कविताएँ ::
रूपायण घोष
एक रास्ता बहुत सारे रास्तों को देखता है
एक रास्ता
बहुत सारे रास्तों को देखता है
जैसे एक अतीत देखता है
बहुत सारे अतीत को
जैसे एक चिड़िया
बहुत सारी चिड़ियाओं के साथ उड़ती है
उड़ने और देखने में फ़र्क़ बस इतना है—
बहुत सारी चिड़ियाएँ
बहुत सारे अतीत से नहीं मिलतीं
फिर भी एक परिंदा
बहुत सारे परिंदों से मिलता है
एक बूँद पानी मिल जाता है
अनेक बूँदों से
मैं खड़ा रहता हूँ
बहुत सारे रास्तों के बीच
एक समय
बहुत सारे समयों को देखता है
एक मनुष्य देखता है
बहुत सारे मनुष्यों को
मिलता है—अतीत को झिंझोड़ता है
और चुप हो जाता है
एक मनुष्य बहुत सारे
मनुष्यों को महसूस नहीं कर पाता
पर एक अश्रु बहुत सारे
अश्रुओं को छू लेता है
जुआ
एक आदमी पहाड़ी घाटी के किनारे चल रहा है
एक आदमी किसी और आदमी का पता ढूँढ़ रहा है—
देवदार के जंगल में शाम ढल जाती है
दूर शहर के थिएटर में रोशनी और आवाज़
वहाँ लोगों की कहानियाँ इकट्ठी होती रहती हैं
वह आदमी धीरे-धीरे घाटी छोड़कर
शहर में दाख़िल हुआ
उसके कंधों पर एक कहानी-भरा बैग
सारी रात वह इंतज़ार करता है
लैंप-पोस्ट को छूकर पीली धुंध गिरती रहती है
देर रात थिएटर के दरवाज़े खुलते हैं
कहानीरहित और कहानीवाले लोग बाहर आते हैं
कहानी-भरा बैग पकड़कर वह आदमी
ख़ुद को फेंक देता है भीड़ की तरफ़
ताश के पत्तों की तरह छूता है सबको
भीड़ भी उससे जोंक की तरह लिपट जाती है
हो सकता है वह सबकी कहानी उठा ले
हो सकता है हर कोई उसकी ही कहानी उठा ले
मैं जिस घर में रहता हूँ
मैं जिस घर में रहता हूँ
वहाँ खिड़कियाँ नहीं हैं
दोनों ओर केवल दो दरवाज़े
पूर्व का दरवाज़ा
पूर्व की ओर खुलता है
पश्चिम का दरवाज़ा
पश्चिम की ओर
मैं हर दिन एक दरवाज़े से
दूसरे दरवाज़े तक घूमता हूँ
मैं रोज़ पैदल चलने की आदत में
पैदल चलता रहता हूँ
फिर एक दिन यात्रा
ख़त्म होने की कगार पर
पूर्वी दरवाज़ा अब दिखाई नहीं देता
और पश्चिम का दरवाज़ा
अँधेरे में ग़ायब हो जाता है
मैं जिस घर में रहता हूँ
उसके दरवाज़े नहीं खोले जा सकते
जीने की आदत में
बंद घर में ज़िंदा रहता हूँ
और अपनी परछाई देखने की आदत
भूल जाता हूँ।
एक पहाड़ी शाम और आग का दृश्य
मैं पहाड़ी घाटी के साथ
बहुत दूर तक चलता हूँ
यहाँ हर एक क़दम पर मकई के खेत
सड़क पर बहुत-सी फुसफुसाहटें!
शाम को एक अकेला थिएटर जगमगा उठता है
एक नाटक से दूसरे नाटक के बीच के
अंतराल में
यहाँ का कोहरा भी प्राचीन जादू सीख लेता है
एक पुराना देवदार धीरे-धीरे आकाश छू लेता है
उसकी शाखाओं में सृष्टि का आदि गीत
उस गीत के भीतर कोई अनोखी हवा तैरती है
इस पहाड़ी चाँद के नीचे नीला स्टेशन चमकता है
हमारी पुरानी कहानी मिल जाती है—
परीकथाओं के साथ!
जीवन का प्रलाप
जीवित रहने की उत्कंठा से शुरू होता है
हम इस पर हँसते हैं
मरी हुई मछली जैसी आँखें
दूर की खिड़की से हमें घूरती हैं
शाम के नरम बादलों के नीचे
प्राचीन आग जलती है
और फिर मछलियों और मुर्ग़ियों की चीख़
सुनाई देती है
मेरी ख़ाली जगह पर
मेरी ख़ाली जगह पर
एक आश्चर्य पक्षी आकर बैठ जाता है
उसके पंखों पर बहुत सी जगहों की ध्वनि
सुनाई देती है
मैं दूर खड़ा रहता हूँ
अपने न होने की जगह पर
होने की प्रतीक्षा करता हूँ—
पहुँचने की कोशिश में
दौड़ता रहता हूँ
मेरे न होने की जगह पर
होने के लिए
दौड़ने की कोशिश में
कई पक्षी आते हैं
बैठते हैं फिर उड़ जाते हैं
उनके पंखों में कई ख़ाली जगहों की ध्वनि
मुक्तियों में सुनाई देती है
और अपने ख़ाली जगह पर होने की चाहत में
मैं मुक्तियों को आकांक्षाओं में दुहराता हूँ
यदि मैं दूसरा व्यक्ति होता
यदि मैं दूसरा व्यक्ति होता
तो आस-पास की सभी चीज़ों को
दूसरी नज़र से देखता
क्योंकि पहला व्यक्ति उन्हीं चीज़ों को
पहली नज़र से देख चुका होगा
पहले व्यक्ति ने पहली नज़र से
देखा होगा कि सोच में
अपनी दूसरी दृष्टि को खोया हुआ पाता हूँ
यदि मैं दूसरा व्यक्ति होता तो मेरे पास
शत्रु और मित्र का चुनाव करने का
जन्मसिद्ध अवसर रहा होता
इस अवसर को अपनी
दूसरी जगह पर रखकर
मैं उसे पहले व्यक्ति के
पहले स्पर्श की तरह छूता
जो निष्कासित आदमी गाना गाते हुए चला गया
जो निष्कासित आदमी
गाना गाते हुए चला गया
उसके पास कोई छतरी नहीं है
बारिश के जंगलों में उसे भीगना होगा
इस सोच को साथ लिए निकल पड़ता हूँ
बहुत दूर चले आने के बाद
मालूम पड़ता है कि जंगल अकेला है
पक्षियों की आवाज़ में
आज उतनी करुणा नहीं है कि
वह आदमी अपना गाना भूल जाए
यहाँ जब सारी कहानियाँ बुन जाती हैं
कहानी और दृष्टियों के आश्चर्य साँप
आदिम लताओं में छुप जाते हैं
साँप और वह आदमी
पक्षियों की करुणा को
ख़ामोशी से सुनते हैं
और मैं छतरी पकड़कर
लौटने की कोशिश में
गाना गा लेता हूँ
रास्ते आश्चर्यचकित होकर देखते हैं
वह निष्कासित आदमी
जो गाना गाते हुए चला गया
वह गाना लौट रहा है—
नई फुफकारों के साथ!
स्वप्न और चारण-पर्व
कोई वाक्य नहीं
कोई शब्द नहीं
एक निर्लिप्त चेतना में
अनेक छवियों की हलचल
जमा हो रही है
और मैं जंगल के पार
हेमंत के सूर्यास्त के नाम पर
सन्नाटों के सामने बैठ जाता हूँ
सुनो—पंछियों ने गाना बंद कर दिया है
सभी जीवित प्राणियों के भीतर
छाया हुआ एक प्राचीन मौन
जैसे असंख्य वृक्षों के नीचे चुप रहता तालाब
मेरी छवि पर दर्द का गहरा रंग घुल रहा है
जहाँ तक इस घाटी से होकर
नदी समुंदर से मिल सकती है
मैं वहाँ तक नहीं चलूँगा
पानी अपने तरंग-पथ पर उबल रहा है
और मैं देख रहा हूँ
शरीर सागर और सभी क्षण
मछलियों में बदल रहे हैं
रूपायण घोष (जन्म : 1995) बांग्ला की नई पीढ़ी के कवि-अनुवादक हैं। हिंदी में उनकी कविताएँ प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह विश्व-भारती विश्वविद्यालय (शांतिनिकेतन) से ‘प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व’ में स्नातकोत्तर हैं। उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकों में कविता की दो पुस्तकें, निबंधों की एक और अनुवाद की एक पुस्तक शामिल है। उनसे rupayan1995hist@gmail.com पर बात की जा सकती है।