त्राँ में बैठकर टिशू पेपर पर तारीख़ लिखना
और फूल का चित्र बनाना अभी नहीं भूली हैं मेरी उँगलियाँ

परचूनिए की दुकान पर ब्रेड का पैकेट भूलकर घर चली आती हूँ
सारे दुःख भूला रहता है एक ख़ाली हाथ
जिसे कोई नहीं याद करता
शर्मिंदगी की चुप और उसे ढकने के लिए एक हँसी लिए वापस लौटती हूँ
दुकानदार से पूछती हूँ, ‘मैं क्या लेने आई थी?’
वह मुस्कुराकर ब्रेड का पैकेट मुझे थमा देता है

कितनी सारी नई बातें ले आया है भूलना
इतनी सारी नई बातें कहाँ रखूँगी?

बहुत ज़्यादा भूलने लगी हूँ नाम
कम बोलती हूँ
जबकि चाहती हूँ कि पूछ लूँ भूले हुए नाम

न मालूम कब भूल गई अपने ही कितने पुकारू नाम
अब तो उनके न पुकारे जाने का दुःख भी धुँधला गया
भूलता गया

बीती रात न भूलने की आशा टिमटिमाती रही आँखों में
उसी आशा ने आँखों में नींद भरी
स्वप्न में आश्चर्य
फिर सुबह उठने पर सब कुछ भूल गया

भूलने के बारे में सबसे अच्छी बात यही थी कि एक घनघोर व्यस्त दिन में
हम कब रो लेते थे इसका पता हमें ख़ुद नहीं चलता था
अनजान इस बात से कि चोट कब और कहाँ लगी थी!
कब हम भूलने लगे उन बातों को जिन्हें नहीं भुलाया जाना था!

मन है

मन है
बहुत सारे काम करने का जो नहीं किए
प्यार कर पाने के नए तरीक़े ढूँढ़ने का मन है
बहुत कुछ दे देने और फिर कुछ समेटने का मन है

मन है
शादियों में फ़ोटोग्राफ़ी करने का
पाहुर के लड्डू बाँधना खाजा, माठ, मठरी बनाने का
शोक में भेंट करने वाले सफ़ेद फूलों के गुलदस्ते बनाने का

मन है
चूड़ी बनने वाली फ़ैक्ट्री में चूड़ियों को बनते देखने का
पहाड़ों में गर्म भात और आलू की तरकारी बनाकर सैलानियों को खिलाने का
पुरानी दिल्ली की सड़कों पर मेहदी हसन के गीत सुनते हुए उदास होने का मुस्कुराने का मन है

मन है
कलकत्ता से सिंदूर लाने का
इलाहाबाद से मौनी कुरुई लाने का
पाकिस्तान से यूसुफ़ सा’ब का बचपन लाने का

मन है
घड़े बनाने का
किसी रोज़ अख़बार के पहले पन्ने पर सिर्फ़ कविताएँ पढ़ने का
राहुल देव बर्मन के गीत गाने और हेलेन के गीतों पर नाचने का

मन है
सब कुछ भूलकर बिना वजह ख़ुश होने का
दुःखों के होने पर एक दिन उनके न होने के विश्वास करने का
घंटों सफ़ाई कर थक कर सोने का
एक बहुत लंबा उपन्यास पढ़ने का

मन है
प्रतीक्षाओं को हर रोज़ पूरा होते देखने का
हर रोज़ एक अलहदा-सी आवाज़ में
पुकारू नाम सुनने का मन है

मन है
ब्याह करने का
सपने देखने का
घर बसाने का

मन है
घर को बनते
और उसके बनने में मन के पानी को
पकते देखने का मन है।

घट-ना

धीरे-धीरे सब घटता चला जाता है
जैसे पानी घटता जाता है शरीर से
रहस्य जीवन से
विस्तार नदी से
और प्रतीक्षा आँखों से

जैसे पत्ते घटते जाते हैं वृक्षों से
रौशनी झरोखों से
मेघ वर्षा से

जैसे घटती जाती है
मीठा खाने की इच्छा
घर को रँगवाने की इच्छा
उत्सवों पर नए कपड़े पहनने की इच्छा

जैसे घटते जाते हैं पुकारू नाम
रोज़मर्रा की ध्वनियाँ कानों से
आहट दरवाज़ों से
और उजाले पत्रों से

इसी तरह घटते जाते हैं हम
एक दूसरे की हथेलियों पर
धुँधलाती अपनी हस्तलिपियों से

देर तक सिसक-सिसक
कर रोने की स्मृतियों से

और उस
आशा से कि कोई दिन होगा
जब हम बढ़ जाएँगे जैसे बढ़ जाती हैं
गंगा रातों-रात अनवरत वर्षा के बाद।

मैं तो अभिनेत्री बनना चाहती थी

मैं तो अभिनेत्री बनना चाहती थी
दर्पण मेरा सबसे सच्चा प्रेमी
रो दूँ झूठ मूठ, माथा फोड़ लूँ या कि देखूँ अपनी ही काया
निर्लज्ज, कभी न स्नेह करता

अभिनय मेरी नसों में है
मैंने दस बरस बाबा को रेलवे के संतुष्ट कर्मचारी के रूप में देखा
दादी बताती हैं वे कभी कदा ही बुरा अभिनय करते थे
बिन ग्लिसरीन रोते थे क्लब के नाटक में सिपाही बनकर

दादी मेरी परम अभिनेत्री रहीं
उत्सवों में कितनी ही बार ख़ाली हो चुके पुए के डोंगे देख कहती बहुत भर गया पेट

माँ हर रोज़ अभिनय करती है
कि वह थकती नहीं न कभी बूढ़ी होगी

बहन मेरी मुझसे छोटी है पर मँझी हुई अभिनेत्री
उसने हम सभी बच्चों में सबसे पहले घर छोड़ा
उसे घर की ही नहीं घर आने की याद भी नहीं आती

और मेरी सहेली
जो मुझे बीस वर्षों से देख रही है
मेरे अभिनय से इतनी प्रभावित है
कि मुझे कहीं बुझता देख लगती है ख़ूँख़ार मौसी का अभिनय करने
उसकी मेथड एक्टिंग के सदके
उसे देख मैं बिजली की तरह उठती हूँ और आ जाती हूँ चरित्र में

मैं जो अभिनेत्री हूँ मैं कभी
अभिनय के स्कूल नहीं गई
संसार की तमाम ख़्वाबतरीन लड़कियों की तरह अभिनय मुझे
इसी संसार से मिला है।

देखो

किसी रोज़ रौशनी को मद्धम करने
और फिर बुझाने की भंगिमा को ग़ौर से देखो
अगाध धैर्य कितनी गहरी पीड़ा!

देखो किसी क्षण सिकुड़कर अपनी ही देह में लौटना
ख़ुद को आश्वस्त करना
बिखर जाना और फिर सिमटने की कोशिश करना

मुस्कुराना और फिर चुप को छिपाकर
ज़रा ज़ोर देकर कहना—कुछ भी नहीं
बे-वक़्त कहने लगना भूख लगी है
और कुछ खाने की जगह पानी पीना

देखो
किन रौशनियों की उदासी किन अँधेरों में खुलती है
फिर कौन से अँधेरे दिल की दीवारों पर वसा के गहरे थक्कों से जम जाते हैं

कोई फ़ाइल पलटते हुए कौन-सी बात याद आ जाती है
किस पतझड़ के आँसू बरस जाते हैं
किस उम्मीद में जीवन अनवरत चलता जाता है

देखो
किस पल हम ख़ुद को जानने लग जाते हैं
किस रोज़ हम बिल्कुल अकेले हो जाते हैं।

सफ़ेद रूमाल पर एक पीला फूल

सूई की आँख से झाँकती है रात
उस पार से उँगलियाँ खींच लेती है किसी उजले दिन का सिरा

उसी उजले दिन में होते हैं सब काम
मसलन भूलना और याद रखना
याद करना और भूल जाना

बीच-बीच में हमें मोहलत मिलती है
अपने थोड़े से एकांत में
दिन को उल्टा कर देखते हैं हम

दुःखों और अधूरे स्वप्नों की इतनी बारी और गझिन कढ़ाई!
बार-बार उलट कर फिर देखते हैं—

सफ़ेद रूमाल पर एक पीला फूल।

बुरा स्वप्न

अनमनी-सी उठी थी नींद
रौशनी के सब द्वार बंद करने
सभी इच्छाओं को ढक कर वह कुछ क़दम बढ़ी ही थी
कि रास्ते में मिल गया बुरा स्वप्न

नींद एक अनुभवी प्रौढ़ा है
वह नहीं टोकती किसी भी अनाभिलाषित अतिथि को
शांत खड़ी रहती है
और पार हो जाने देती है बुरे स्वप्न को अपनी पारदर्शी देह से

कुछ क्षण को चलता है आखेट
बुरा स्वप्न और युद्धरत श्वास
एक विशाल हवा का ग़ुब्बारा छूटता है हाथ से
आँख खुलने तक अश्रु अपनी गर्मी खो देते हैं

बुरा स्वप्न एक पागल की हँसी हँसते हुए विदा हो जाता है
कंधे पर महसूस होता है नींद का चुप हाथ

इसी तरह से बनता है देह और पीड़ा का रिश्ता
कई सुबहों तक दुखते हैं हाथ।

वापस लौटकर क्या आता है?

वा—
वापस लौटकर क्या आता है ?
बार-बार दुहराती हूँ यह प्रश्न
हर बार कुछ और मद्धम होता जाता है स्वर
डूबती जाती है आवाज़ एक नदी में
वही नदी, डाक नाम जिसका हृदय है

लौटकर आईं हूँ अभी-अभी पूरी हो चुकी एक अधूरी नींद से
वह कौन लौटकर आ रहा है अँधेरों में?
यह नीले की जगह है यहाँ नीला ही लौटकर आएगा
—कहता है—श्वेत अवकाश
और अपनी ही बात पर उदास हो जाता है

मैं अपनी रौशनी में लौटकर आने वाली रौशनियों को
प्रणाम करती हूँ—बुद्ध से माँगती हूँ भिक्षा का पात्र
मेरे माँगने पर मुझे कुछ भी नहीं मिलता

प—
न लौटकर आने वाली हर बात ने मनुष्य की रीढ़ में अद्भुत लोच पैदा किया है
इसकी भी एक यात्रा है—

सबसे पहले आँखों में रहने वाले पानी ने आँखों में लौटने से मुँह मोड़ लिया
फिर शिकायतें नहीं आईं लौटकर
उस जगह जहाँ घाव हुआ था

फिर मतवारी कोयलिया विमुख हो गई पेड़ की उस
डार से जहाँ कूक कर वह पूछती थी—
वसंत के आने का समय

नहीं लौटकर आने वाली बातों में ही थीं वे ध्यानमग्न बिल्लियाँ
जो अपनी भाषा में कहती थीं मुझे और स्नेह चाहिए

लौटकर नहीं आयी चंद्रमा की वह चाँदनी
गंगा के पानी में जिसे मल्लाह ने डूबने की कथा सुनाते हुए पीछे छोड़ दिया

स—
इसके बाद लौटकर आई मृत्यु हमारी कोशिकाओं में
कोशिकाओं से अस्थियों तक पहुँची
और हम झुकते चले गए

फिर अंत में जब हम भूल गए अपना ही जीवन
कि वह कितना बिछुड़ा और कितना लौटा तब

हमारी स्मृतियाँ हमसे दूर चली गईं
और फिर कभी लौटकर नहीं आईं

उस अवस्था तक जब कुछ नहीं रहता सिवाए बार-बार झुकने और प्रणाम करने के
मानो मस्तिष्क की कोई कोशिका सिर्फ़ झुकने का ही निर्देश दे रही हो
कहीं कुछ नहीं लौटता
अँधेरे में अँधेरा ही रहता है
रौशनी में रौशनी
मोह में मोह
त्याग में त्याग
और नष्ट में नष्ट

कितना दारुण
कितना पीड़ादायक!!

लौटता है तो सिर्फ़ प्राण
जो बीती रात शरीर छोड़ चुका था
एक आख़िरी बार
उसे विदा कहने के लिए जिससे होनी है
अंतिम विदाई

चौंक कर उठती है संगिनी स्वप्न से!

कोई हमसे हमारी इच्छा न पूछे

हम कई प्रकाशवर्ष दूर से आती है स्मृतियाँ हैं
हम वर्षा का वह मेघ हैं जो अपने दुःखों की पृथ्वी पर छाँव बनकर उमड़ रहा है

हम बरस कर विलगा न दिए जाएँ इसलिए
वायु हमें एक दूसरे के निकट लाती है
और फिर हमारी आँखों में एक-एक बूँद सूर्य का गाढ़ा पीला छिड़क देती है
रात के समय यह पीला हमें हमारी दूरियों और चंद्रमा की याद दिलाता है

हम कई योजन से चलकर आए वे भिक्षुक स्मृतियाँ हैं
जिनके सूखे कंठ पर पारिजात की पत्तियाँ उभरी हुई हैं
और जिनके कर में विश्वास की मिट्टी से गढ़ा का एक पात्र धरा है

शरीर में नहीं है कोई समाधान
नदी हमसे बार-बार कहती है
पर उसी नदी को पार कर हम शरीर की कामना करते हैं

हम नहीं जानते निःसार है यह संसार
हमने एक दूसरे की जिह्वा पर वियोग लिखा है
हमने प्रेम किया है विष को अमिय जानकर

कोई हमसे हमारी इच्छा न पूछे!

बिछड़ने के बारे में

बिछड़ने के बारे में कविताएँ तभी तक लिखी गईं जब तक बिछड़ने के बुरे सपने से नींद खुल जाती थी। अचानक गला सूख जाता था। अँधेरों में हाथ पानी का गिलास ढूँढ़ने लगता था।

नींद टूटने के बाद बहुत देर तक ऐसा लगता था कि सपने की नदी में एक पाँव धँसता चला जा रहा है। मानो सपने की नदी हमें बार-बार अपने भीतर खींच रही हो। आँसू बहते थे पर पीड़ा नहीं होती थी। या फिर पीड़ा इतनी होती थी कि शब्द नहीं होते थे।

कुछ देर तक ऐसे ही चलता था। फिर धीरे-धीरे हृदय गति सामान्य होती थी। धीरे-धीरे सपने के मुख से एक सफेद झाग निकलता था और वह मर जाता था। वर्तमान सपने के शरीर पर मिट्टी डालना शुरू करता था और फिर उसे दफ़्न कर कुछ देर के लिए फिर आँख लगती थी।

ऐसे ही किसी दिन में बिछड़ने की कविता लिखी जाती थी और फिर सिसकियों की लोरी गाकर उन्हें सुला दिया जाता था।

बिछड़ने की कविताएँ बहुत दिनों तक सोई रहती थीं। नींद से उठने के बाद वे मासूम फ़रिश्तों-सी अपने पंख समेटे धन्यवाद की मुद्रा में खड़ी रहती थीं जिन्हें हम नहीं पहचानते थे।

हम इतने ही क़सूरवार थे कि हम बिछुड़ चुके थे। बिछड़ने की कविताएँ हमारी छत से जा चुकी थीं। जैसे चली जाती है सर्दियों की धूप बादलों का क़ाफ़िला देखकर।

बिछड़ने के बाद बिछड़ने के दृश्य कभी नहीं रुलाते थे। वे कभी-कभी सुख की कविता में आश्चर्य की तरह आते थे। दुःख की कविता में वे किसी ग़ैरज़रूरी शब्द की तरह आते थे जिन्हें बार-बार काटते काटते रह जाते हैं कवि।

सुंदर दिनों में शोक

सबसे सुंदर दिनों में शोक को याद करना वर्जित था
आप उस भंगिमा तक को मुँह पर नहीं ले आ सकते
जिसमें हँसी होंठ के किनारों पर कुछ उदासी लिए रुकती है
और फिर ग़ायब हो जाती है

यह उदास हँसी क्यूँ?
और आप एकाएक बचपन में लौट जाते हैं
सर्कस में जोकर को रोता हुआ देखकर रोते बच्चे

आईने में ख़ुद को देखकर आप भी यही सवाल करते हैं
और आईने में जोकर की आँख से आँसुओं का फ़व्वारा फूट पड़ता है

सबसे सुंदर दिनों में क्यूँ घेरता है शोक
हो सकता है इसका उत्तर जेठ की किसी दुपहर में
गाए जा रहे सबसे कोमल गीत में छिपा हो!

‘ख़ाली’ की आत्मा

एक बंद पंखे से ज़्यादा स्थिर क्या हो सकता है
अनवरत चलती घड़ी से ज़्यादा गतिमान और क्या है
अलमारियों और बंद लिफ़ाफ़ों से ज़्यादा अँधेरे को और किसने सँजोकर रखा है?

प्रश्न पूछती हूँ ख़ुद से
एक-एक कर सभी वस्तुओं का संसार
आँखों के सामने आ जाता है
मैं उस संसार का बहुत छोटा हिस्सा हूँ

उत्तर न देने वाली ये सभी वस्तुएँ
मुझसे ज़्यादा ज़रूरी और सहनशील हैं

यह सोचते हुए दिए जला रही हूँ
संपूर्ण प्रकाश के बाद भी
एक बाती रह गई जिसे कुर्ते की जेब में रख लिया

बंद पंखे, चलती घड़ी और अलमारी को देख रही हूँ
अभी-अभी सामने की ख़ाली दीवार पर दृष्टि पड़ी
क्या वह ‘खाली’ की आत्मा थी?

किसी ने बोला—
‘आश्वासन!’
और फिर अंधकार।

‘कहने’ के बारे में

‘‘इतनी बड़ी दुनिया में हम किसी से भी नहीं कह सकते कि हम कैसा महसूस कर रहे हैं।’’

‘‘कहने और रोने में अंतर तब ख़त्म हो जाता है, जब हम बार-बार एक ही बात को दुहराने लग जाते हैं।’’

‘‘हमारे कहने में किसी की एक टोक भी हमें संवेदना के समुद्र में तब्दील कर देती है। हम इतने विस्तृत हो जाते हैं कि कहना स्थगित होता चला जाता है।’’

‘‘हम जो नहीं कह पाते वही हमारा गीत बन जाता है।’’

‘‘जो गीत गा दिए गए उनमें हम अपनी सबसे प्यारी बात कहने से चूक गए।’’

‘‘कभी-कभी हम इतने अकेले पड़ जाते हैं कि हम वह सब कह डालते हैं जो हमें अकेला होने से बचाए रखता था।’’

‘‘कहने वाले को सुनने वाला मिले यह ज़रूरी नहीं। फिर भी हमें अपनी बात कहनी चाहिए। हम अपने अंतिम श्रोता हैं।’’

‘‘यदि कोई तुमसे कहे—कभी एक बात कहूँगी/कहूँगा, तो उसके विश्वास को जिलाए रखना। फिर भले तुम सुनने में अक्षम हो।’’

‘‘कहने वालों के लिए रोने की जगहें कम हैं। इसीलिए वे अपनी अंतिम बात पेड़ों से कहते हैं।’’

‘‘कह देने से कुछ कम नहीं पड़ता। सबसे सहज है जीव का मृत देह से बहुत-सी बातें कहना। यहीं से शुरू होता है निःसंकोच अपना मन कहना।’’

‘‘हृदय एक घड़ा है जो रिस रहा है। जो बातें इसमें छिपी रहती हैं, उन्हें तुम्हारे नयन कह देते हैं।’’

‘‘मैं भविष्य के सुख से अपने आज के दुःख कहती हूँ। वह मेरे कंधे पर हौले से अपना हाथ रख मुझे अपनी बात पूरी कहने को कहता है।’’

‘‘मैंने अब तक अपने जीवन की सबसे सुंदर बात नहीं कही। तुमने भी नहीं। हम इसी आशा में जीते हैं।’’

‘‘हम जन्म से बोलना तो सीखते हैं, पर कहना नहीं। मृत्यु हमें कहना सिखाती है।’’

पानी और आईना
शुभा के लिए

मेरे कमरे में एक नया आईना आया है शुभा
तैंतीस वर्ष के जीवन में यह पहली बार आया है
शिख से नख तक मैं अपने को इसमें पूरा देख सकती हूँ

इतने वर्षों में जब मैं बड़ी हो रही थी
जब मैं बीज से फूल और फूल से पतझड़ और पतझड़ से एक बहुत दूर तक फैले मैदान में बदल रही थी
तब तक मैंने ख़ुद को सदैव दूसरों के कमरे में लगे आईने में देखा

मेरी बात पर कौन यक़ीन करेगा
कि अपने कमरे में अपने क़द का आईना न होने से मैं कितनी बार फफक कर रो पड़ी
कितना मुश्किल होता था जल्दी-जल्दी में बिंदी सही करना
कितना मुश्किल होता था थोड़े से एकांत में आईने में अपने आँसुओं को बहता न देख पाना

अब जब मैं नदी के किनारे पर पहुँच गई हूँ
जहाँ मुझे अपना कमरा और संसार के सभी कमरे समुद्र के तल में डूबे हुए जहाज़ लगते हैं

मुझे इस नए आईने में सिर्फ़ पानी दिखता है
पानी से आती हल्की पीली और हरी रौशनी दिखाई देती है

कभी-कभी उस रौशनी में आप दिखती हैं
और कभी-कभी मैं दिखती हूँ
हमारा शरीर भी तो अब पानी बन चुका है न

क्या पानी में तब्दील होते लोगों को आईनों की कमी खलती है शुभा?

आशा आशा आशा

शुभ तुम सबसे अंत में आए।
सभी तरह के लाभ (हानि) प्राप्त करने के बाद।

दुःख और सुख से विमुख
अपने अस्तित्व में विश्वास ले कर आए हो।

न दिखाई देते हो
न तुम्हारे कंठ से फूटते हैं स्वर।

किसका आशीर्वाद बनकर आए हो शुभ ?
क्या जीवन भर फलते-फूलते रहोगे ?

तुम अक्षत जितना छूट गए जीवन में।
बाढ़े तुम्हारे बढ़ती है
आशा आशा आशा!

आश्चर्य की ओट में नहीं कोई आश्चर्य

जीवन की ओट में एक और जीवन था
वह कभी कभी सरक आता था जैसे क़िताब के पीले होते पन्ने से
कोई पीले से भी पीला फूल सरक कर आ गिरता है हथेली में

हथेली की ओट में एक और हथेली याद करती है विदा होते फूलों का स्पर्श
बहुत देर तक देखने की ओट में एक और देखना हुआ
इसी तरह छिपने की ओट में एक और छिपना हुआ
पंखों के भीतर एक और पंख और फिर सिकुड़न
साँस की ओट में एक और साँस

तमाम ख़ुशियों की ओट में छोटी-सी न चीन्ही जा सकी एक और ख़ुशी
रोने की ओट में एक और रोना फूट पड़ा जिसे कोई देख न पाया
इसी तरह बचे रहे हम अपने भीतर अपने आपको देखते हुए
नहीं रहा तो बस
आश्चर्य की ओट में कोई आश्चर्य

जल भरता है

वर्षा में छत पर
गली-कूचे कहीं किनारे
कहीं न कहीं
कोई न कोई
पात्र अचानक रखा मिलता है
जल भरता है
यही आश्वासन है जीवन का
भय का यही विलोम
बीती हुई ऋतुओं का आने वाली ऋतुओं को यही संकेत है
कहीं न कहीं कोई न कोई तुमको सुनता है—
धूप में, वर्षा में, शीत में, ग्रीष्म में
सब कुछ होने के मध्य कुछ न हो पाने की अकुलाहट को मन सोखता है
कहीं न कहीं कोई न कोई
पात्र अचानक रखा मिलता है
जल भरता है।

डूबना

सभी प्रश्न डूबने के पहले पूछे गए
सभी उत्तर डूबने के बाद दिए गए
सभी धन डूबने के पहले जोड़े गए
सभी मोह डूबने के पहले बिंधे रहे

~~~

कौन झाँकता है पानी में
शरीर के डूबने के बाद
डूबती हुई ठेलिया को देखकर पूछा मैंने स्वयं से यह प्रश्न
पार्श्व में बैठे पार्श्वनाथ के मंदिर से उठने लगी संझा आरती की गूँज
डूबने लगा हृदय
छोटी-छोटी सुनहरी मछलियों की छाया से भर गए नयन
‘‘डूबने के लिए चाहिए होता है बहुत कोलाहल’’—
बिना कहे कह गया एक नौजवान
फफक कर रोने लगी कोई स्त्री
डूब गई नाव जिस पर रखी थी झउआ भर मछली और मछुआरे का अँगोछा
छोटे बालकों के दौड़ने की आवाज़ कानों में पड़ी
जा गिरी पृथ्वी ठेलिया पर जिससे खेल रहे थे वे घाट की सीढ़ियों पर अबोध
इन सबके मध्य मेरी मुट्ठी से फिसल गया मेरा मुख
जा गिरा गंगा में और वहीं टूट गई छाया
अंत के इस अंतिम दृश्य में देखा मैंने अपना सर्वस्व डूबते हुए
जिसका चित्र मेरी आँखों में कभी न उभर पाएगा
बस रह-रह उठेगी मन में डूबती हुई ठेलिया के नीले पहियों की घरघराहट
संभव है डूबते हुए किसी मनुष्य के स्वप्न में कोई उसे एक बार घुमा दे
धीरे-धीरे थम जाएगा पहिया
डूब जाएगी ठेलिया
उत्सव के अंत-सी
देखा करे कोई किसी छत से—
असहाय
अभाष्य
डूबना!


अब यह कहे डेढ़ बरस से भी अधिक हुए जब ‘सदानीरा’ पर इस परिचय के साथ गार्गी मिश्र की कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई थीं : ”लगभग डेढ़ बरस हुए जब ‘सदानीरा’ ने गार्गी मिश्र की कुछ कविताएँ उनकी खींची कुछ तस्वीरों के साथ प्रकाशित की थीं। इसके बाद से ‘सदानीरा’ पर उनकी मेधा के आयाम समय-समय पर प्रकट होते रहे। उनके सोचने-समझने-करने और बने रहने में जो वैविध्य है, वह उनकी गहन और संवेदनक्षम दृष्टि का पता है। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ भी इसी दिशा में हैं, इसे यों भी कह सकते हैं कि विविधता का जोखिम गार्गी के यहाँ कविता को पाने का रास्ता है। ‘मुझे नहीं मालूम’ इस मार्ग की विनम्र टेक है और इसलिए बिल्कुल भीतर से शुरू होकर बग़ल से गुज़रता हुआ सामने सारा संसार खुला हुआ है—उपस्थित-अनुपस्थित। समय, वस्तुओं और व्यक्तियों को गार्गी तर्क, गहराई और उन्मुक्तता से देख रही हैं। उनकी व्याकुलताएँ विचलित कर सकती हैं। वह बनारस में रहती हैं। उनसे gargigautam07@gmail.com पर बात की जा सकती है।” इस काल और अवधि के दरमियान इस कथ्य में उनकी कविताओं के विषय में और भी बहुत कुछ जोड़ा जा सकता है, लेकिन घटाने को कुछ भी नहीं है। गार्गी मिश्र उन कुछ रचनाकारों में से एक हैं, जिन्होंने ‘सदानीरा’ को अपनी रचनात्मक आभा से सर्वाधिक समृद्ध किया है।

4 Comments

  1. डॉ महेश शुक्ला मई 6, 2022 at 1:16 अपराह्न

    गार्गी अनंत संभावनाओं को समेटकर, जीवन की गहराई को शब्दों में उरेकती हैं। जीवन को समझने के लिए उनमें अनंत संभावनाएं हैं। छोटी-छोटी घटनाओं को शब्दों के माध्यम से गढ़ने का हौसला अद्भुत है। उनकी कविताओं में रोमांच और कौतूहल दोनों का समावेश दिखाई देता है।

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  2. Siddharth Lakhotia मई 6, 2022 at 3:16 अपराह्न

    दिल से , सच्चे मन से, मासूमियत से, दर्द से, बहुत सी भावनाओ में खुद को डुबोकर लिखी तुम्हारी कविताएं बहुत सरल और बहुत सुंदर हैं। उन्हें साझा करने के लिए आभार। यूंही लिखती रहो हमेशा

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  3. Alok मई 6, 2022 at 6:02 अपराह्न

    I really appreciate you Gargi. !! Talented and Gifted 🙂 The best feeling is knowing that someone wants to read your work because they find it real and emerged from deep thinking and beautiful. All the best !!

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  4. Bipanpreet मई 17, 2022 at 11:13 पूर्वाह्न

    बहुत कमाल की कवितायें हैं। बचा बचा कर रखने वालीं । ऐसे ही नहीं गुज़र जाना चाहिये इन को । ताज़गी से भरी , अपने जैसी । मुबारक गार्गी जी । इतनी सारी नई बातें

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