कविताएँ ::
हिमांशु जमदग्नि

हिमांशु जमदग्नि

मैं पूछूँगा तुमसे

स्वप्न में लगे सातवें सुर से
प्राप्त अनुभव ने कहा
तुम नश्वर और अमर हो
विद्यमान रहेंगे तुम्हारे तीनों गुण सदैव
अँधेरे में तैरती आकाश-गंगा के हृदय में
पर यह मेरा अनुभव है

मेरा अनुभव
स्वयं का प्रतिबिम्ब है
जिससे मुझे ज्ञान हुआ
गाली देना क्यों आवश्यक है
क्यों आवश्यक है
प्रेम में डूबी लड़कियों का
खाने से दुश्मनी करना
घर से भागे लड़कों का
घर न लौटना
घिसी कमीज़ पहन
विश्व राजनीति पर
बहस करते हुए
अपने डोलते रिश्तों को
चितली उँगली से
गले‌ लगाकर रो पड़ना

बहरहाल, परीक्षा में फ़ेल हुए बेटे के
पिता की तरह खोज रहा हूँ
दो‌ समानांतर रेखाओं के
मिलन-बिंदु पर रखा
अनुकरण-पट्
जिस पर लिखा है
यह, यह और यह करना है
यह कराना है
यही करते जाना है

कान बिंदवाती बच्ची के
दर्द को गले में भर
नवजातों को बेचते माँ-बापों से डर
घुड़लिया होकर भाग रहा हूँ
पीर संस्था की ओर
वर्तमान में जो मन को चला‌ रही है
उसे चला रहे मंत्रियों के प्रधान
प्रधान को‌‌ चला रहा
उद्योग‌ रानी का पति
और‌ मेरी गति
बिटोड़े में रखे घोसे की तरह
जल‌ जाना है मुझे
मर जाना है…

नहीं, मैं मरूँगा नहीं
मैं विचार की संज्ञा ले
तुमसे पूछूँगा
तुम यह क्यों कर रहे हो
क्यों करना है
क्यों डरना है?

मैं हर रोज़ लावा‌ निगलता हूँ

यह ज़रूरी है
जीने के लिए
गले में लटके वाक्यों को
गलाने के लिए
यह प्रक्रिया झूठ बोलने की तरह है
कब किसने कैसे सिखाई
मैं नहीं जानता
पर मुझे आती है
मैं हर रोज़ लावा निगलता हूँ

मैं गले वाक्यों को
बाहर नहीं‌ निकलने देता हूँ
मल‌ के‌ रूप में भी नहीं
मैं उन्हें सेंकता हूँ
डर के‌ चूल्हे पर
अंदर ही अंदर खाता‌ रहता हूँ
गले के‌ दरवाज़े पर
पुनः ये सिर मारते हैं
रोते हैं, चिल्लाते हैं, बिलखते हैं,
पर‌ मैं, पुरुष के‌ अंदर आए
प्रेत की‌ तरह बर्ताव करता‌ हूँ
जो‌ तांत्रिक के पास नहीं
स्वयं के‌ पास जाना‌ चाहता है

मैंने अपनी आज़ादी
गिरवी‌ रखी है टुकड़ों में
अलग-अलग व्यक्तियों के पास
यह दमनकारी भी है
और फलकारी भी
मैं अपने‌ हाथों से उन्हें
ख़ुद को खिलाता हूँ
उन्हें खाता हूँ
हम सब दुनिया-मन-पटल‌ पर
एक-दूजे के ख़ून से
हर रोज़ लिखते हैं

वे‌ शिशु मारे जाते हैं
जिन्हें संरक्षण प्राप्त नहीं होता

गेहूँ की बालियों में मुझे
चालाकी दिखाई पड़ती है
दुम हिलाते कुत्ते
इंसानों से ज़्यादा
समझदार दीख पड़ते हैं
जानते हैं वे
भूख तृप्त करना
बने रहना दौड़ में
अंतहीन दौड़
आग के गोले पर
आग के‌ गोले के चारों ओर
विस्थापन शून्य
विवशता युग-युगीन
इस आग के‌ गोले से उठाकर
मैं हर रोज़ लावा निगलता हूँ
क्योंकि यह ज़रूरी है
जीने के लिए
मैं हर रोज़…


हिमांशु जमदग्नि नई पीढ़ी के कवि हैं। उनकी कविताएँ इससे पूर्व PoemsIndia पर प्रथम बार प्रकाशित हो चुकी हैं। उनसे himanshujamdagni66250@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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2 Comments

  1. नीरज मई 31, 2024 at 5:01 पूर्वाह्न

    सधी हुई कविताएं।

    Reply
    1. हिमांशु जमदग्नि मई 31, 2024 at 6:32 पूर्वाह्न

      धन्यवाद भ्राता ❤

      Reply

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