कविताएँ ::
महिमा कुशवाहा
पहाड़
कमरे के अंदर
बिलखता है कवि
एक पूरी रात टूटती है
मद्धम-मद्धम
सब कुछ छूट रहा है
सब कुछ टूट रहा है
विकल्प—
सिर्फ़ स्वीकार है
सब कहते हैं—
मैं पहाड़ हो चुकी हूँ
अब मुझ पर चढ़ा नहीं जा सकता
एक पहाड़ होने पर
मेरे पास कोई विकल्प नहीं
सिवाय टिके रहने के
तुम
मुझ पर कूदो
मुझको ढूँढ़ो
देखो तुम्हारे बग़ैर
मैंने कितने झाड़ उगा रखे हैं
ख़ुद पर
रौंदो मुझको
कनेर और अरंडी के पौधों को निकाल दो
लगाओ मुझ पर एक सुंदर फूल
मेरे शरीर के उतार-चढाव से थककर
सो जाओ मेरे ही किसी वृक्ष के नीचे
तुम रहो मेरे क़रीब
तुम एक पहाड़ी बन जाओ!
अवसाद
विकल मन में
खुलता है
अवसाद का
छोटा कमरा
छोटे कमरे से निकलती हैं
बेचैन रातें
घर लौटता है कवि
घर ढूँढ़ते हुए
दिशाहीन घर
ढूँढ़ते हुए
वेदना से ऊँघता है
एक छोटा चंद्रमा
मुझे कुछ भी याद नहीं
मैंने ज़ोर से आवाज़ दी—
काफ़्का! काफ़्का!
और दरवाज़े के पीछे
एक भृंग स्वर देता रहा
बीते दिन कठोर रहे
बीते दिनों की शक्लों वाले लोग
घूमते हैं इर्द-गिर्द
उद्देश्यहीन आगामी दिनों में
अपेक्षाएँ लगा बैठा है मन
जीने की…
गुड़हल के फूल पर
बैठी छोटी चिड़िया
उसके पीछे बैठा साँप
याद दिलाता है—
अनिश्चित जीवन!
मृत्यु
धीरे-धीरे क़ैद हो जाएगा
पूरा संसार एक चुप्पी में
हमारी आवाज़ के ढंग लिए दौड़ेगी
ग़ुस्सैल आत्मा हमारी देह पर
धीरे-धीरे क़ैद होगा हमारा जीवन
कंक्रीट के जंगलों में और
देह जाएगी मुक्ति की तलाश में
जंगलों की ओर
अपेक्षाओं के कुएँ में कूदेंगे लोग
दोस्तों की स्मृतियाँ याद दिलाएँगी
जीवन
फूल
वसंत…
और फिर तेज़ आँधी उड़ा ले जाएगी
रंगों को
कारख़ानों तक
रंग विलुप्त होंगे
हमारे ड्राइंग रूम से
कैनवस से
आईने से
और दबा दिए जाएँगे
घर के पूर्वजों की तरह
सफेद कफ़न में
अंत में एक मौन होगा तुम्हारा
मेरे लिए
मौन में दोस्तों की बीमारियाँ
सीढ़ियाँ चढ़ेंगी
मैं बिलखूँगी तुम्हारी छाती पर
स्मृतियों के बोझ आँखों से टूटेंगे
माँ की याद बनी रहेगी
ये उन दिनों की बात होगी
जब मृत्यु खटखटाएगी द्वार
रोज़ जीवन की तलाश में
हमारी दहलीज़ पर!
सुख
मैं जिऊँगी वहाँ भी
जहाँ जीवन अलौकिक है
और मैं
जीवित हूँ
त्रासदियों में
रात की सुस्ती और उदासी में
रेत की तरह
घुल जाने के बाद
ईश्वर को पुकारना विवशता है
मृत्यु की याद का अलौकिक सुख
स्मृति का खो जाना
प्रतिबिंब में कुछ नहीं…
मैं जिऊँगी तब भी
पत्तियाँ झरेंगी,
फलों से ओस टपकेगी
धूप के साथ
झुर्रियाँ याद की शक्ल लिए उगेंगी
देह पर
फूँक दूँगी पूरी उदासी
नग्न देह पर
छिटक दूँगी देह से कष्ट
ईश्वर को याद करूँगी सुख में
(त्रासदियों को निचोड़कर
किसी शव-सा जला दूँगी)
सुख होगा आलिंगन में
रात
मैंने पूछा—
हम किस सदी में हैं?
क्या वे दिन की मछलियाँ हैं
जो रात हमारी बाँहों में तैर रही हैं?
रात जिसे मैंने सौंप रखा है
अपना सब कुछ
जैसे उदासी और पागलपन और
कल के न होने की कामना
बहुत दूर तक रात
रात के आगे भी रात
मेरे कमरे में
छोटी खिड़की के बराबर का सुख
थोड़ी-सी नींद
चाँद की हल्की रोशनी
मस्तक को चूमती हुई
मेरी रात से बस
इतनी ही अपेक्षाएँ हैं।
महिमा कुशवाहा की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह उन्नीस वर्ष की हैं और अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़) में रहती हैं। उनसे mahimakushwaha547@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बीते दिन कठोर रहे
बीते दिनों की शक्लों वाले लोग
घूमते हैं इर्द-गिर्द
………………..
क्या वे दिन की मछलियाँ हैं
जो रात हमारी बाँहों में तैर रही हैं?
वाह ….. सुंदर
Your writing defies your age.
It’s deep, subtle and stirring!
मेरे शरीर के उतार-चढाव से थककर
सो जाओ मेरे ही किसी वृक्ष के नीचे
तुम रहो मेरे क़रीब
तुम एक पहाड़ी बन जाओ!
उद्देश्यहीन आगामी दिनों में
अपेक्षाएँ लगा बैठा है मन
जीने की…
गुड़हल के फूल पर
बैठी छोटी चिड़िया
उसके पीछे बैठा साँप
याद दिलाता है—
अनिश्चित जीवन!