कविताएँ ::
गुंजन उपाध्याय पाठक

गुंजन उपाध्याय पाठक

अब तुम कैसी हो

चुप्पी की उँगलियाँ कसती हैं गला
और सुलग उठती है नमी सीने में
चौड़ी होकर जीभ खा जाती है
सारे स्वर और व्यंजन
आ… आ… की आवाज़ भी
घुटकर रह जाती है

कुछ दुखों को भी चीख़ने-खीझने की
इजाज़त नहीं देता वक़्त
और कुछ यंत्रणाओं के चिह्न नहीं होते
देह पर

छतों और दीवारों पर
चिपके रहते हैं
ख़्वाबों के चीथड़े
फिर भी अब तुम कैसी हो
पूछ लिए जाने का डर
इंतिज़ार करता है सिरहाने बैठकर

वह उचककर
बदलती रहती है
सिरहाना
रात
भर

पुनरावृत्ति

दर्द एक निरापद व्यवस्था है
जिसमें टटोलती हुई ख़ुद को
धकियाते हुए करती हूँ विदा
असमर्थता को
और दूसरे पहर ही दे बैठती हूँ
आमंत्रण

समय-पूर्व टूट गए या तोड़ दिए गए
भ्रूण का साक्ष्य
अपनी विवशता में लेता है करवट
बार-बार
मेरी नाभि से संबद्ध तंतु में बिखराव को
बटोरती हूँ दोनों हाथों से

ख़्वाबों में हुई पुनरावृत्ति का
ज़िंदा होकर साँस भरना दर्द नहीं देता

जोकर

फटे होंठों के बीच
दाबे हुए धुएँ का चिह्न
रात गए ढूँढ़ता है ईश्वर मुझे
अख़बार के कोने में छपी
सिलेंडर के विस्फोट वाली सूचना में
या फिर दीवार में माथा गाड़े हुए
लोगों की श्रेणी में

उपर्युक्त सभी जगहों पर देता हुआ दस्तक
झाँकता है मेरे कमरे में
जहाँ मंदोदरी और उर्मिला
बाँचती हुई ताश के पत्तों को
एकटक देखती है जोकर को
जो प्रेम या नकारे जाने दोनों की भूमिका में
बिंब की प्रतिबिंबित इकाई में
दिखता या दिखाता है मेरी काया को

पिंड दान

एक दिन जब यूँ ही
मैंने पूछा था :
सौंदर्य क्या है?

तुमने कुछ सोचते हुए कहा :
जैसे—
रक्तिम पलाश के पृष्ठ भाग पर
स्यामल नवकिसलय डंडिका…

ठीक उसी तरह मेरे लिए
उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के बीच की
भटकन और सुलगन को सँभाले
मेरी आत्मा की मुक्ति संभव है
सिर्फ़ तुम्हारे शहर में
जैसे मरने वालों का परिवार
गया आते हैं कराने पिंड दान
उद्धार की अपेक्षा से
मैं सोचती हूँ
बाएँ अलिंद से उठतीं स्वरलहरियों में
धीमे-धीमे गूँजते उस शहर की गलियों को

हस्तांतरण

मज़ार है उनका
जहाँ जाते झुकता है माथा
वली कहते हैं
सुनते हैं
लगभग तीन सौ
या उससे थोड़े ज़्यादा-कम सालों से

मगर आज ग़ायब है
सिर्फ़ कुछ-कुछ याद आता है
और एक पुरस्कार की घोषणा के बाद
कोई ढूँढ़ता नहीं उन्हें

इसी तरह प्रेम भी खो जाता है
डामर चलता है दर्द का
और रोड रोलर से
हृदय ला नक़्शा बदल जाता है

आप, तुम, मैं, हम
गोया शब्द ही ग़ायब
जीभ चिपकी रहती है तालू से
और वक़्त बेपरवाह सरकता चला जाता है

समय या समय-सा
कुछ भी ठीक-ठीक याद नहीं

ख़ूँगर नहीं कुछ यूँ ही हम रेख़्ता-गोई के
माशूक़ जो अपना था, बशींदा-ए-दकन था

ये शब्द न जाने क्यूँ
रक्त-वाहिकाओं में उमड़ते-घुमड़ते हैं
प्रेम का हस्तांतरण
कुछ यूँ भी होता है


गुंजन उपाध्याय पाठक नई पीढ़ी की कवयित्री हैं। उनकी कविताओं की दो पुस्तकें ‘अधखुली आँखों के ख़्वाब’ और ‘दो तिहाई चाँद’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी हैं। उनसे gunji.sophie@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. अमृता सिंह फ़रवरी 9, 2023 at 7:14 पूर्वाह्न

    गुंजन की कविताएं,,, पढ़ीं और एक के बाद एक पढ़ती चली गई.. जैसे दर्द गुजरता है एक शिरा थाम दूसरे छोर तक अपनी चिनक छोड़ता हुआ..

    सलाम इस खूबसूरत लेखनी को

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