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पंकज प्रखर

पंकज प्रखर

काटती बराबर

वह काटती बराबर
देखा मैंने उसे फ़ेसबुक पर—
वह काटती बराबर।

हॉट डीपी उसकी प्रोफ़ाइल पर
रहती ऑनलाइन काटने को भर
स्लिम तन, गौर फ़िल्टर यौवन
मादक नयन, काटने में निर्लिप्त मन
करती इनबॉक्स में मैसेज बार-बार
झुंड में कुँवारे और शादीशुदा दो-चार।

हो रही थी गहरी रात
सर्दियों के दिन
रात का सिकुड़ता हुआ मौसम
उठी भड़काती हुई आग
हुई नींद भी तब ख़ाक
एकदम तिरमिरी-सी छा गई।

प्रायः रहती ऑनलाइन दिन भर
देखा मैंने उसे फ़ेसबुक पर।

देखते मुझे मैसेज किया तुरंत : हैलो!
सुन रहे हो डियर! जल्दी बोलो
देखकर कि अन्य कोई नहीं ऑनलाइन
बोली इतना झार कर
तनिक ऐंठते हुए
झूम गया मैं तन-मन हार कर
देखी मैंने वह तस्वीर
जो नही थी डीपी पर।

एक क्षण के बाद वह हँसी ठठाकर
डिलीट किए मैसेज सारे तुरंत जाकर
जाते हुए दूसरे के इनबॉक्स में
हँसकर कहने लगी—

मैं काटती बराबर
यहाँ फेसबुक पर।

मूल कविता : तोड़ती पत्थर

हरजाई बिजली

सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई,
झूठ क्या कहूँ। पूरे दिन डामर के साथ गिरती
गिट्टी निहारना, समोसा खाना और उल्टियाँ
करना, पसीने से देह का चिट-चिट करना।
इस-उस लड़की पर मन दौड़ाना। फिर उठकर
रील देखना कभी फ़ेसबुक से कभी इंस्टाग्राम से।
बड़ी हरजाई यह बिजली है। यह बिल्कुल नकचढ़ी है।
इसका कुछ ठीक नहीं है आना-जाना। आए दिन
की बात है। वहाँ झगड़ा-वबाल छोड़ और क्या था।
किस दिन क्या तोड़ा-फोड़ा। गर्मी अपार गर्मी
का ही था अपना कोटा। नित्य कूलर में पानी
भरना तब जाकर कहीं सोना। धीरज धरो,
जून-जुलाई तक आऊँगा, जब देखूँगा
ईएमआई पर ए.सी लगवा पाऊँगा।

मूल कविता : आरर डाल

एक तूतिये का बयान

मैं एक सुंदर से कमरे में
न जाने क्या कुछ कर रहा हूँ

मेरे पास कुछ भी नहीं है—
न मेरी कविताएँ हैं
न मेरी भाषा हैं
न मेरी समझाइश है

यहाँ तक की मेरी बीड़ियाँ भी नहीं हैं

मैं सही समय में
ख़राब कविताएँ लिखता हुआ
सस्ती बीड़ी पी रहा हूँ

मैं एक सुंदर कमरे में जी रहा हूँ
और अपने को टटोल कह सकता हूँ
दावे के साथ
मैं एक साथ ही महत्त्वाकांक्षी भी हूँ
और अनाकांक्षी भी

मैं डामर और गिट्टी की सघनता में
दबा हुआ
अपने को खोद रहा हूँ

मैं एक बौद्धिक की शक्ल में
छिपा हुआ चूतिया हूँ
औरों को गरियाता हुआ
औरों की प्रतिभा से डरा हुआ बैठा हूँ

मैं अपने को टटोल कह सकता हूँ
दावे के साथ
मैं बहुत ख़राब क़िस्म की कविताएँ लिखता हुआ
फ़ेसबुक की दुनिया में धँस गया था

मैं बेरोज़गार था
मैं सेवारत था
मैं सेवानिवृत्त था

मैं हिंदी का पत्रकार
प्रोफ़ेसर
अफ़सर था

मैं एक मिथ्या बौद्धिक था
मौक़ा पड़ने पर कुलांगार था

मौक़ा पड़ने पर आलोचक था
मैं ग़लत ऑडियंस का अविनाश था

मैं ग़लत प्रेमिका का प्रेमी था
ग़लत साली का जीजा था!

मूल कविता : एक मुर्दे का बयान

दिल्ली

इस शहर में बिहारी
अचानक आते हैं
और जब आते हैं तो मैंने देखा है
आनंद विहार स्टेशन की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस ऐतिहासिक शहर की
गाँड फटने लगती है

जो है वह गरियाता है
जो नहीं है वह भेजता है लानतें

आदमी स्टेशन पर जाता है
और पाता है स्लीपर के बाथरूम का दरवाज़ा
बहुत सारे चूड़े
बहुत सारे भूजे
और बहुत सारी बाल्टियों से
एकदम चोक हो गया है

सीढ़ियों पर बैठे भूजा खाते
बिहारियों में एक अजीब उत्साह है
और एक अजीब-सी चमक

खैनी से भर उठी है
बिहारियों की गदौरी

तुमने कभी देखा है
ख़ाली गदौरी में खैनी का मलना!

कोई शहर इसी तरह ठीक रहता है
इसी तरह ख़राब होता है
और ख़ाली होता है यह शहर

इसी तरह किसी न किसी रोज़
एक बिहारी दीवाना
ले आता है बहुत कुछ
आनंद विहार स्टेशन से
चमकते हुए कनॉट प्लेस की तरफ़

इस शहर में ऑटो
धीरे-धीरे चलते हैं
धीरे-धीरे साँस लेते हैं लोग
जल्दी-जल्दी पीते हैं शराब
शाम आख़िर हो ही जाती है

यह धीरे-धीरे और जल्दी-जल्दी होना
संपूर्ण चूतियाप की एक सामूहिक लय
बकचोदी से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि स्टेशन वहीं है
कि वहीं पर सतत खैनी मल रहे हैं बिहारी
कि वहीं पर रखी है उनकी बाल्टी
सैकड़ों बरस से

कभी सई साँझ
बिना किसी सूचना के
बिहारियो!
घुस जाओ इस शहर में

कभी क्वार्टर के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा नोएडा में है
आधा ग्रेटर नोएडा में
आधा ग़ाज़ियाबाद में
आधा गुरुग्राम में है
आधा मानेसर में
आधा फ़रीदाबाद में
यह आधा राजस्थान में है
आधा हरियाणे में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा कवियों से
और आधा कुकवियों से भरा है
जो कुछ नहीं है
वह भी कवि है
बिना किसी कविता के
जो नहीं है
उसे थामे हैं
प्रभात की रंजनीय रश्मियाँ
किसी झँटहे कवि को
देते हुए प्रशस्ति
सालों से इसी तरह
विश्वविद्यालय के किसी सभागार में
या रज़ा की रंगशाला के एकदम भीतरी कमरों में
अपनी-अपनी मूर्खता को माथे पर साटे हुए
इस नगर में बिहारी
अपनी मूर्खता से
बिल्कुल बेख़बर!

मूल कविता : बनारस

नमस्कार करने रमन पास आ गया था

नमस्कार करने रमन पास आ गया था
रमन को मैं नहीं जानता था
नमस्कार को जानता था
इसलिए मैं रमन के पास ठहर गया
रमन ने हाथ बढ़ाया
मैं रमन का हाथ पकड़कर खड़ा हुआ
रमन मुझे नहीं जानता था
हाथ पकड़ने को जानता था
हम दोनों ने नमस्कार किया
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
नमस्कार करने को जानते थे।

मूल कविता : हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

रील बनाती स्त्रियाँ

जब वे दसवीं में थीं
उन्होंने रील बनाई
फिर स्नातक होकर
फिर रिसर्च स्कॉलर होकर

जब साँझ को लोग टहल रहे थे
अपने कुत्ते के साथ
जब सब तरफ़
अव्यवस्थित हो रहा था यातायात
उन्होंने अपनी भौंहों को धन्वाकार किया
कमर को ऐंठकर
होंठों को सिकोड़ा
पाउट बनाकर तिर्यक हो गईं
लेकिन आख़िर में उन्हें मिले
महज़ कुछ कमेंट

आपने उन्हें हॉट कहा तो उन्होंने रील बनाई
और चबी कहा तब भी
उन्होंने उधार का डेटा लेकर रील बनाई
फिर बिल्लियों को गोद में लेकर
उन्होंने अपनी जवान रातों के ठीक बीच में रील बनाई
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं रील

पहले कुँवारी थीं तो रील बनाई
फिर शादीशुदा होकर
वे मायके से लौटीं तो रील बनाई
स्कूटी सीखकर जब वे आईं तब भी
उन्होंने कई बार
सिर्फ़ एक बल्ब की रौशनी में रील बनाई

और कितनी ही बार
सिर्फ़ व्रत के दिनों में
भूख-प्यास-सुस्ती-उपवास
मूसलधार बारिश में
अगस्त की भरी उमस में उन्होंने रील बनाई
फिर बहुत ज़्यादा चहक कर
उन्होंने उचकते हुए रील बनाई

आपने उनसे शादी में रील बनवाई
बीस आदमियों के सामने रील बनवाई
ज्ञात-अज्ञात इन्फ़्लुएंसरों का उदाहरण
पेश करते हुए रील बनवाई
कई बार लाइक दिखाकर
कई बार दिल फेंक कर
और फिर सौंदर्य-विषयक बताकर

आप चीख़ें—उफ़्! इतना हॉट
और भूल गए उस मेहनत को
कि रील बनने से पहले
उन्हें गुज़रना पड़ा
दृश्य, संगीत और हर तरह की तैयारियों से

कभी उनका पूरा सप्ताह इस ख़ुशी में गुज़र गया
कि पिछले दिनों बिना मेहनत-मशक्कत के
देख ली गई थी उनकी रील
कि परसों अनगिनत लाइक्स मिले

उस अंकल का शुक्रिया
जिसने पूरी रील देखी और ‘कमाल’ कहा
और उसका भी जिसने बेमन से ही सही
रील देखते ही लभ-रिएक्ट किया

वे दरोग़ा हुईं
प्राइमरी टीचर हुईं
उन्होंने एसएससी की तैयारी की
और रीजनिंग सॉल्व की
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई
एक ही कसौटी

अब वे कॉर्पोरेट संस्थानों की छतों पर
ठीक कर रही हैं दुपट्टा
रात के अँधेरे में फ़्लैश की रौशनी में
देख रहीं डार्क रिंकल्स
उनके दुपट्टे से
सूट से
उनकी साड़ियों से
महक रहा है वेलाविटा
अनगिनत अंबार लगे हैं
लाइक-कमेन्ट-सब्सक्राइब के
और वे कह रही हैं यह रील देखो—
यह ट्रेंडिंग है

उन्हें सुबह की नींद में रील बनानी पड़ी
फिर दुपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने रील बनाई

उनकी इन्स्टाग्राम-प्रोफ़ाइल में
बाढ़ आ गई है लाइक्स की
बढ़ने लगे हैं सब्सक्राइबर
मेटा वेरिफ़िकेशन के लिए
दस्तक दे रहा है ज़ुकरबर्ग
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
नाचते हुए रील बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से नाचा नहीं जाता है।

मूल कविता : खाना बनाती स्त्रियाँ

परास्नातक परिचयाभाव में

वे डीयू से थे
यही उनकी पर्याप्तता थी
वे जे.आर.एफ़. थे
यही उनकी सबसे बड़ी योग्यता थी
भले ही अब तक
उनके दिखने से पहले नहीं दिखता है
उनका परिचय-पत्र!

सब इस तरह अपने-अपने
‘स्कोर-कार्ड’ और ‘विश्वविद्यालयी वैभव’ में
बहुत और योग्य थे
जबकि बहुत सारे परास्नातक
सिर्फ़ इस वजह से पी-एच.डी. में दाख़िल नहीं हुए
क्योंकि वे प्रो. श्रीवास्तव
और प्रो. साही से परिचित नहीं थे।

मूल कविता : प्रतिभाएँ अपनी ही आग में

मुझे कुछ क्लासिक-वैचारिक-सा चाहिए

मुझे विमोचनों-आयोजनों
और प्रायोजित आलोचनाओं की
(कु)चिंतित सूक्तियों से दूर करो
मुझे इन मेलानियों से बचाओ

मैं प्रत्येक स्टॉल पर प्रतिपल घटित होती
विमोचनी-ललितकलाओं को देख लेता हूँ—
मुझे मेले से धकियाकर बाहर कर दो!

सारी बिकने वाली किताबें
बेस्टसेलर हैं कि नहीं
यह क़यास जाए भाड़ में
मुझे बेस्टसेलर चाहिए ही नहीं
आज नहीं
कभी नहीं…
बेस्टसेलर पढ़ने की मेरी मजबूरी ही नहीं
इच्छा ही नहीं
ज़रूरत ही नहीं…

अपठनीय किताबों का भी
स्साला कोई न कोई प्रयोजन है
किसी बेस्टसेलर को तो ख़ैर
कभी पठनीय पाया ही नहीं

कुछ क्लासिक-वैचारिक-आधुनिक-सा चाहिए
जैसे अर्थ-मीमांसायुक्त ‘छंद-छंद पर कुमकुम’

जैसे ‘अनामदास का पोथा’
जैसे ‘दूसरी परंपरा की खोज’
बहुत झनझनाता हुआ ‘हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास’
कोई दहकता हुआ वाक़ई में कविता-संग्रह
जो समकालीनता की विचलित धारणा बदल दे

मुझे कुछ क्लासिक-वैचारिक-सा चाहिए
जैसे हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास
जैसे ‘काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से’

मूल कविता : मुझे कुछ सीधा-सरल चाहिए


पंकज प्रखर [जन्म : 1994 गोपालगंज, बिहार] नई पीढ़ी के कवि-गद्यकार हैं और पैरोडी साहित्य के संसार में एक गुमशुदा विधा है। पत्र-पत्रिकाओं के व्यापक प्रसार वाले युग में एक समय हिंदी कविता की पैरोडी कुछ विशेष-विशेष अवसरों पर नज़र आती और सराही जाती रही, लेकिन मनोरंजन के माध्यमों का जैसे-जैसे विस्तार हुआ—हिंदी साहित्य में व्यंग्य और पैरोडी सरीखी विधाएँ छीजती गईं। यह रचनात्मक कौशल के अभाव का मामला कम, रचनात्मक साहस के अभाव का मामला ज़्यादा है। बहरहाल, पंकज प्रखर ने बहुत साहसपूर्ण ढंग से कुछ प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध हिंदी कविताओं की ये पैरोडियाँ संभव की हैं; उम्मीद है कि लेने वाले इन्हें अन्यथा नहीं लेंगे, क्योंकि अन्यथा इतना लिया जा चुका है कि अब ख़त्म हो चुका है। पंकज प्रखर से और परिचय के लिए यहाँ देखिए : नहीं होने के लिए कुछ भी नहीं हो सकता है | मेरे पास विदा का कोई समुचित वाक्य नहीं

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