कविताएँ ::
मनीषा जोषी

शाहबेरी, सेक्टर नंबर चार
रोज़ सुबह पाँच बजे उठती है
दिल्ली में ग्रेटर नोएडा के
शाहबेरी, सेक्टर नंबर चार में रहती
वह एक शादीशुदा स्त्री।
पहले पति के लिए सुबह का नाश्ता बनाती है
फिर पति के लिए लंच-बॉक्स तैयार करती है
फिर बच्चों के लिए अलग नाश्ता
और फिर बच्चों के लिए अलग लंच-बॉक्स।
बच्चे चले जाते हैं
स्कूल की बस में
और पति जाते हैं दफ़्तर
डीटीसी की बस में।
उन सबके जाने के बाद
घर में सबसे पहले आता है दूधवाला
वह दूध का पैकेट रखकर जाता है
फिर सब्ज़ीवाला सब्ज़ियों की टोकरी
और फिर धोबी आता है
इस्त्री के कपड़ों की गठरी लेकर।
कामवाली बाई भी आती है
थोड़ी इधर-उधर की बातें
और वह भी चली जाती है—
झाड़ू-पोंछा करके।
बस अब शुरु होता है एक दिन
शाहबेरी की इस शादीशुदा स्त्री का।
नहीं, सत्यजीत रे की चारुलत्ता नहीं है वह
जो अब हाथ में दूरबीन पकड़कर
आँखों पर रंगीन चश्मे लगाकर
खिड़की पर बैठी रहेगी।
यह स्त्री तो बख़ूबी जानती है
कि अगर वह शाहबेरी में नहीं होती
तो और कहाँ हो सकती थी
कि अगर वह शादीशुदा नहीं होती
तो और क्या हो सकती थी
कि यह एक ख़ाली दिन अगर न होता
तो और कितने सारे दिन
और कितने सारे शहरों में
कितने और ख़ाली हो सकते थे।
और यूँ शाहबेरी में संतुष्ट है
एक और शादीशुदा स्त्री।
पत्नी
पहले तो आ जाया करता था
हफ़्ते में एक दो बार
पर आया नहीं है
अभी कई दिनों से।
कहता था—
खाना बहुत अच्छा बनाती है
उसकी बीवी
पर बहुत शर्मीली है बिस्तर में।
मुझे वह चूम लेता था ऐसे
कि देखी ही न हो
कोई औरत बरसों से।
गालियाँ भी देता और कभी तो
रो पड़ता था सेक्स के बाद।
करते हैं कई ग्राहक ऐसा।
मैं परिचित होने लगी थी
उसके मुँह से हरदम आती
लहसुन की गंध से भी
पर क्यूँ नहीं दिखा अब वह महीने भर से?
बीमार होगा?
नौकरी छूट गई होगी?
या फिर देहांत?
कल रात एक अजीब सपना देखा मैंने—
एक औरत अपने घर की परशाल में बैठी हुई थी
उसके सामने पड़ा हुआ था ख़ूब सारा लहसुन
और वह मंद-मंद मुस्काते हुए
छील रही थी लहसुन के सफ़ेद छिलके।
क्या वही थी मेरे ग्राहक की पत्नी?
लहसुन की कली जैसी
घबराई-सी—बंद और नाज़ुक
हल्के सफ़ेद-पीले रंग की।
सपने में भी घेर रही थी मुझे
उसकी रसोई से आ रही
लहसुन की अत्यधिक गंध।
लहसुन के छिलके
उसके आस-पास उड़ने लगे थे
और वह उन छिलकों को पकड़कर
एक पानी की कटोरी में डाले जा रही थी।
पानी में डूब चुके लहसुन के छिलकों जैसा
मेरा यह बेबस स्वप्न बस इतना ही था।
मैंने देखी—एक पत्नी—स्वप्न में
जो मैं कभी स्वयं नहीं बनी।
डगाल
मेरी माँ के हाथों में
कुछ ऐसा जादू है
कि उसकी लगाई हुई डगाल
उग आती है किसी भी नई मिट्टी में।
हमारे पड़ोस में रहती सुनंदा जी
आई थीं एक बार माँ को बुलाने
अपने घर गुलाब का पौधा लगाने।
गुलाब तो ख़ैर खिल ही आया
पर हुआ यह कि
सुनंदा जी ख़ुद भी गर्भ से हो गईं।
हालाँकि उनको मासिक-स्राव आना बंद हुए
क़रीब एक साल होने को था
लेकिन शरीर में था अभी शायद
बहुत-सा रक्त बाक़ी।
स्त्री,
नई हो ज़मीन या कम हो पानी
बना ही लेती है अन्न पोषक हमेशा
पूरे परिवार के लिए।
स्त्री,
खिल उठती है
किसी डगाल की तरह
जब भूल जाना चाहिए था उसे
स्त्री होना।
शिकायत
कैलिफ़ोर्निया की बंगालनों को
शिकायत रहती है हमेशा
नहीं मिलती अच्छी
यहाँ मछलियाँ
बंगाल जैसी।
बड़े-बड़े सुपर मार्केट में
मिलती हैं यहाँ मछलियाँ
बड़े-बड़े समंदरों की
पर इनमें कहाँ वह स्वाद
जो हुआ करता था
उस हिल्सा में
जो गाँव के पास से गुज़रती
उस छोटी-सी नदी में
आ जाया करती थीं हर साल
ख़ूब सारे अंडे देने।
इन बंगालनों के बैकयार्ड में
बने हुए हैं बड़े स्विमिंग पूल
पर काश होता यहाँ
मछली का एक छोटा तालाब भी
जो था कभी गाँव में
घर के ठीक पीछे ही।
रसोई है यहाँ बड़ी पर नहीं है यहाँ
साड़ी की कोर से बँधा हुआ
चाबियों का वह गुच्छा
जिसकी आवाज़ चलते-उठते
खनक उठे पूरे घर में।
नहीं हैं यहाँ वे सुबहें
जब सब्ज़ीवाला आए
लेकर माथे पर कमल ककड़ी का ढे़र
जब सुखाई जा सके हिल्सा छत पर
कमल की जड़ों के साथ।
कभी नहीं आतीं यहाँ वे दुपहरें
जब इनकी चौकी पर आए
कोई भूला-भटका साधु
जो इन्हें माँ कहकर पुकारे।
रात
कभी-कभी रात की निरुत्तर शांति में
मैं सुनती हूँ एक दबी-सी आवाज़।
देखती हूँ तो सफ़ेद साड़ी पहनी हुई
कोई विधवा कुछ कह रही होती है
किसी कुमारिका के कानों में मुँह डालकर।
फिर वे दोनों चली जाती हैं
और मैं देखती हूँ उन्हें
मेरी आँखों से ओझल होते हुए।
मैंने देखी है अमावस्या की रात भी
ठीक इसी तरह
किसी कुएँ में ओझल होती हुई।
मैंने देखे हैं कुछ शब्द भी
ठीक इसी तरह
चाँदनी रातों में डूबते हुए।
मैं अक्सर देखती हूँ
समुद्री पक्षियों के झुंड
अनेकानेक रातों को
अपनी चोंच में थामे उड़ते हुए।
रात में जन्म लेती हुई एक भाषा
भोर होते ही गिर जाती है समंदर में।
सुबह में सिर्फ़ सफ़ेद पक्षी
वापस लौटते हैं
अपना ख़ाली मुँह लेकर।
चुंगी
शिव के पास अगर तीसरी आँख थी
तो देवी मीनाक्षी के पास था तीसरा स्तन।
नान्गेली* के पास कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक साधारण शरीर के सिवाय
लेकिन केले के पत्तों पर
अपने स्तन काटकर रख दिए उसने
पर वक्ष ढकने का कर नहीं दिया।
अपने वक्ष-अंतराल को शरीर से नष्ट करना
किसी देवी के बस की बात नहीं
यह तो सिर्फ़ वह अस्पृश्या ही कर सकती थी।
स्त्री होने और देवी होने के दरमियान
कहीं जी रही है वह आज भी
एक कुमारिका के रूप में
केले के उपवनों में खेलती हुई।
वन के गहन
हरे अंधकार तले
उसके स्तनों में जमा हो रहा है आज भी
एक कन्या होने का कर।
आज भी घसीट कर ले जा रहे हैं
उसे जंगलों में
और उसके पीछे चला आ रहा है
पुरुषों का एक गुट नगाड़े बजाता हुआ।
केले के पत्तों में लिपटी हुई
एक दलित कन्या
आज भी चुका रही है क़र्ज़
हम सब मादाओं के स्तनों की
युग्मित संरचना के लिए।
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* उन्नीसवी सदी में दक्षिण भारत में दलित स्त्रियों को अपने वक्षस्थल ढकने की अनुमति नहीं थी। इसके लिए उन्हें कर भुगतान करना पड़ता था। वहाँ के ब्राह्मण राजा ने जो दलित स्त्रियाँ वक्ष ढकना चाहती थीं उनसे ‘वक्षस्थल शुल्क’ लेना शुरू किया था। स्तन जितने बड़े, चुंगी उतनी ज़्यादा ली जाती थी। तब चेरथला में रहती नान्गेली नाम की एक दलित स्त्री ने यह कर भरने का विरोध करते हुए, पैसे वसूलने आए अधिकारी को अपने दोनों स्तन काटकर दे दिए थे।
यहाँ दूसरा एक संदर्भ तमिलनाडु के देवी मीनाक्षी के मंदिर से है। राजा मलयाध्वज की पुत्री मीनाक्षी मीन के समान आँखों वाली सुंदर थी, लेकिन वह तीन स्तनों के साथ जन्मी थी। तब राजा-रानी का दुख कम करने के लिए भगवान शिव ने उन्हें कहा था कि जब उनकी पुत्री के लिए योग्य वर मिल जाएगा, तब उसका तीसरा स्तन भी ग़ायब हो जाएगा।
मनीषा जोषी मूलतः गुजराती कवि हैं, लेकिन वह अँग्रेज़ी और हिंदी में भी लिखती हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी हिंदी कविताओं के प्रकाशन का यह चौथा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : मैं रहती हूँ चीज़ों के कमरे में | जन्म के वक़्त मैं रोई थी किस भाषा में अब याद नहीं, पर वही थी शायद मेरी भाषा | मैं खोजती फिरती हूँ भाषाओं को