कविताएँ ::
गुंजन उपाध्याय पाठक

पूर्व-विवरण
उसे मत चाहो
उसे चाहना तुम्हें
ऊब और अवसाद से भर देगा
उसे रंगीनियों के उस पार की
उदासी का पता मालूम है
उसे मालूम है
हेरफेर में माहिर
तुम्हारे दिल का
बाज़ार के नियंत्रण में
घुटती हुई जवानियों का
और बुढ़ापे तक लादे हुए
स्वप्नदोष का
अँधेरी रातों में
हृदय के जलते अंगारों को
सुर्ख़ फूल में बदलते देख सकती है
उसने दीवारों पर उगाए हैं
बिना पंख वाले स्वप्न
हो सकता है
उसके बेहद क़रीब जाकर
तुम्हें मिले अवहेलना
वह तुम्हें छोड़ तकती रहे चाँद
और एक खुले आसमान की कामना में
काँपते रहें उसके होंठ
तुम खीझो और ढूँढ़ो
कि कौन है उसके क़रीब
परछाइयों की सरसराहटों से
हो उठो चौकन्ने
रिझाने की सारी कला में माहिर
उसकी प्यास की तासीर को परखो
अब सामने खड़ी
महँगाई और तुम्हारी आत्मसंतुष्टि
जितनी दफ़ा नकारा जाएगा
उतना ही ज्यादा पोषित होगा अहं
और यह सच कि
जितनी कशिश तुम्हारी चाहत में थी
उसका पासंग भर भी
वह तुम्हें चाह न सकेगी
बार-बार दुत्कारे जाने के बावजूद उसे
एक बार सेवा का मौक़ा अवश्य दे का टैग लगाकर
दोनों सूजी हुई टाँगों पर खड़ा रहना चाहिए
यह सोचते हुए कि
एकबारगी फिर तुम मोह लोगे
मीठी-मीठी बातों में
पर हर बार की दरकनें
चली आएँगी दरमियान
कोसने को
दुत्कारने को
उसकी बेहयाई पर ठहाके लगाते हुए
धोखा-धोखा
चिल्लाते हुए
ख़ून-ख़राबे और युद्ध के उथले शोर के बीच
घन्नाते हुए माथे को कंधे पर सँभाले
अपनी हँसी को दुहराती हुई
विचित्रता के मध्य
चप्पलों में फँसे तलवों में घूमते नाचते
तुम्हारे शहर की गलियों में
बारिश की उम्मीद में
अंतिम सिगरेट की तपिश से जलते होंठ
उमस और पसीने से भरी शाम में
अपनी गर्दनों पर रेंगते
तुम्हारे चुंबनों को सहलाते
अधलेटी-सी सुनते हुए
फ़ज्र की अज़ान
सोचती है
वह सचमुच हो सकती थी
तुम्हारी लैला!
पश्चात्-विवरण
पटाक्षेप होता है
पर्दा उठता है
दृश्य बदलता है
और
नायक नायिका मंच पर
खड़े हैं एक घायल और एक शिकारी
प्रेम क्या है—
एक झूठ
एक छलावा
धीरे-धीरे तुम्हारे वजूद को
खोखला करने वाली कोई औषधि
यूँ तो लगता रहता है
कि कल से आज बेहतर है
पर वह खाता जाता है तुम्हारे फेफड़े
एक दूसरे को देख लेने
सुन लेने की उत्सुकता
एक दूसरे को जाल में फँसाने
और फँसने से ज़्यादा कुछ भी नहीं
एक-दूसरे की गंध से उठती
साज़िश की कोई महक
छू लेने की ललक पर
पाशविक चेतना का असर
आख़िरकार
एक दिन थक कर
हम खोल ही देंगे सारे राज़
कैसे कब और किस तरह
साधा था निशाना
लक्ष्य साध लेने के गर्व से
दीप्त होकर
किया था प्रेम!
घाट
साँझ के पार की पुकार पर
अनावृत मन
व्याकुल होकर ढूँढ़ता है रास्ता
पुल पर बनी कोहनियों में
एक घटना रुकी हुई है
बिग-बैंग से थोड़ी बड़ी और थोड़ी उदास
हिंदी की गिनतियों में छिपी हैं पहेलियाँ
हथेलियों के जुड़ने की
भाग्य का प्रपंच
चिकोटी काटता है
गंगा घाट का सूनापन
अब भी चिहुँक उठता है दुपहरिया में
तुम्हें देखने से पहले तक
मैं नहीं जानती थी कि
यह घाट का पानी
अपने उतार में भी क्यों
छटपटाया करता है।
एफ़र्ट
प्रेम के सारे मानक
धीरे-धीरे छोड़ रहे थे अपना रंग
यह कैसा विचित्र समयदोष था कि
निरंतरता पर प्रहार करता हुआ वह
आँखों को भींचकर मासूम-सी अदा में
उँगलियों पर गिनवा सकता था
अपने सारे एफ़र्ट
और वह विस्मय से भरी देखती जाती थी
छतों के बदलते हुए रंग को
सिर्फ़ दो फूल
(किसी भी रंग, गंध या प्रजाति के)
कौन देगा
न मिलने पर
पलंग से उठते हुए
भाप में सीझती उसकी देह
दुत्कारे गए कुत्तों की-सी
मनोदशा में डोलता मन लिए
शहर के हर गली-मुहल्ले से समेटती है
अपनी स्मृतियों को
चाँद के पूरा होने पर
नींद की बैचैनियों से लड़ती
और हँसुली भर चाँद को
गले में पहनकर तड़पती
वह ठगी-सी
प्रेम के झूठ-सच-प्रपंच को देखकर
फिर एकबारगी मान लेती कि
जितनी मुहब्बत उसे चाहिए
उतनी इस दुनिया में है ही नहीं
उसकी भटकन
रातों को किसी कुएँ से आवाज़ देती
मृगतृष्णाओं के भँवर
पाँवों में जगह-जगह गाँठ की तरह सजे हैं
इक धुंध से लिपटा पुल है
और कोई रेलगाड़ी उधर से नहीं गुज़रती
उन पटरियों पर अपना माथा टेक कर
करती है दुआ कि काश कोई रेलगाड़ी
कभी तो गुज़रे इधर से
एक लंबा कश
और माथे पर उभरी हुई नस
न जाने कौन बनारस के घाट से
इस क़दर टेरता है उसका नाम कि
जीवन की सारी संभावनाओं को ठुकराते हुए
वह चाहती है मर जाना
किसी खुले आसमान के तले।
गुंजन उपाध्याय पाठक की कविताएँ ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : कुछ यंत्रणाओं के चिह्न नहीं होते देह पर
प्रेम की वेदना और अपने अस्तित्व के स्वीकार की चाहत लिए स्त्री मन की सहज अभिव्यक्ति हैं ये कविताएं।गुंजन को बहुत बधाई।