कविताएँ ::
हरे प्रकाश उपाध्याय
मेरी भीषण पीर
न जाने कौन देवता कौन फ़क़ीर
वहीं हरते रहते मेरी भीषण पीर
कह रहे ओला बाइक चलाते सुधीर
सर मन हो जाता है कभी बहुत अधीर
पहले एक सिक्यूरिटी कंपनी में गुड़गाँव जाके कमाते थे
उसके पहले एक फ़ैक्ट्री में पानी की टंकी बनाते थे
सब ख़र्चा काट-पीटकर महीने का पाँच हज़ार बचाते थे
चल रही थी ज़िंदगी सही ही, सर हम भी ठीक ही कमाते थे
इस बीच सुनीता मेरी वाइफ़ की किडनी में हो गई दिक़्क़त
सर आँधी-तूफ़ान में कैसे उखड़ते हैं पेड़ समझ गए हक़ीक़त
होता था बीपी अप एंड डाउन पर अचानक आई ऐसी मुसीबत
पता नहीं किस जनम का पाप जो चुका रहे उसकी अब क़ीमत
लखनऊ में हफ़्ते में होती है दो दिन सुनीता की डाइलिसिस
चार हज़ार किराया दो हज़ार बिटिया की जाती है फ़ीस
सर पेट मुँह दाबते कैसे भी उड़ जाते हैं बीस-इक्कीस
किसी महीने में उधारी दे देता है प्यारा दोस्त सतीश
बारह बजे दिन से बारह बजे रात तक गाड़ी चलाता हूँ
बहुत कोशिश करके महीने में बीस या बाईस कमाता हूँ
सर इतने से कैसे चलेगा, मैं लोगों को प्लॉट भी दिलाता हूँ
आपको कुर्सी रोड की तरफ़ चाहिए तो कहिए बताता हूँ
सीतापुर के बाशिंदा सुधीर के भाई हैं पाँच
सर आज के ज़माने कौन किसका यही है साँच
सब अपने में मगन दूर से हक़ीक़त लेते हैं जाँच
सर लीजिए पहुँच गए, रुपए हुए कुल एक सौ पाँच!
रफ़ीक़ मास्टर
हरदोई से भाग कर आए हैं रफ़ीक़ मास्टर
पंडितखेड़ा में डेढ़ कमरे का किराए का घर
बरतन बासन कपड़ा लत्ता और बिस्तर
हँसकर कहते हैं, देख रहे नवाबों का शहर
कुछ अपनों ने मारा कुछ ग़ैरों ने मारा
कब तक सहते छोड़ आए निज घर सारा
ज़िंदगी ऐसी दिखा रही दिन ही में तारा
सी कर ढक रहे ग़ैरों के तन फट गया वसन हमारा
पुलिया से आगे फुटपाथ के किनारे
तानी है पन्नी बाँस बल्ली के सहारे
यही झोपड़िया लगाएगी नैया किनारे
फटी सब सीएँगे टूटी मशीन के सहारे
सुनो रे भैया कहानी उनकी तुम सच्ची
कभी-कभी फाँका कभी पक्की औ’ कच्ची
नेक है बग़ल वाली अपनी कलावती चच्ची
दे जाती है सुबह में रात की रोटी उनकी बच्ची
घर में मुर्ग़ी न बकरी बस बीवी और बच्चे
समय पर चुके किराया मौला दे न गच्चे
सुबह से शाम करते हैं काम
कभी न उनको छुट्टी आराम
बड़े छोटे सबको करते सलाम
हफ़्ते के सौ रुपए लेता चौराहे का सिपहिया
कभी आ जाता रंगदार मनोजवा चलाता दुपहिया
फटी उघड़ी सबकी बनाते, देखते सुखवा के रहिया
क़ैंची चलाते सोचते जाएगा दुखवा ई कहिया
पैंडल मार-मार फूल रहा दम टूटही सड़क पे चलना मुश्किल
कहते रफ़ीक़ होके उदास कैसे चलेगी जीवन की साइकिल
कहिए भैया अब आप ही कहिए
लग रहा पंचर भी हैं इसके दोनों पहिए!
नाम मतवाला
दो गाय एक भैंस चार बकरी नाम मतवाला
जादो जी के ख़ाली प्लाट में रहता है एक ग्वाला
लंबे क़द का दुबला-पतला चौड़ी मूँछों वाला
मुहल्ले में सब कहते उसे भैया लंबू दूधवाला!
मुर्ग़ों से बहुत पहले से वह जगता है
सारे कुत्तों के सो जाने पर ही सोता है
कभी चारा-पानी कभी दूध दुहता होता है
दस बजते-बजते अपनी भैंस वो धोता है
क़र्ज़ा लेकर ख़रीदा था परसाल एक गाय
पता नहीं क्या रोग लगा क्या लिया चबाय
मुँह बाकर मर गई गया घर में शोक छाय
कैसे उबरे, जिए किया उसने ख़ूब उपाय
पूरे परिवार संग मतवाला बस लगा ही रहता
कभी चोकर कभी गोबर हरदम जुटा ही रहता
हाथ कभी सानी में कभी पानी में उसका रहता
कभी दूध कभी कंडा लेकर मुहल्ले में हाज़िर रहता
दूध बेचकर परिवार उसका जीता है
कहते लोग शाम को बढ़िया देसी पीता है
मैंने देखा सुबह खाता वो बेर पपीता है
उसकी बीवी भली हमारी भाभी गीता है
हरदम हँसकर ही वो सबसे बोले
काज परोजन संग साथ वो डोले
ज़रा मोहब्बत में वो आपकी हो ले
रहता सुबह शाम दुकान वो खोले
जो कहते दूध में मिलाता पानी है
वो उनकी समझ की नादानी है
पेशा उसका दूध का खानदानी है
ज़रा से पानी से क्या आ जानी है
पूरा जीवन जैसे उसका दूध गोबर पानी है
बुढ़िया दिखती चालीस की उसकी रानी है
खटते-खटते उसकी ज़िंदगी कट जानी है
कौन महल उसका, रहने को बस टूटी पलानी है!
कहानी राधा की
सुनो कहानी शहर की राधा की
उसके जीवन की भवबाधा की!
पिता को बदमाशों ने मार दी गोली
माँ उनके पीछे-पीछे रुख़सत हो ली
अब घर में वह निपट अकेली हो ली
रखती नज़र उस पर लंपटों की टोली
हर ओर अँधेरा लगता जग ओछा
कौन कन्हैया जो दे उसे अँगोछा
मामा ने दिया भरोसा आँसू पोंछा
जीती करके अब घरों में झाड़ू-पोंछा
रोटी से फुसलाते बाबू कहते नहीं हैं तेरे ग़ैर
सेठ कहते चलो करा दें तुम्हें शहर की सैर
मना करने पर रखने लगे सब साले उससे वैर
धमकाते बकरे की अम्मा कब तक मनाएगी ख़ैर
एक दिन दिन-दहाड़े उसका अपहरण हो गया
ख़ुदग़र्ज़ शहर कान में तेल डालकर सो गया
ग़ैरत बची थी किसमें जिसे कहें वह खो गया
हर किसी ने माना कि जो होना था सो हो गया
सुभाष के चार यार हुआ सामूहिक बलात्कार
शहर दर शहर घूमती रही उनकी बेख़ौफ़ कार
बहरा ज़माना कौन सुनता अबला का चीत्कार
सच्चाई यही बुरा मानिए या कीजिए धिक्कार
मामा इधर राधा को जगह-जगह खोजता रहा
इससे पूछता उससे पूछता यहाँ वहाँ रोता रहा
आँसू बहा-बहाकर वह अपना दीदा खोता रहा
शैतान का नाती पसीजा नहीं वह ख़ुश होता रहा
पुलिस ने डाँटकर चौकी से मामा को भगाया
थानेदार ने बलात्कारियों को फोन कर बुलाया
नुची-खुंची राधा को उसके घर जा फिंकवाया
ले लो पचास हज़ा र बुला मामा को समझाया
इस बीच कुछ कुछ होता रहा
न्याय का नाटक चलता रहा
मामा दौड़-भाग करता रहा
अपमान वह भरपूर सहता रहा
पानी जैसे बहता है बहता रहा
ख़ून भी जिसका बहना था बहता रहा
ऐय्यासों का पैसा सिर चढ़ बोलता रहा
प्रशासन का ईमान कपड़े अपने खोलता रहा
मर गई दो चार दिन में तड़पकर राधा
पुरोहित ने कहा कटी सबकी भवबाधा!
सबसे सुन्नर भिंडी का फूल
कल फ़ोन कर खेत पर बुलाए यार मनसोखा
आओ भैया बनेगा झोपड़िया पे लिट्टी-चोखा!
मनसोखा ने गाँव के सिवान पर सब्ज़ी उपजाई है
खेत के किनारे बड़ी सुंदर छोटी एक झोपड़ी बनाई है
दिन रात खेत में खटते रहते घर पे रहती भौजाई है
गरू-बछरू वे देखतीं यही उनके परिवार की कमाई है
मनसोखा भाई करते हैं मुझसे पूरे मन की बात
फ़ोन-तोन रेडियो-फेडियो से बनती नहीं वो बात
इसीलिए पखवारे महीने में चाहते हैं एक मुलाक़ात
साथ जुटकर कभी हम लिट्टी कभी खाते मछली भात
कल तो भैया खाते-पीते बतियाते हो गई बहुत देर रात
मेरी जान ने कहा गुस्से में वही सो जाओ आना तुम प्रात
भैया ख़ैर अपने मनसोखा दिलचस्प इंसान हैं
उनकी बातों में गरू बछरू खेती का बखान है
बता रहे थे गोरू बछरू ही उनके भगवान हैं
उनके ही बलबूते पल रहे उनके चार नादान हैं
उनका पड़वा कमबख़्त तनिक हो गया शैतान है
पीकर दिन दुपहर दूध महीने भर में हुआ जवान है
मनसोखा बोले भैया बहुत मेहनत माँगती खेती तरकारी
खुरपी लेके जुटे रहते धूप बारिश जाड़ा में क्यारी क्यारी
टूटकर जाती तोरई लौकी बाज़ार में तो फिरती मारी-मारी
हम हिम्मत से लगे रहते हारने लगती सूरजा की महतारी
ऊपर से धौंस जमावत हैं खेत के मालिक वीरेंदर तिवारी
बंदर जइसन पौधन के नोचत तोड़त हैं खेत की तरकारी
करो नौकरी सरकारी या बोओ तरकारी लोग कहत हैं
बोले मनसोखा सबको भला आन के काम लगत है
भैया जड़ ज़मीन जल को क्या बूझे जो नगर बसत है
आकर कौन सूँघे हमार पसीना जो दिन रात महकत है
हमरे ऊपर बहत जल पर अंदर हमरे आग लहकत है
मजबूरी में पड़ल मानुख ही सबके दू-चार बात सुनत है
अच्छा मनसोखा छोड़ो हो जाओ तनिक अब कूल
कहो क्या जाते हैं तुम्हारे बच्चे भी अब पढ़ने इस्कूल
नदी पार कर थोड़ा-सा आगे जहाँ है पेड़ तरकूल
तुम्हारा बग़ीचा भी होगा हरा भरा खिलेंगे खूब फूल
क्या देखकर जीते हो भाई कहो कड़वाहट अपनी भूल
हँसकर बोले मनसोखा—भैया सबसे सुन्नर भिंडी का फूल!
हरे प्रकाश उपाध्याय हिंदी के सुपरिचित-सम्मानित कवि-गद्यकार और संपादक हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ इस अर्थ में उल्लेखनीय हैं कि इनमें कवि ने अपने पक्ष को अटूट रखते हुए अपनी पूर्व-शैली को विदाई दे दी है। लेकिन इन कविताओं में कवि कहने के बहुत नए ढंग में चला गया है, ऐसा भी नहीं है; बल्कि यह कहना ज़्यादा उचित होगा कि यहाँ उसने कहने के एक पुराने ढंग को अपने लिए नए सिरे से आविष्कृत किया है। यह यत्न हिंदी कविता को फिर से बहुत सारे किरदारों के बीच ले आया है—ऐसे-ऐसे किरदारों के बीच जो रोज़ हमारे साथ रहकर भी लंबे समय तक हमारी संवेदना का स्थायी अंग नहीं बन पाते। यहाँ कहना न होगा कि बड़े विमर्श, बड़े संकट, बड़े समाचार और ‘बड़े लेखक’ हमें इन वास्तविक किरदारों और उनके जीवन से रोज़ दूर रखते हैं। यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हरे प्रकाश उपाध्याय की कविता के विकास-क्रम का यह दूसरा चरण मूलतः पात्र-प्रधान होने जा रहा है—एक लयलीन प्रतिबद्ध प्रतिकार में पात्र-प्रधान! इस प्रसंग में अन्य कविताएँ ‘पहली बार’, ‘समालोचन’ और कवि की फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर पढ़ी जा सकती हैं। संपर्क : hpupadhyay@gmail.com
कविताएँ अलग मिज़ाज की हैं। अच्छी हैं और उम्मीद है यह कवि बहुत आगे जाएगा।
बस अन्त्यानुप्रास का आधिक्य कभी कभी खल सकता है आगे चलकर। शिल्प इनका भिन्न है लेकिन उसमें बदलाव भी ज़रूरी है।
अलहदा कहन लेकिन रोचक । बहुत सुंदर कविताएं। शुभकामनाएं 🌻
सभी कविताओं में आस-पास के जीवन का स्दपंन
बिहार के हैं तो बोली की मिठास से पगी…