कविताएँ ::
मानसी मिश्र
जहाँ
कहानियों में राजकुमारियाँ और अच्छी स्त्रियाँ
सोते हुए बहुत ख़ूबसूरत लगती हैं
भोली और मासूम लगती हैं
पर मेरी गर्लफ़्रेंड बिल्कुल ऐसी नहीं लगती
वैसे तो मैं उसे सोते हुए बहुत कम देख पाती हूँ
लेकिन वह सोते हुए बिल्कुल सुंदर नहीं लगती
थकी हुई लगती है
जैसे रात भर चलने के बाद चाँद
कुम्हलाकर सो रहा हो
वह डरी हुई लगती है
डरावनी भी लगती है
जैसे मेरे साँस लेने और सोचने के शोर से
डिस्टर्ब होकर उठ जाएगी
और फिर चिंता करने लगेगी
क्या इसके सपने भी चिंताओं से भरे हुए हैं
पूछने पर सिर्फ़ मुस्कुराती है
शायद मेरे अनाड़ीपन पर
चिंताग्रस्त इस पीली-पीली लड़की को
इस रंग-अर्थहीन ठूँठ जैसे शहर से दूर भेज देना चाहिए
जहाँ काम के घंटे अब भी निर्धारित नहीं हुए हैं।
सुखार्थ
सुख की परिभाषाओं में सबसे सरल
उसका मेरा हाथ पकड़ लेना है
सबसे प्राकृतिक
मेरी उँगलियों का आदतन
उसकी गर्माहट की ओर मुड़ जाना है
सरलतम सुख की खोज ही सबसे दुःसाध्य है।
घर
बिखरी हुई हूँ मैं घर के कई हिस्सों में
इसलिए जब घर से निकलने का समय क़रीब आता है
तो समझ नहीं पाती कि सूटकेस में
घर का कौन-सा हिस्सा रखूँ
कब तक घर सूटकेस में मेरे साथ चलेगा
कब मैं इसकी चख-चख से परेशान होकर
निकालकर बाहर रख दूँगी
घर मेरे सूटकेस में बंद नहीं होता
और मैं रेलगाड़ी में बंद चली जाती हूँ काम पर।
देखना
आज़ाद हो तुम
मेरी जान
उड़ो
वहाँ वहाँ
जहाँ जहाँ
मैं तुम्हें उड़ता देखना चाहता हूँ
मैंने जो मुट्ठी भर पंख दिए हैं न
तुम्हें
उन्हें लेकर उड़ो।
केदारनाथ सिंह के लिए
प्रिय कवि,
जब तुम बता रहे थे
हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया के बारे में
तब मुझे याद आया
‘जाना’ से ज़्यादा ख़ौफ़नाक है वह स्थिति
जिससे जाना पड़ता है
जैसे प्रेमिकाओं को जाना पड़ा ससुराल
इंसानों को जाना पड़ा शहर
रोटी की खोज में
बदलना पड़ा मज़दूरों में
फिर वापस गाँव
मनुष्यता के अवशेषों पर चलते हुए
देखो न कवि
उन अवशेषों पर ही पड़ी हैं वे रोटियाँ
जिसकी खोज में शहर गए थे
रोज़ स्थितियाँ बनती हैं
जो बेसब्र हो जाते हैं
वो चले जाते हैं
अपनी बेसब्री को बिछाकर सोते हैं
और व्यवस्था सिर को कुचलती हुई
धड़धडा़ती निकल जाती है
समाचार का एक छोटा कोना
टीवी की पतली पट्टी पर चलती एक ख़बर
मन के पटल पर पल भर भी नहीं ठहरती
फिर भी कवि
लोग जाते हैं
और कोई भी यह नहीं पूछता क्यों जाना पड़ा?
जैसे
गर्मी हर जगह एक जैसी ही होती है
झुलसाने वाली—गर्म
ठंड हर जगह एक-सी ही पड़ती है
जमी हुई—निर्मम
पर आषाढ़ हर जगह एक-सा नहीं आता
जैसे दिल्ली में आषाढ़ नहीं आता
न पहले दिन
न किसी दिन
इस क़स्बेनुमा शहर में
बहुत ज़ोर से आषाढ़ आता है
कुटज के फूल लेकर
मेघों से आग्रह करना पड़ता है
कि हटो, अब गेहूँ को धूप दिखानी है
शहर ओढ़कर रखे इस जगह
पर अब भी बहुत कुछ कच्चा बच गया है
जहाँ आषाढ़ आ जाता है।
बारिश का अर्थ
धारासार टपकता पानी
फ़र्श पर छोटे-छोटे गड्ढे
टुटही बटलोई में इकट्ठा होता पानी
आधी डूबी चारपाई
गेंहुआ नाग
अंकुरता गेहूँ
तपती हुई देह ओढ़े
गोद में सिमटता मेरा बच्चा
कौन-सा कवि है तेरी किताब में नोनी,
जिसे यह मौसम सुंदर लगता है।
मानसी मिश्र की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़) की निवासी हैं। इस समय जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (दिल्ली) मे अध्ययनरत हैं। उनसे manasi.mishra2000@gmail.com पर बात की जा सकती है।
खूबसूरत कविताएं🥰
यह तो आषाढ़ से प्रेम करने वाली कवि है। अच्छी ही होगी। शुभकामनाएं।
सुंदर, सरल, सटीक। कवि को शुभकामनाएं।
बहुत सुंदर कविताएँ
Khoobsurat kavitaayen 🌻