कविताएँ ::
रेणु कश्यप

रेणु कश्यप

अपनी माँ की नींद के बदले

मैं फ़ोन लगाती हूँ माँ को
वह सोने जा रही हैं शायद,
रोज़ की ही तरह थकावट है आवाज़ में
मगर मैं पूछने लगती हूँ उनसे सवाल
कि मेरे नाम क्या-क्या थे बचपन में?—
मैंने किस-किसको किया था कितना परेशान,
कि कब लगी थी सिर पर चोट
और कितने दिन नहीं गई थी तब स्कूल

बातें जो मैं सुन चुकी हूँ लाखों बार
जो रट चुकी हैं मुझे शब्द-दर-शब्द
कि मैं जानती हूँ माँ की आवाज़ के मोड़
पहचानती हूँ कि कैसे मुस्कुरा रही हैं वह
कौन-से क़िस्से पे
मैं जानती हूँ
उन्हें अब मेरी याद आने लगी है बेहद
मगर मैं…
होती जाती हूँ क्रूर और स्वार्थी
और सुनती जाती हूँ बेसबब…

एक घंटा बात करने के बाद
मैं कहती हूँ, ‘आप सो जाओ माँ,
कि थकी हो दिन भर की’
वह फ़ोन रख देती हैं
और लेटे-लेटे फिर सोचती हैं
अपनी बेवक़ूफ़ बेटी के बारे में,
शायद घंटों।

उन्हें कब जाकर नींद आती है उसके बाद,
कल की बात हमारी इसी बात से शुरू होगी।

और यूँ हर दिन
हज़ारों सालों से लगातार
मैंने बचाया है ख़ुद को पागल होने से
अपनी माँ की नींद के बदले।

दिसंबर

जीभ पर ख़ून का स्वाद
आत्मा पर तुम्हारा
दिल डूबता है
छिपता है बर्फ़ में कहीं
चल-चलकर थकती नहीं मैं
ख़त्म नहीं होता दिसंबर, महीनों

उँगली पर दिन गिनती हूँ
जब आँख गिनती है नमक
हथेली पर ख़ुशबू
ख़ुशबू जो तुम
प्यार था—कहने में अटकी साँसें
साँस की अटकन, तुम

ख़ून का घूँट भरो
याद न करने में कैसी हिम्मत
गाली देने में सारी
जो कहा जैसे,
रहा साथ मेरे
एक बस तुम नहीं
घटती गईं साँसें
दिल सूखा होकर भी भरा नहीं

होंठों ने छुई थी आत्मा
धोखा भी दिया होंठों ने ही

ख़ुद से

गिरो कितनी भी बार मगर
उठो तो यूँ उठो
कि पंख पहले से लंबे हों
और उड़ान न सिर्फ़ ऊँची पर गहरी भी

हारना और डरना रहे
बस हिस्सा भर
एक लंबी उम्र का
और उम्मीद
और भरपूर मोहब्बत
हों परिभाषाएँ

जागो तो सुबह शांत हो
ठीक जैसे मन भी हो
कि ख़ुद को देखो तो चूमो माथा
गले लगो ख़ुद से चिपककर
कि कब से
कितने वक़्त से,
सदियों से बल्कि
उधार चल रहा है अपने आपका

प्यार का जब हो ज़िक्र
तो सबसे पहला नाम
ख़ुद का याद आए
दुख का हो तो जैसे
किसी भूली भटकी चीज़ का
माँ का हो ज़िक्र तो बस
चेहरे का चूमना याद आए
बेतहाशा, एक साँस में बीसों बार

ग़लतियों और माफ़ियों को भूल जाएँ
ठीक वैसे ही
जैसे लिखकर मिटाया हो
कोई शब्द या लकीर।

नमक क्यारियाँ

नमक के इस्तेमाल
अभी और समझ आने थे
जीने के बीच साँसों में उधारी आनी थी
एक बच्चा, जो सींचता था
क्यारियाँ दिन-रात
उसे ख़ुद को बड़ा करना था
और होना था बेचैन
फिर आना था वह लम्हा
पहली बार गाली देना मुँह से
आप ख़ुद को देते हो…
बड़ा होना जैसे होना शहर

आज़ादी और भीड़ को
साथ-साथ चुनते हुए
नकारते हुए कभी,
कभी बस निकलते हुए आगे
नमक ख़रीदकर लौटते हुए
याद आना एक भूला हुआ बचपन,
माँ की उँगली पकड़कर चलना,
कभी बस दुपट्टा,
दूर के किसी चाचा की हँसी,
पापा की बेवजह की डाँट,
और उनको न समझ पाने का दुःख,
गाँव की महफ़िलें,
और माँ का अकेलापन,
जिसे हम सब मिलकर भी नहीं तोड़ पाए
फिर बड़े होकर देखना
ख़ुद को उन पुराने रास्तों में
अपने अकेलेपन के साथ…

वक़्त दोहराए ख़ुद को
तो कुछ ऐसा हो
साँस आती रहे आसानी से
कोई पलटकर न देखे
न डराए हमें
काले रंग या किसी अलग से दिखने वाले को
नकारने से पहले करें सवाल हम
करें सवाल कई, बार-बार
पूजा करवाएँ घर में कितनी भी बार
मगर केसर, अगरबत्ती, धूप, चरणामृत की ख़ुशबू के बीच
आप हर बार याद करें उस बच्चे को ज़रूर
जिसने क्यारियाँ सींचीं
नमक ख़रीदा
और अपने ही उगाए
बैंगनों को बेचकर या पकाकर
भरा आपका पेट

बच्चे, जो बचपन में बड़े थे
जवानी में हुए बेचैन,
और बुढ़ापे में उन्होंने जाना
कि उनका होना
कोई फ़र्क़ नहीं कर पाया संसार में

उस बच्चे के बुढ़ापे के नाम
मेरी एक चिट्ठी
और मुट्ठी भर उम्मीद
कि बुढ़ापे में ही सही
बस एक बार वह जी पाए अपना बचपन!

चोट

उसे चोट लगी थी
और वह यह बात
मानने को तैयार नहीं था

इस न मानने के चक्कर में
उसने कितने लोगों को चोट दी
इसकी गिनती लगभग असंभव है

रिसता था ज़ख़्म और फैलता था
मगर ज़िद,
ये प्यारी ज़िद
ग़ुरूर, ये कम्बख़्त ग़ुरूर

दुनिया सफ़ेद और काले में
नहीं गढ़ी गई थी
जितने रंग थे
उतने दर्द भी ज़रूर

किस दर्द का क्या इलाज है
हम अक्सर नहीं समझ पाते थे
और ग़लत दवाई लेते-लेते
और बीमार होते जाते थे

तुमने सुना नहीं
मैंने कहा नहीं
लेकिन वह चोट
उसे छुपाओ मत,
न ढको उसे
आने दोगे क़रीब थोड़ा तो
मरहम भी लगा दूँ मैं
गले भी लगा लूँ मैं
मगर ये पागलपन
ऐसे नहीं जिया जाएगा ज़्यादा दोस्त

प्यार से कोई बात कही जाए
तो समझ जाते हैं लोग
ऐसा कहा जाता है

मेरी आख़िरी कोशिश
उस राह में
यह कविता है।

वहाँ नहीं मिलूँगी मैं

मैंने लिखा एक-एक करके
हर अहसास को काग़ज़ पर
और सँभालकर रखा उसे फिर
दरअस्ल, छुपाकर

मैंने खटखटाया एक दरवाज़ा
और भाग गई फिर
डर जितने डर
उतने निडर नहीं हम

छुपते छुपाते जब आख़िर निकलो जंगल से बाहर
जंगल रह जाता है साथ ही

आसमान से झूठ बोलो या सच
समझ जाना ही है उसे
कि दोस्त होते ही हैं ऐसे।

मेरे डरों से पार
एक दुनिया है
तुम वहीं ढूँढ़ रहे हो मुझे
वहाँ नहीं मिलूँगी मैं।

फ़िलहाल

एक

ज़ख़्म जिनकी मरम्मत करने में
मैं लगी थी
नाज़ुक थे इतने
कि उन्हें बस सहलाया जाना चाहिए था

मैंने रखी कुल्हाड़ी
एक पेड़ की जड़ में छुपाकर
कि पेड़ के पास हो
कोई हथियार अपनी रक्षा के लिए

मैं बेवक़ूफ़ ही नहीं
मासूम भी थी
और इसीलिए
मुझे माफ़ करते गए थे सब

दो

कोई दवा अब ऐसी नहीं बची थी
जिससे भर सकता था कोई ज़ख़्म पूरा
कोई वाक्य ऐसा नहीं
जिससे लिखी जा सकती थी कोई कविता
कोई इंसान ऐसा नहीं
जिसके सामने मैं जाती
और बस रो पाती
मैंने एक-एक करके
सबको रख दिया था एक दूरी पर

रफ़ू कर-करके हम पहन रहे थे रिश्तों को
और नहीं मालूम हम में से किसी को भी
कि जीवन बढ़ रहा था या घट रहा था
वक़्त बीत रहा था
और इतना काफ़ी था फ़िलहाल


रेणु कश्यप की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह अँग्रेज़ी साहित्य में परास्नातक हैं। उन्होंने कुछ साल रेडियो और थिएटर में काम किया है और कुछ साल कथक भी। फ़िलहाल वह स्क्रीन राइटिंग की तरफ़ अग्रसर हैं। वह हिंदी से अँग्रेज़ी और अँग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद भी करती हैं, और कभी-कभार वॉइस ओवर्स भी। वह हिमाचल में पैदा हुईं और मुंबई में रह रही हैं। उनसे writetorenukashyap@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. पंकज कामिल दिसम्बर 28, 2023 at 9:28 पूर्वाह्न

    बहुत सुंदर और मीठी कविताएं। मुबारक । आभार

    Reply

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