कविताएँ ::
धर्मेश

केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के तहत लगभग इक्कीस गाँवों का विस्थापन होना तय हुआ है। विस्थापन में राजगोंड समुदाय के हज़ारों लोग प्रभावित हो रहे हैं। इनमें से दस गाँवों में मैंने इस बरस डेढ़-दो महीने बिताए हैं। ये कविताएँ उस अवधि में देखी-सुनी बातों से प्रेरित हैं। मेरी प्रार्थना है कि इन्हें मेरे अनुभव मात्र के तौर पर देखा जाए, न कि समुदाय की यथास्थिति के विवरण के तौर पर।
— धर्मेश
पन्ना की कविताएँ
एक
सीने पर बैसाख भर की धूप
उभर आने के बाद
दोस्तों ने मुझे घोषित किया मेहनती
उन्होंने कहा—
इतनी भीषण गर्मी में
जंगलों की ख़ाक छानते
लोगों से बात करते
उनके समाज की जानकारी लेते
तुम जान गए होगे
उनके जीवन का सार
मैं आँगनवाड़ी में बैठा
देख रहा हूँ
एक काले रंग की चिड़िया
आँगनवाड़ी में लगी है
भारत की चिड़ियों की तस्वीर
उसमें काली चिड़िया का नाम नहीं है
दो
जौ-ज्वार रखने वाले लोग
हम आदिवासी हैं
हिंदू नहीं—
ये उद्घोष करते हुए
उनकी वाणी में
उनके पुरखों का विद्रोह था
उनके मस्तक पर तेज
और आँखों में गर्व
उनके पास दो पोथियाँ थीं
एक में उनके पुरखों के रहवास की कथाएँ थीं
और एक में उनके बच्चों के स्वामित्व के दस्तावेज़
जंगल से कोसों दूर
शहर लौटने पर
मुझे ध्यान आया
उनके बच्चों के दस्तावेज़
एक मस्जिद के मलबे के नीचे
सन् ‘92 में दफ़नाए जा चुके थे
और उनके पुरखों की पोथियाँ
किसी अनजान संग्रहालय में
मिथकों और परीकथाओं के बीच
धूल खा रही थीं
तीन
हमारे भी पैर जलते हैं
हम भी इंसान हैं—
यह कहते हुए वे हँस रहे थे
वे इसलिए नहीं हँस रहे थे
क्योंकि यह झूठ था
वे इसलिए हँस रहे थे
क्योंकि दुनिया भर के लोग
यह मान बैठे थे कि
पत्थर से जंगल में मीलों पैदल चलने पर
उनके पैर पत्थर से हो जाते हैं
सावधान!
हज़ारों वर्ष सूरज की आत्मा में तपने के बाद
निर्जीव-निरीह नहीं हैं पत्थर
वे अग्नि के जनक हैं
वे समंदर के अभिमान पर दूर तक बिछे हैं
संजीवनी को उपजाने वाले पत्थर
दुश्मन की बंदूक़ों के सामने
खड़े होते हैं अडिग
हाथ उठाए
मुट्ठी भींच करते हैं मुनादी—
इंतिफ़ादा! इंतिफ़ादा! इंतिफ़ादा!
चार
दो नदियों के संगम से
मेरे शहर में उतरती है एक तीसरी नदी
इन नदियों की पवित्रता की गाथाएँ
आदि पुराणों में दर्ज हैं
आदि पुराणों में यह भी दर्ज है
कि कुछ लोगों के छूने से
अपवित्र हो जाती हैं नदियाँ
नहीं होती हैं नदियाँ अपवित्र
जब उनके तटों पर दफ़्न हो जाते हैं
भीड़ में खोए लोग
नहीं होती हैं वे अपवित्र
जब उनके सीने पर बाँध दिए जाएँ बाँध
और उनके अंचरे के अथाह जल को
उड़ेल दिया जाए
जंगलों के रहवासियों के चूल्हों में
यह कैसे संभव है
कि देवताओं की धूर माथे पर लगाए
बच्चों को अपने खेल-खिलौने
और खेल के मैदान छोड़कर जाते देख
नहीं होतीं नदियाँ अपवित्र?
मुझे इन नदियों पर शक होता है—
कहीं ये डाकुओं से तो नहीं जा मिलीं?
कहीं ये आपस में मिलकर
किसी गौरैया का घोंसला तो नहीं तोड़तीं?
कहीं इनकी प्यास मिटाने को
डुबोए तो नहीं जा रहे आदिम गाँव?
मेरे लोगो,
वक़्त आ गया है
इन दोहरी हुई नदियों के विरुद्ध
हमें विद्रोह घोषित कर देना चाहिए
पाँच
जंगल की कुछ औरतों के नाम
डैनेज़ स्मिथ की कविता ‘ऑल्टरनेट नेम्स फ़ॉर ब्लैक ब्वॉयज़’ से प्रभावित
- उसने अपनी तमाम उम्र लकड़ियाँ काटने, महुआ बीनने और चरवा फोड़ते बिता दी।
- उसका बेटा टाइगर सफ़ारी के गेट पर मर गया।
- उसने सभी मरे बच्चे जने।
- उसका रंग अमावस की रात-सा स्याह है।
[यह उपमा उसे मैंने दी है। उसे अपना रंग नहीं सुहाता।] - उसके बैल को बाघ खा गया।
- शिकार के जुर्म में उसके मरद को जंगल विभाग ले गया।
- पलायन में उसका मायका उठा, ससुराल नहीं।
- खेती का मुआवज़ा बेटे के इलाज में उठ गया।
- वह चाहती है कि सारा गाँव साथ जाए।
- “नहीं सर, मैं अपनी बेटी को ख़ूब पढ़ाऊँगी।”
- घरवाले ने पैसे मिलने पर इतनी शराब पी कि वह मर गया।
- [वह पानी लेने के लिए गाँव से तीन कोस दूर गई थी, सो मैं उसका नाम नहीं जान पाया।]
- उसे सपने में चुड़ैलें दिखाई देती हैं।
- उसके दुधमुँहे बच्चे को चुड़ैल ले गई।
- उसने मुझसे पूछा, “आप इन अंधविश्वासों के चक्कर में क्यों पड़े हैं?”
- उसने कहा, “पैर अकड़ गए हैं।”
- सत्रह बरस की होने पर मुआवज़ा नहीं बनता।
[शासन का फ़रमान है कि जनवरी 2022 के बाद 18 बरस का होने पर हर जवान व्यक्ति को बिना मुआवज़े जंगल से निकाल दिया जाए।]
छह
अपने दो बित्ते की देह पर
चार गुना बड़ा कलसा उठाए
एक लड़की
तपते पत्थरों पर
चढ़ी चली जाती है
गाँव अभी दूर है
स्कूल की घंटी बज चुकी है
आज फिर देरी से जाने पर
उसके हाथों पर उभरेगा
महावर का चटख़ लाल रंग
धर्मेश की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनकी ये कविताएँ हमारी चालू निगाह का निषेध करते हुए, सही अर्थों में ज़मीन से संबद्ध हैं। यहाँ प्रतिकार का वातानुकूलित व्यवहार वर्जित है और आक्रोश का काव्याकार इस प्रकार प्रकाशित है कि वह हमारी चालू निगाह को विचलित और लज्जित करके रख देता है। कवि से और परिचय के लिए यहाँ देखिए : तुम्हारी सभ्यता की असभ्य कविता
बहुत ज़रूरी प्रश्न खड़ी करती हुई कविताएं हैं। कवि को बधाई और धन्यवाद इन कविताओं के लिए।