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ज्योति रीता

ज्योति रीता

दो स्त्रियाँ

दो स्त्रियाँ जब आपसी प्रेम में उतरती हैं
धरती कई रंगों के फूलों से पट जाती है
और आसमान ख़ुशबुओं से भर जाता है

हमारा प्रेम दुखों के तंतुओं पर
मरहम का लेप है
जहाँ तितलियाँ बैठकर प्रेमगीत गाया करती हैं
गिलहरी अख़रोट खाती है
और ख़रगोश घास चुभलाता है

हमने प्रेम में जाना कि
एक स्त्री और एक पुरुष का होना ज़रूरी है
हमें किसी ने नहीं बताया—
स्त्री और स्त्री के बीच का प्रेम-रहस्य

जब दो स्त्रियों की आँखों के बीच का
खारा पानी एकसार होता है
कई-कई यातनाएँ
एक साथ विलुप्त हो जाती हैं
चाय पहले से ज़्यादा काली
और आबिदा पहले से ज़्यादा सुरीली हो जाती है
निज़ार क़ब्बानी को पढ़ने का सुख
पहले से ज़्यादा आता है

जब दो स्त्रियाँ
एक दूसरे की पीठ थपथपाती हैं
बेमौसम वसंत उतर आता है
एक साथ कई मिमोसा-फूल खिल उठते हैं

वे सभी स्त्रियाँ
जिन्होंने एक दूसरे से प्रेम करना सीखा
ज़्यादा ऊँची छलाँग लगा पाईं

इन स्त्रियों का प्रेम
उनकी आँखों से छलकता है
इन स्त्रियों के प्रेम की अपनी भाषा होती है
वे किसी भी कीच से
एक-दूसरे को खींच सकती हैं

हमें चाहिए कई महसा अमीनी
और क्लारा ज़ेटकिन जैसी स्त्रियाँ

ये कलाकार स्त्रियाँ
अपने कौशल से कर सकती हैं
मुकम्मल हर कला!

नमकीन औरतें

औरतों को अपनी
योग्यता सिद्ध करने के लिए
गहन परीक्षणों से गुज़रना पड़ा
औरतों ने अपनी योग्यता को
सिद्ध करने का ज़रिया
अपनी देह को बनाया…

ऐसा कार्य-स्थल पर बार-बार सुना गया

औरत की तरक़्क़ी
उसकी देह से होकर गुज़रती है
औरत का सुंदर होना
उसके आगे बढ़ने का औज़ार है

अपने हक़ के लिए बोलने वाली औरतों को
चरित्रहीनता के पैमाने से देखा गया
औरतों को अपने हक़ की बात
दबी ज़ुबान से बंद कमरों में करनी थी

खुलकर बोलने वाली औरतें हमेशा नागवार रहीं
उन्हें कई-कई परतों में बंद करने के
हथकंडे अपनाए गए

घर की इज़्ज़त को
औरतों के पल्लू से बाँधकर देखा गया

सिर से पल्लू का सरकना
पौरुषेय इज़्ज़त के साथ खिलवाड़ था

बंद कमरों में खुलकर जीने वाली औरतें
पति के लिए मसाला थीं
खुले दरवाज़ों पर उन्हें
चुप रहने की सलाह दी जाती

गहनों से लदी औरत परंपरा थी
किताबों से संगत करती औरत—
परंपरा-विरोधी और खिलंदड थी

इन खिलंदड औरतों से
दूसरे घर के बुज़ुर्गों ने
अपनी बहू-बेटियों को हमेशा बचाया
और दूर रहने की हिदायत दी

खिलंदड औरतों के किए गए कार्य
उनकी रीढ़ से रिसता नमकीन जादू था

इन औरतों ने जब प्रेम किया
तो उन्हें जादूगरनी कहा गया
कहा गया इन औरतों ने प्रेम नहीं किया
प्रेम में फाँसा था

इन औरतों पर पहली उँगली उठाने का
तमग़ा औरतों को ही मिला
पुरुष चटख़ारे लेकर इन पर हाथ उठाते
इन औरतों को क़ाबू में रखने की
तरकीब सुझाते

सफल पुरुष वही रहा
जिनकी औरतें लगाम में रहीं

बेलगाम औरतों के पुरुष को
प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा गया

औरतों के लिए नियम कौन तय करता रहा
यह किसी को नहीं पता था
इन नियमों को तोड़ने का पाप
हमेशा औरत के सिर रहा

औरत घर की तरफ़ जाने का ठहराव है
यह बात दादी से अक्सर सुनती

मेरे उग्र स्वभाव पर वह चिंतित रहती
पर मैं दादी की इन बातों को
कंठस्थ नहीं कर पाई कभी

औरतों का उग्र होना
उनके जीने का नमक है।

गलनांक

स्त्री जब मज़बूती से
ज़मीन पर पैर टिका रही थी
तब पुरुष ने पैर को कमज़ोर पाया

स्त्री घर से निकल रही थी
घर की स्थायी नींव
जाने कौन हिला रहा था

गाभिन स्त्री चढ़ रही थी ट्रेन-बस-ऑटो
दौड़ रही थी सड़कों पर
पुरुष के पैर भारी थे

गहगहाई स्त्री नींद के चरम बिंदु पर
छू रही थी तिलिस्मी दरवाज़ा
तुम खुली आँखों से गांधारी थे

रात के प्रथम पहर में संकर-राग गाकर
दीवार की टेक लेती स्त्री
तुम्हारे लिए प्रश्न थी

तुमने बिना पल गँवाए
कई-कई प्रश्न किए
स्त्री उत्तर में बस मुस्कुराई

स्त्री देर रात संगीत-शास्त्र में
शिव का धनुष तोड़ रही थी
तुम हकबकाए भाँग फाँक रहे थे

हाकिम मिथ्या प्रलाप में लीन था
स्त्री संसद के भीतर पहुँच चुकी थी
ग़श खा गया था मूर्छित गवैया

ग्रीवा का दर्द महसूस करते हुए
तुमने कहा—
अगली पंक्ति तुम्हारे लिए है

चामर इस ओर घुमा दिया गया
अब बताओ—
तुम्हारा गलनांक क्या है?

यंत्र

उन सारी स्त्रियों ने
बचपन के उन सारे वाक़यों को
हमेशा याद रखा
जिसमें उनके घर के ही लोगों ने
स्नेह के नाम पर
उनकी पीठ को सहलाया
उनकी जाँघों पर उँगलियाँ घुमाईं
उन सारी जगह पर हस्तक्षेप किया
जहाँ उनका अधिकार था ही नहीं

ख़ून के घूँट पी-पीकर लड़कियों ने
चुप्पी साधना सीखा

माँ ने हवाला दिया—
घर का मामला है

पिता तक बात जा ही नहीं पाई

स्कूल में शनिवार का दिन
सांस्कृतिक कार्यक्रम में शाबाशी देने के बहाने
जब संस्कृत के टीचर ने
अजीब तरीक़े से छुआ था
तब भी कुछ नहीं कह पाना
आज भी सालता है

मुंडन-समारोह का दिन
गाड़ी में जगह कम होने से
माँ ने पंडित जी से कहा—
गोद में बैठा लीजिए,
बच्ची है…
दो घंटे के रास्ते में बच्ची-देह को
छूता- टटोलता रहा वह बूढ़ा पंडित

आज भी मंदिर की सीढ़ी चढ़ते हुए
पंडितों को देखकर डरता है मन
उस दिन कुछ नहीं कह पाने के दुःख से
आज तक भरा हुआ है मन

रिश्ते में रहे मामा-चाचा-ताऊ-भाई सबने
किसी न किसी तरीक़े से छूना चाहा
बचपन की इस छुअन से
सिमटती रही लड़कियाँ

जिस समय माँ मानती रही
लड़कियों को बच्ची
उस समय लड़कियाँ
बढ़ती देह से प्रौढ़ हो रही थीं

जीवन से भरी लड़कियाँ बस सहमी रहीं
उसे इस बात का दुःख ज्यादा रहा कि
माँ क्यों नहीं समझती हर बात
क्यों हर सुबह चाय लेकर भेज देती है
चाचा के कमरे में

लड़कियों को जब जानना था स्नेहिल प्रेम
जब उन्हें महसूस करना था वात्सल्य
जब उन्हें ख़याल रखे जाने का
अपनापन चाहिए था
उस समय प्रेम और स्नेह के नाम पर
वे काँपने लगी थीं

स्कूल के लड़कों ने
जब पहला प्रेम-पत्र थमाया
तो वे इस तरह डरीं
जैसे पत्र तेज़ाबी हो

उन लड़कियों ने प्रेम को उस नज़र से
देखे जाने का सुख कभी हासिल नहीं किया
क़रीब जाने का सुख उन्हें डराता रहा
इस भयावह दौर से गुज़रती हैं लड़कियाँ

लड़कियों ने बस इतना जाना कि
उनके पास कोई यंत्र है
जिससे समस्त पौरुष सुख पाता है।

दो और स्त्रियाँ

एक स्त्री दूसरी स्त्री को सिखा रही है
गूगल पर सर्च करना
गूगल हर चीज़ का उत्तर जानता है

स्त्री सबसे पहले गूगल पर लिखती है—दुःख
दुःख की परिभाषा क्या है?

दुःख कई-कई अर्थों में खुलने लगता है
हर गाँठ पर स्त्री हथेली रखती है

दुःख चाहता है स्त्री का साथ
स्त्री पीना जानती है दुःख

दुःख स्त्री की पीठ पर
छोड़ देता है नमकीन पानी
छाती से लगकर पाता है सुख

दुःख मुस्कुराने लगता है
साथ बैठकर चाय पीता है

दु:ख स्त्री का पर्याय है।


ज्योति रीता की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। ‘मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ’ शीर्षक से उनका एक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनसे jyotimam2012@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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