कविताएँ ::
रूपेश चौरसिया
चुप्पी की भाषा
मेरी चुप है और तन्हाई है
दोनों मिलकर रचेंगे एक नई भाषा
भाषा—
जो पहनेगी दुनिया के उसूल
और मुर्दा मर्यादाओं पर चलेगी
खोखले शब्द लेपकर सजेगी
सारे आईने तोड़ देगी
दुःख के सिरहाने बैठकर
पीएगी एक दिन प्यार
और मर जाएगी।
हम ढूँढ़ते रह जाएँगे—
गूँगेपन का व्याकरण।
मछलियों की मौत
हम हुक्मरानों की आँखों से देखते हैं सपने
और सपनों में प्यासी मछलियाँ।
हमने देखा—
कैसे एक बगुला पी गया
मछलियों के हिस्से का पानी
यह कहकर कि मैं मछलियाँ नहीं खाता।
यह कैसी विडंबना है
कि हमारी गर्दन पर रखे पाँव पर
हम फूल चढ़ाते हैं
जबकि हमें उनके पाँव खींचकर
चित कर देना चाहिए था
और पूछना था कि
क्या तुमने देखा है
प्यासी मछलियों को मरते हुए?
मौत कई परतों में आई—
रोटी की शक्ल में।
दृश्य का जीवन
मैं पार्श्व संगीत की नदी हूँ
जिसकी गति
दृश्य और दर्शक के बीच
धीमी हो गई है।
दर्शक ने मुझमें बैठकर
अपनी आँखें दृश्य पर रख दी हैं।
मैं दर्शक का अपमान झेल रहा हूँ।
जबकि दृश्य का जीवन मुझसे है
वह मर जाएगा पर्दा गिरते ही।
वह डूब जाएगा मुझमें
और अपनी आँखें रख देगा—
मेरी तरंगों पर।
मैं बहूँगा उसकी चेतना में
समय के एक लूप में।
मेरा विस्तार अनंत तक है।
जन्म के अभिशाप पर
मेरे साथ जवान हुआ है
मेरे जन्म लेने का अभिशाप
मेरे साथ ही उसने पिया है
बकरी का दूध और चखा है
हर मौसम का नमक।
मेरे साथ उसने देखी है
हाड़-माँस की कठपुतलियाँ
और जेब्रा क्रॉसिंग…
मेरे साथ ही उसने जिया है
बिना पानी-रसद के सुनसान टापू पर
आदम-ख़ोर भगवान के साथ जीवन
सौदागर बाप की काली उम्मीदों को भी
देखा है उसने पंखे से लटकते हुए
उसने देखी है मेरी मौत के बाद मेरी मौत
हमारे रिश्तेदारों के अल्बम में।
मृत्यु के बाद आऊँगा मैं भूत बनकर
और सारे शिक्षकों के चेहरे पर
किताबों की कालिख पोत जाऊँगा।
मेरे जन्म के अभिशाप पर
मौत का वरदान है।
एक रोज़
मैं चाँद को ताक कर चला करती थी
और सब दफ़ा गड्ढे में गिर पड़ती थी
निकाह के रोज ज़ाहिर हुआ कि
चाँद का कितना भी पीछा करो
वो तुमसे आगे ही रहेगा
मैं निकाह के दिन उठे
जनाज़े की रूह हूँ
जिसने तीन क़िस्मों के नमक चाटे हैं—
सामाजिक और रिश्तेदाराना और सहनशील
मेरे नाम पर मारी गई है
ठहाके की चोट
अपने दोस्तों के साथ
मुझे उछाला गया है
वहशी हैवानों के बीच
एक जेलर ने मुझे सब कुछ दिया—
दो ज़ून की रोटी
नक़ाब
नरम बिस्तर…
मैंने कहा—
आधी रोटी हमारी है
उसने मुझे सोने की ज़ंजीर में बाँध दिया
मैंने कहा—
आधा आसमाँ
आधा चाँद
आधी धरती…
उसने मुझे पायल पहना दी
मेरे होंठ सिल दिए गए
रिवायतों के धागे से
मैं कहती हूँ—
मैं चाँद से धक्का दूँगी उसे
मैं हव्वा की बेटी हूँ
फ़लक पर जा बैठूँगी एक रोज़।
मनुष्यता
हमारी रीढ़ मुड़ चुकी है
मैं के बोझ से
हम खड़े होने की कोशिश में
औंधे मुँह गिर जाएँगे
खड़े होने की जगह पर
खड़ा होना ही मनुष्य होना है
हमने मनुष्यता की परिभाषा चबाई है
सबकी अपनी-अपनी मनुष्यता है
और अपना-अपना स्वाद है
जिसने भी मुट्ठी बाँधकर
हाथ हवा में लहराया
उस पर हज़ार रंगों की
मनुष्यताएँ थूकी गईं
कोई तो है जो
सभी रंगों को मिलाकर इंद्रधनुष बनाएगा
यह हमारे मरने की रेखा है
और हमारे उठ खड़े होने की जिद्द-ओ-जहद।
रूपेश चौरसिया [जन्म : 2002] की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह प्राथमिक अवसर है। वह खगड़िया [बिहार] में रहते हैं और ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय [दरभंगा] से बीएससी की पढ़ाई कर रहे हैं। उनसे chaurasierupesh123@gmail.com पर संवाद संभव है।