कविताएँ ::
मनीषा जोषी

मनीषा जोषी

समूह

बारिश के बाद
हरी घास की चादर
बिखरी पड़ी है इन पहाड़ियों पर।

दिन-भर यहाँ इस नर्म घास को
अपने दाँतों तले चबाती रहती
एक अकेली बकरी को देख
मुझे अक्सर याद आती है
चाँद पर अकेले रहते उस ख़रगोश की
जो पता नहीं कब से अकेला ही है।

कभी न ख़त्म होनेवाली भूख से भी
ज़्यादा डरावनी होती है
कभी न ख़त्म होने वाली हरी घास।

उस ख़रगोश को भी शायद
घने अँधेरे से भी ज़्यादा डरावनी लगती होगी
प्रचुर, शुभ्र-श्वेत चाँदनी।

उदास कर रही है मुझे अब
हरी घास और सफ़ेद चाँदनी।

अब तो बस अच्छा लगता है
ग्रीष्म का एक तप्त दिन
जब कड़ी धूप से बचने
सूखे मैदान के बीच
एक एकाकी वृक्ष की छाँव तले
इकट्ठी हो जाती हैं सारी गाय-भैंसें।

सुलगते हुए सूर्य के तले
एक समूह में होना ही है
जीवन।

रक्त से ज़्यादा रति

रात की अभेद्य शांति में
भेड़-बकरियों की कामुक आवाज़
बैं… बैं… बैं…
कम नहीं होती किसी शृंगारिक कविता से।

बाड़े में खचाखच भरे हुए ये शरीर, अति संकुलित
साँस भी लें तो एक दूसरे को छूती हैं इनकी साँसें
और गर्म खालों में सिमट जाती हैं रातें
लंबी, गुनगुनी, बेशुमार।

इनके रोम रोम में है एक कामांध गंध
जो लुभाती है दिन रात बस प्यार के लिए।

तसु भर की जगह नहीं है यहाँ, इस बाड़े में
पर बहुत समय है इन शरीरों के पास प्रेम के लिए।

कम पड़ जाते हैं इन्हें, दिन और रात
जन्म और पुन:जन्म के लिए।

इनके पुष्ट शरीरों में
दूध से भी ज्यादा है, प्रेम
रक्त से भी ज़्यादा है, रति।

बंदरगाह

वैसे तो सूना पड़ा रहता है यह बंदरगाह
जैसे हो कोई निर्जन कोठार धान रखने का
पर बदल जाता है हवा का रुख़
कुछ दिन पहले से ही
जब आने वाला होता है यहाँ कोई जहाज़।

बहुत बड़ा नहीं है यह बंदरगाह
पर इतना छोटा भी नहीं कि
न दे सके सपने
यहाँ रहती स्त्रियों को।

इंतज़ार रहता है इन्हें जहाज़ का
जिसमें आते हैं इनके सौंदर्य प्रसाधन
और कुछ पुरुष।

खींच लेता है जहाज पूरे गाँव को
अपने अवैध प्रभाव में।

बंदरगाह पर जहाज़ का आना
जैसे किसी विशालकाय मृत मछली का
पानी की लहरों के साथ
किनारे तक बहते चले आना।

बहुत भ्रामक होती है
मृत मछली की शांति
ठीक इस भूले बिसरे बंदरगाह की तरह
जहाँ जहाज़ के कमरों में क़ैद रखा रहता है
एक अशांत, नौजवान समुद्र।

नदी तट के वृक्ष

किनारे
जो बह नहीं पाए नदियों के साथ
अब बस गए हैं मेरे ज़ेहन में
ठीक उसी तरह
जैसे अपने गाँव के कच्चे घरों को
बाढ़ में बह जाते
देखने के बाद भी
वहीं खड़े रह जाते हैं
पुराने, लाचार वृक्ष।

इन वृक्षों की झुकी हुई डालियों से
पानी में झरते रहते फूल
ऐसे बहे जाते हैं बेख़बर
मानो चले जा रहे हों किनारे
बहती हुई नदी के साथ।

मेरा मन भी
नदी तट के वृक्षों की भाँति अलिप्त
देखता रहता है शांत
किनारों को साथ लिए
बहे जा रहे फूलों को।

दाहभूमि के वृक्ष

आधी जली हुई चिताओं के साथ
पूरे जल जाते हैं
दाहभूमि के वृक्ष।

शवों के साथ कुछ दूर तक जाकर
वापस लौटे हुए ये वृक्ष
बाक़ी सारा जीवन
बातें करते हैं उन मृतकों से।

मेरा मन भी
इन मरघट के वृक्षों की भाँति
कहीं दूर से लौटकर आया हुआ
देखता है अब रोज़ सुबह होते ही
पर्वत के पीछे से निकल आते सूर्य को।

मैं भी बातें करती हूँ दिन-भर
तब आसमान में कहीं न दिखते चंद्र से।

रहना एक शहर में

सिटी बस की एक तरफ़ की खिड़की से देखा हुआ शहर
अभी बाक़ी है दूसरी तरफ़ की खिड़की से देखना।

बाक़ी है अभी एक समय में जीया हुआ शहर
किसी दूसरे समय में जीना।

बाक़ी है अभी एक ही शहर में
कुछ अलग-अलग घरों में रहना।

बाक़ी है शहर की सारी लंबी-लंबी
एकतरफ़ा गलियों के अंत तक जाना
और फिर चुपचाप वहाँ से लौट आना।

बाक़ी है इस शहर से
एक लंबे अरसे तक दूर चले जाना
और फिर वापस आकर यह कहना
कि बहुत बदल गया यह शहर
या फिर यह कहना
कि बिलकुल ही नहीं बदला यह शहर।

मैं रहना चाहती हूँ इस शहर में कुछ ऐसे
कि रास्ते पर नाचते-गाते गुज़र रही
शादी की बारात के पीछे-पीछे
हाथों में पेट्रोमैक्स लालटेन लेकर
चला जा रहा हो कोई बंदा।

मैं बस इतनी हो जाऊँ इस शहर की
कि कुछ भी न रहे यह शहर मेरे लिए।

रह जाना एक शहर में

यह शहर कभी बहुत कुछ था मेरे लिए।

मुझे अच्छी लगती थी
इस शहर के पीने के पानी में
मिलाए जाते क्लोरीन की मात्रा।

मैं सूँघती थी
इस शहर के सिनेमाघरों की
घिसी-पिटी सीटों पर फैला पड़ा हुआ
सस्ता भाईचारा।

मैं जानती थी
इस शहर के सबसे बड़े बिलबोर्ड के पीछे
अपने घोंसले बनाकर रहते हुए
कबूतरों की कई पीढ़ियों को।

लेकिन फिर एक दिन रात के समय
इस शहर के एक आम स्विमिंग पूल की
हैलोजन लाइट्स की रोशनी में
चमकती हुईं नीली टाइल्स पर
मेरा पाँव फिसल गया
और वे मुझे पी गईं
नीले, गहरे समंदर की तरह।

रोज़ सुबह
स्विमिंग पूल के पानी में गिरते पत्तों को
एक बड़ी जाली से उठाकर
सफ़ाई करने आता कर्मचारी
कब यह जान पाएगा
कि मैं हूँ यहाँ
इस शहर के शिकंजे में
सार्वजनिक स्विमिंग पूल की
नीली टाइल्स के नीचे पड़ी हुई।

प्रथम भाषा

मैं जो बोलती हूँ
वह नहीं है मेरी भाषा
क्योंकि वह हो सकती थी किसी और की
जैसे कि कोई और बोल रहा है मेरी भाषा अभी
कहीं किसी दूरदराज के शहर में।

जन्म के वक़्त
मैं रोई थी किस भाषा में
अब याद नहीं
पर वही थी शायद मेरी भाषा।

प्रथम रुदन की भाषा से अलग होकर
जीती रही हूँ मैं हमेशा से
पर अब मुझे डर है
अचानक किसी सुबह उठकर
मैं बोलने लगूँगी वह अनजान भाषा
किसी ऐसे देश की
जिसकी भूमि पर
मैंने कभी नहीं रखे हैं पाँव।

मेरे घर के पालतू पक्षी को
कुछ नए शब्द सिखाते हुए
अक्सर मैं भूल जाती हूँ मेरी अपनी भाषा
और वह अब बोलने लगा है
अपने ही किसी और जन्म की भाषा।

मेरे घर में बोलता रहता है एक पक्षी
कभी किसी वन्य प्राणी की भाषा
तो कभी किसी समुद्री जीव की भाषा।

मैं सुन रही हूँ
उसका प्रथम रुदन।

सार्वजनिक स्मृति

सार्वजनिक शौचालयों का
क्या संबंध स्मृति से
लेकिन जब बढ़ती उम्र में याद आती है
बचपन के उस गाँव की
तब याद आ जाता है वह बस स्टेशन भी
जहाँ के शौचालय की दीवारों पर
लिखी हुई रहती थीं अनेकानेक गालियाँ।

उस वक़्त समझ नहीं आते थे उन शब्दों के अर्थ
और आज भी कहाँ समझ पाई उनकी व्युत्पत्ति
पर अब विस्मृति के क़रीब इस उम्र में
स्मृतिपट पर नज़र आ रहे हैं साफ़
वे हस्तलिखित अक्षर
जो किसी के भी हो सकते थे।

उन प्रवाही अक्षरों की स्याही
जिसमें मिला हुआ था बहुत कुछ—
माँ की योनि, बहन के स्तन,
पिता का शिश्न, भाई का हस्तमैथुन…

या फिर यूँ कहिए कि
उसमें मिला हुआ था कुछ और भी—
माँ का दूसरी शादी कर लेना
बहन का प्रेमी के साथ घर से भाग जाना
पिता का किसी नाबालिग़ पर ज़बरदस्ती करना
भाई का अपनी प्रेमिका को गर्भवती बनाकर छोड़ देना…

भाषा की हिंसा
और शरीर की हिंसा के दरमियान
कहीं खो गए जो अर्थ
वे अब लावारिस बच्चों की तरह
घूमते नज़र आते हैं दिन-रात
अख़बारों की ख़बरों में
राजनेताओें के वचनों में
साहित्यिक व्यंजनाओं में
फ़िल्मों में दो प्रेमियों के वादों में।

भाषा की कच्ची दीवार पर
खड़ी हुई है मेरी स्मृति
जो कभी भी ढह जा सकती है।

सचमुच भाषा से अधिक हिंसक
और कुछ नहीं है स्मृति के लिए।

रंज

उस दिन तुम ढूँढ़ रहे थे मुझे
तब क्या मिली थी मैं तुम्हें?

मेरे गीलेपन में
जब भीग गए थे तुम
अपने अंत तक
तब क्या छू पाई थी मैं
तुम्हारा शुष्क एकांत?

फिर जब हमने चूम लिए थे
एक-दूसरे के अंतरंग अंग
देखे थे हमारे शरीर के तिल बहुत क़रीब से
तब क्या हम देख पाए थे
उन तिलों में जान डालती हुई रक्त-शिराएँ?

उस वक़्त कमरे में फैल गई थी एक मदहोशी
जैसे किसी सूअर को काटकर
उसके शरीर में कच्चे चावल भरके
तंदूर में एक लकड़ी पर लटकाकर
उसे धीमी आँच पर पकाया जा रहा हो।

कहते हैं जो भात सूअर के शरीर के अंदर पकता है
उसका स्वाद ही कुछ और होता है।

तुम्हें कोई रंज नहीं होना चाहिए
मुझे पराजित करने में।

मैं तो चाहती हूँ
तुम ले लो मुझसे
मेरी भाषा,
मेरी स्मृति,
मेरा शरीर।


मनीषा जोषी मूलतः गुजराती कवयित्री हैं, लेकिन वह अँग्रेज़ी और हिंदी में भी लिखती हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी गुजराती से अनूदित और सीधे हिंदी में लिखी हुईं—दोनों ही तरह की कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ उन्होंने फिर से हिंदी में संभव की हैं और क्या ख़ूब संभव की हैं। उनसे manisha71@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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