कविताएँ ::
सपना भट्ट
एक
भाषा नहीं मिलती
कि ठीक-ठीक कह सकूँ
कैसी है उसकी देह-गंध!
कैसा है मेरी ग्रीवा को सहलाता उसका स्पर्श!
कैसा मृदु हास है,
कैसा है विह्वल स्वर!
इन दिनों मेरी थकी देह को सुख है
अभी मन में कोई क्लांति नहीं
सूर्य न होगा आकाश में
तो भी पहाड़ी मैना
किसी उजली धुन पर गाएगी
बांज-बुरांस के पत्तों का कोई हरा राग
सोने के पानी चढ़ी
इसी पीली धूप में
घेरे रहेगा अभी देह को प्रमाद,
अभी काया एक सलज्ज सुख की जगह बनाएगी
असोज के इसी घाम में चमकेगा
लाज के झिलमिल जल का दर्पण,
इसी निहोनी रितु में फूलेगा मन का वसंत
धमनियों में उजले नीले फूल खिलेंगे
अभी दूर है शिशिर
काँपते ठिठुरते गात और
पिराती अस्थियों की चिंता नहीं अभी मुझे
माघ-पूस की हिम से ढकी
इसी ऋतु में गलेगी इच्छा
उसे अंक में भर लेने की,
प्रतीक्षा के कठिन अभिप्रायों के अर्थ खुलेंगे अभी
तुम हितैषी हो मेरे
तो चैत में आकर पूछना
कि कितने दिन हरी रही देह!
सुख कितने दिनों का साथी रहा!
दो
कामनाओं के संपृक्त सहचर
नहीं जानते लाज का भय
मृत्यु का हस्तक्षेप भी उन्हें डराता नहीं
याद है न!
आकाश में असंख्य तारों की अमूर्त छाया में
कैसे खिल गई थी अनावृत गंदुमी काया!
अर्धरात्रि के चंद्रमा की द्युति में
कपास के एक श्वेत पुष्प भर से
कैसे ढकी रही आई थी न
विदग्ध देह की लाज!
अपनी कूची से ठिठका लिया था
उसके अक्ष पर जब पृथ्वी को क्षण भर को तुमने,
मेरी उघड़ी उष्ण पीठ पर
एक नीली रूपहली मछली साँस लेती थी
हमने कितने निकट से देखा था न
घनी धुंध से भरी घाटी को
अनन्य अभिसारिका में बदलते हुए उस रात!
रात्रि के तीसरे पहर
रागालाप का मंद्र उतार था हमारे रुंधे कंठों में,
लज्जा अस्फुट स्वरों में बाँचती थी
पुरातन इच्छाओं की जीर्ण लिपियों में
एक ही उत्कट प्रार्थना!
कि तभी सलज्ज स्वर में
मैंने तुम्हारे कानों में कहा धीरे से
कि अभी गर्म है देह,
अभी काँपती है श्वास कामना के शिल्प में अनवरत
और देखो न!
निषिद्ध कुछ भी नहीं
इस गोलार्द्ध में आज की रैन
इससे पहले
कि मेरे पैरों का गीला आलता
इस निठुर पृथ्वी को हमारा गूढ़ पता दे
आओ भीतर चलें…
तीन
जैसे असोज में
कद्दू कोहड़े की लतरें फलती हैं बेहिसाब
इस ऋतु मेरे पापी जन्मचक्र में
दुर्भाग्य के फूल खिले हैं
उन्माद बहता है
अवसाद फलता है
इन दिनों
मेरी पीली देह अमलतास हुई जाती है
न, न, रुधिर कणिकाओं को मत कोसना तुम
हो सके तो मस्तक पर छितरे सेनूर की लाली से पूछना
कितने दिवस
सौभाग्य की तरह रही ग्रह-राशि में रक्तिम आभा
बैराग कितने दिवस
नासिका से केशों तलक अभियोग-सा कलपता रहा
यह जानते हुए भी
कि मुझे कहाँ रास आता है प्रेम!
तुम्हारी ही ध्वनि की टेक पर
देह सारंगी-सी बजती थी
साँस टूटती न थी
वाद्य यंत्र सरीखी,
धड़कन के भग्न चक्र पर,
एषणा दिन-रात नाभि से वक्ष तक डोलती थी
रात्रि के तीसरे पहर भी मालकौंस की धुन पर
देह का हर रंध्र तुम्हारे ही नाम का निर्गुण गाता था
अपनी पीठ कौन देख सका है कवि!
चाहो तो अपनी सुघड़ स्त्री से पूछना
या पूछना किसी विनीत दर्पण से
अपनी पीठ पर छपे अभेद्य शब्द का गूढ़ार्थ
जिसे यह पृथ्वी प्रेम कहती है
और तुम छल
मैं तुम्हारी पूर्वजन्म की अंतरंग सखी
इस निष्प्राण आत्मा की हर पार्थिव इच्छा
तुम्हारी ही तर्जनी से बाँधकर
तुमसे ही माँगती थी अमरता का वर
यह भी कम सुखकर है क्या!
कि जब तुम नहीं पुकारते
तुम्हारे ही आदिम मंद्र स्वर में
मुझे मृत्यु पुकारती है चुपचाप!
चार
कविता में मृदु सहवास हो
कि गद्य में कटु वैमत्य
अहर्निश कुछ नहीं रहता जीवन में
जैसे शेष नहीं रहती
कोई यंत्रणा देह के शोकागार में
कोई स्फुरण नाड़ी में देर तक नहीं टिकता
अनिष्ट घेरते तो हैं
भय अकुलाते तो हैं
किंतु अधैर्य का क्लेश
अधिक दिवस हृदय में अतिथि नहीं रहता
सदा न रूप रहता है
न लावण्य
सुमुखी कहते थे जो प्रियजन मुझे
आज श्वेत केशों से भेद लेते हैं
पराजय के वृत्तांत
पीड़ाओं की अनुक्रियाएँ
कत्थई रक्त बहता है
पाँच दिवस जिन दिनों
गात के सबसे अँधेरे प्रतीकों से
झरता है नैराश्य
खिन्नता किंतु छठे दिन शेष नहीं रहती
स्नानघर के दर्पण में
चिपकाई हुई मेरी बिंदियाँ भी
गिरती रहती हैं एक-एक कर
चीड़ के पिरूल की तरह
सिंगार धूल में मिल रहता है
सबसे प्रेमिल स्पर्श भी नष्ट हो जाते हैं
वह सबसे कोमल संसर्ग
जो नाभि में क्षण भर को ठिठकता है
वह भी लोटे भर जल से बह जाता है उपत्यकाओं में
विवेक भी कहाँ सदा रहता है!
मनोरोग की तरह वह भी
सांकेतिक भाषा में सिर उठाता है
तुम्हारे स्वरों के आभ्यंतरिक अंतर्वस्त्र पहने
आत्मीय मृतकों और पूर्वजों से
मोक्ष की दुर्बोध युक्तियाँ पूछती हूँ
किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता
एक ठंडी उसाँस भरकर
निकट के एक शवदाह गृह में
अपनी सारी प्रेम कविताएँ छोड़ आती हूँ
इतने विपुल संसार में
प्यार का एक शब्द नहीं बचता
आत्मा के सीले अँधेरे में राख गिरती रहती है…
पाँच
कौन नहीं जानता!
कि इस श्रावणी धारासार वर्षा का दोष
धरा को नहीं देह को लगा करता है
वर्षा थमती ही नहीं
वस्त्र सूखते ही नहीं
कि सहसा निरक्त तलुओं का दाघ
उचक कर मस्तक छू लेता है
इतनी तरल होती हैं आँखें
कि इंद्रधनुष नहीं दीखता
एक लघु सूर्य आठों याम गात में दुबका रहता है
कामनाओं का ताप चढ़ता जाता है
एक मद्धम चोट
मेरुदंड में समताल पर बजती है
शिराओं में पुलकित रक्त लजाता है
एक मीठी धूजन से चित्त डोलता रहता है
स्वप्न में तुम्हारे गर्वीले वक्ष पर
अपनी तर्जनी से मध्य पसरा
यह अलंघ्य अंतराल दर्ज करती हूँ
न! अब मुक्ति न चाहिए किसी युक्ति से
जिव्हा पर चाह का संकोच कितना रखूँ!
अब केशों में श्वेत गंधराज नहीं
चटख टेसू के फूल खोंसे आना चाहती हूँ
तुम्हारे पास
फिर चाहे जन्मचक्र की स्थिर ग्रह-मुद्राओं में
झिलमिलाता रहे दुर्भाग्य का दर्पण
श्मशान में धू-धू जलती रहे चिता
काँपता रहे मोक्ष का जल
पुत्र की अंजुरियों में
पुनर्जन्म की सच्ची झूठी मान्यताओं के भरोसे
छोड़ भी दूँ तुम्हें छूने की निषिद्ध चाह एक बार
किंतु अंतिम बार
तुम्हें देखने की इच्छा
कैसे छोड़ दूँ प्यार मेरे!
कौन जाने?
गंगा पार भी पहुँचे न पहुँचे
विदग्ध देह धूम्र
तुम तक पहुँचे न पहुँचे
यह मर्मांतक विकल पुकार…
छह
उसकी ताम्बई देह-गंध
दाँतों से काटकर विलग की
तो भी जिह्वा पर इक खारा दाग़ रह ही गया
अब कोई उद्यम नहीं
कोई उपचार नहीं
इन बेढब कविताओं में कोई ऋतु-राग नहीं
यह कविता पर नहीं
मन पर लगा सूतक है
नहीं, यह उसकी याद नहीं है
मेरे वक्ष पर मेरा ही
निस्पंद हाथ औंधा पड़ा है
वह कहीं नहीं है…
सपना भट्ट सुपरिचित कवयित्री हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘चुप्पियों में आलाप’ (2022) शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। यहाँ प्रस्तुत कविताओं में एक नई प्रेम-काव्य-भाषा दर्शनीय है। उनसे cbhatt7@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बहुत सुंदर कविताएँ हैं।
बहुत लंबे अंतराल पर सपना भट्ट में मिली कविता की सांद्र सघनता।