यूनिस डी सूज़ा की कविताएँ ::
अनुवाद और प्रस्तुति : शिवम तोमर

यूनिस डी सूज़ा (1940-2017) की कविताएँ पढ़े जाने पर कभी-कभी चुटकुलों-सी लगती हैं, लेकिन उन्हें पढ़कर जो हँसी उभरती है; वह कब एक शर्म में बदल जाती है, मालूम नहीं पड़ता। स्त्रियों के प्रति समाज का वह भद्दा और फूहड़ आचरण जिसे भारत में निर्विवाद रूप से एक आदर्श माना जाता है, यूनिस की कविताओं में प्रमुखता से जगह पाता है। ये कविताएँ जब-जब एक पाठक द्वारा पढ़ी जाती हैं, ख़ुद को एक शीशे में बदल लेती हैं जिसमें एक ऐसे व्यक्ति की शक्ल प्रतिबिंबित होती है जिसके गुण-दोष आश्चर्यजनक रूप से लगभग पाठक के गुण-दोष से मिलते नज़र आते हैं।

अक्सर साहित्यिक कृतियों को उनके लेखकों से अलग स्टैंडअलोन कृतियों के रूप में पढ़ा जाता है और फिर जब हमें किसी लेखक के आंतरिक विचारों और रचनात्मक प्रक्रिया के भीतर झाँकने का मौक़ा मिलता है तो हमें यह एक उत्कृष्ट विशेषाधिकार जैसा लगता है। यूनिस डी सूज़ा एक अपवाद का नाम है। एक अपवाद जिसका रुख़ हमेशा स्पष्ट और दृढ़ रहा, जिनके आचरण और कविता में रत्ती भर का भी फ़र्क़ नहीं। अपने संपूर्ण कृतित्व के दौरान उन्होंने निडर होकर विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में असंख्य भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा के प्रति अपनी चिंताओं को व्यक्त किया : चाहे वे नौकरानियाँ हों, दिहाड़ी मज़दूर हों या एकांत ‘गृहिणियाँ’ हों। एक स्त्री के जीवन में अकेलेपन के विषय को भारतीय अँग्रेज़ी काव्य साहित्य में कमला दास के बाद किसी ने संपूर्ण ईमानदारी से अपनी रचना में रखा तो वह यूनिस हैं।

यूनिस डी सूज़ा ‘ऑक्सफोर्ड इंडिया एंथोलॉजी ऑफ़ ट्वेल्व मॉडर्न इंडियन पोएट्स’ (1992) में शामिल होने वाली एकमात्र स्त्री थीं।

यूनिस का जन्म 1940 में पुणे में हुआ। तीन वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अपने पिता को खो दिया। उनके माता-पिता एक लड़का चाहते थे और इस बात के प्रति ग़ुस्सा लगातार उनकी कविताओं में झलकता रहा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पुणे में हुई। मार्क्वेट यूनिवर्सिटी, विस्कॉन्सिन से परास्नातक और मुंबई विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद उन्होंने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज में अध्यापन करना शुरू किया। यहाँ वह अपनी सेवानिवृत्ति यानी 30 वर्षों तक लगातार पढ़ाती रहीं। यूनिस की विदाई के वक़्त जितने भी छात्र उन्हें विदा करने आए सबके मुँह से यही निकला कि ‘यूनिस का उन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा’ और ‘यूनिस ने उनके विचारों को एक ऐसी ज़मीन दी जहाँ वे अपने उग्र विचारों के साथ डटकर खड़े हो सकते थे।’

अपने तोते के साथ यूनिस डी सूज़ा

यूनिस को जानवरों और पक्षियों से बहुत लगाव था। उनके परिचित बताते हैं कि कभी-कभी वह ख़ुद फ़र्श पर सोती थीं ताकि उनके कुत्ते बिस्तर पर सो सकें। ऊपर दी गई तस्वीर में उनका पालतू तोता कोको उनके सिर पर बैठा दिखाई दे रहा है। वह उनकी कई कविताओं का भी हिस्सा रहा। उनके तोते के बारे में एक क़िस्सा मशहूर है कि जब भी यूनिस का घर से बाहर निकलने का मन न होता तो वह अक्सर यह बहाना बनातीं कि ‘मिस्टर डी सूज़ा चाहते हैं कि फ़िलहाल मैं उनके साथ समय बिताऊँ।’ यहाँ मिस्टर डी सूज़ा और कोई नहीं, बल्कि उनका तोता कोको है। वह अपनी एक कविता में अपने चंचल तोते के बारे में मज़ाक़िया ढंग से ज़िक्र करते हुए लिखती हैं कि ‘मैं उस पर चिल्लाती हूँ, वह मुझ पर चिल्लाता है। बेहतर होता कि मैं इस से शादी ही कर लेती।’ ग़ौरतलब है कि यह तोता अपनी मादा के साथ एक दिन यूनिस के अपार्टमेंट में आ पहुँचा था और फिर इसका ऐसा सत्कार हुआ कि मादा के उड़ जाने के बाद भी इसने तय किया कि वह अब यहीं रहेगा।

साल 2017 में यूनिस का इंतिक़ाल हो गया। बक़ौल एक क़रीबी जो उनकी मौत की ख़बर पाकर उनके घर जा पहुँचा : ‘उनके अपार्टमेंट के आस-पास का माहौल एक महत्त्वपूर्ण शख़्सियत की रुख़सत से उदासीन था। कुछ लोगों द्वारा उनके सामान को स्थानांतरित किया जा रहा था, जबकि उनका पार्थिव शरीर उनकी पसंदीदा रंग की साड़ी में लिपटा हुआ एक वैन में पीछे रखा हुआ था जिसकी निगरानी कोई भी नहीं कर रहा था। जिस घर में वह दशकों से रह रही थीं, वहाँ केवल तीन अन्य लोग थे जबकि उनके झगड़ालू पड़ोसी उनकी मौत से अनभिज्ञ रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त थे। यह एक तरह का सादगी से भरा, तड़क-भड़क रहित अंत था जिसकी कल्पना शायद यूनिस ने कर रखी होगी। बस मुहल्ले के कुत्ते, गिलहरियाँ और पक्षी जिन्हें यूनिस नियमित रूप से खाना खिलाती थीं… उदास जान पड़ते थे।’

यूनिस का दैहिक अंत बहुत कुछ कहता है। इसे शब्दबद्ध न करते हुए आपके अवलोकनार्थ छोड़ता हूँ और यह कहते हुए अपनी बात ख़त्म करता हूँ कि यूनिस की कविता ज़मीनी कविता है, यहाँ कोई हवाई क़िले नहीं हैं जिसकी मीनारें किसी दूसरी अनदेखी दुनिया को छूती हों। इसलिए फ़ेमिनिज़्म के तमाम हवाई मुबाहिसों से बाहर आकर यूनिस की कविताएँ-उपन्यास पढ़ें जो न केवल अपने पूर्ववर्तियों की तथाकथित परंपरा से दूर विचरती हैं, बल्कि नई स्त्री-कवियों के लिए इन विषयों को अधिक प्रभावी ढंग से संबोधित करने का एक नया रास्ता भी खोलती हैं।

— शिवम तोमर

यूनिस डी सूज़ा

कवियों से मिलना

कवियों से मिलते वक़्त
कभी-कभी मुझे बेचैनी-सी होती है

कभी उनके मोज़ों के रंग पर ध्यान जाता है
तो कभी संदेह होता है कि उनके सिर के बाल नक़ली हैं
कभी उनकी आवाज़ ततैयों-सी लगती है
तो कभी पूरा माहौल ही सीला-सा बोझिल लगता है

कवियों से कविताओं में मिलना बेहतर है
कविताएँ जैसे कि ठंडी धब्बेदार सीपियाँ
जिनमें एक सुदूर उदास समुद्र की
आवाज़ सुनाई पड़ती है

पश्चिमी घाट

पश्चिमी घाट जो हमेशा मुझे मेरे घर जैसा लगा
उसमें मेरी राख छितरा देना
ताकि तेंदुओं में कविता के प्रति
रुचि विकसित हो सके
कौवे और पतंगें अपनी आवाज को
नियंत्रित करना सीख सकें
धुंध और झरने बने रहें,
घास और फूल ग़लत मौसमों में उगना सीख सकें।

स्त्रियों के लिए एक सलाह

अगर तुम प्रेमियों की अन्यता से
निपटना सीखना चाहती हो
तो बिल्लियाँ पालो

अन्यता हमेशा उपेक्षा नहीं होती—
ज़रूरत पड़ने पर बिल्लियाँ लौटती हैं
अपने बर्तनों की ओर
खिड़की से बाहर झाँकते हुए
वे नहीं कहतीं अपने दुश्मनों को भला-बुरा

अविरत हैरानी से भरी हुई
उनकी हरी आँखों की टकटकी
तुम्हें सिखाएगी
अकेले मरने का तरीक़ा

शादियाँ तय होती हैं

मेरी चचेरी बहन एलेना की शादी होने वाली है
सारी औपचारिकताएँ पूरी हो चुकी हैं

तपेदिक और पागलपन के लिए
उसके पारिवारिक इतिहास की जाँच की जा चुकी है
उसके पिता को ऋण-मुक्त घोषित किया जा चुका है

भैंगेपन के लिए उसकी आँखें जाँच ली गई हैं
छेदों के लिए दाँत
और संभावित ग़ैर-ब्राह्मण कीड़े के लिए मल

वह न तो पर्याप्त रूप से लंबी है
न ही सुड़ौल (ख़ैर यह तो जब बाल-बच्चे होंगे
तो ठीक हो जाएगा)

अंत में यह तय किया गया कि
उसका रंगरूप
जोकि स्वीकृत के लगभग आस-पास है
फ़्रांसिस्को एक्स नोरोन्हा* प्रभु के साथ
न्याय करने में पर्याप्त होगा
जोकि मुख्य-गिरजे का समर्पित भक्त है।

________

* फ़्रांसिस्को एक्स नोरोन्हा प्रभु : लड़के का नाम

आत्मकथात्मक

लो चलो, कहे देती हूँ
जब मैं तीन साल की थी
तब मैंने अपने पिता को मार डाला

मैं कई प्रेम-प्रसंगों में उलझी
और हमेशा क्षत-विक्षत होकर ही बाहर निकल पाई

मैंने अपने अनुभवों से लगभग कुछ नहीं सीखा
गर्त की ओर हमेशा नीरस नियमितता से आगे बढ़ती रही

मेरे दुश्मन कहते हैं कि मैं एक आलोचक हूँ
और मैं ईर्ष्यावश लिखती हूँ
वे कहते हैं कि मुझे शादी कर लेनी चाहिए
जबकि मेरे मित्रगण कहते हैं
कि मैं पूरी तरह से प्रतिभाहीन नहीं हूँ

हाँ, मैंने आत्महत्या करने की कोशिश की थी
मैंने अपने कपड़े इकट्ठा किए थे
लेकिन कोई नोट नहीं लिखा था
अगली सुबह मैं एक हैरानी के साथ जागी थी

एक दिन मेरी आत्मा देह के बाहर खड़ी थी
मुझे हिलते, मुस्कुराते और हड्डियों के ऊपर
त्वचा को कसते हुए देखती हुई

मुझे लगता रहा कि यह दुनिया
मुझे तोड़ने, तराशने और रेजर ब्लेड की तरह
मेरे टुकड़े-टुकड़े करने की कोशिश कर रही है
फिर, मुझे एक क्लीशे याद आया :
यह सब वही था
जो मैं दुनिया के साथ करना चाहती थी।

यहाँ प्रस्तुत कविताओं के अनुवादक शिवम तोमर की स्टडी टेबल पर उपस्थित यूनिस डी सूज़ा

एक नई जगह ढूँढ़ने का समय

अब समय आ गया है
ऐसी जगह ढूँढ़ने का
जहाँ एक-दूसरे के साथ चुप रहा जा सके

स्टाफ़-रूम, गलियारों और रेस्तराँ में
मैंने अंतहीन बकबक की है

जब तुम आस-पास नहीं होते
मैं मन ही मन बातें किया करती हूँ

इस कविता में भी
अड़तालीस शब्द अतिरिक्त हैं।

अन्यत्रता
ऐलिबाई

मेरा प्रेमी कहता है :
भगवान के लिए ऐसी कविताएँ मत लिखो
जो आहें भरती हों, हाँफती हों
जिनमें हमारी जाँघों आदि के संगीत की अनुगूँज हो
बस तुम जो हो वही बनी रहो :
जैसे काव्यों में एक आदिम चंचल मोहिनी
बाक़ी मुझ पर छोड़ दो।

डच पेंटिंग में स्त्रियाँ

दुपहर का सूरज
उनके चेहरे पर चमकता है

वे चुप दिखती हैं
लेकिन बेवकूफ़ नहीं हैं
गर्भवती हैं
लेकिन गोजातीय नहीं लगती

पेंटिंग के बाहर भी
मैं ऐसी कई स्त्रियों से वाक़िफ़ हूँ
एक रिश्तेदार जो अपने पति को
पलटकर जवाब नहीं देती
इसलिए नहीं क्योंकि
वह सादगीपसंद औरत है
और अन्ना जो कविताएँ लिखती हैं
और आशा करती है
कि एवोकैडो के बीज
उसके रसोई में अंकुरित हो सकते हैं
उसकी आवाज़ एकदम दलिया और शहद है

तोते

वसंत और वृक्ष दोनों ही पारभासी होते हैं
कितना मुश्किल हो जाता है अंतर कर पाना
हरे पत्तों और तोतों के बीच
बेर और चोंच के बीच
छींटदार पंखों और नसों की झुनझुनी के बीच

सामने दो पेड़ हैं और एक कूड़े का ढेर
कूड़ा आमंत्रित करता है बारबेट चिड़ियों को
पीपल का पेड़ बहुत प्रिय है तोतों को
अशोक के पेड़ पर गाती हैं बुलबुल
गौरैया, कौए और मैना शामिल होकर
एक आम शहरी उद्यान की भोर को
कोलाहल से भर देते हैं

तीसरी मंज़िल पर रहने वाली स्त्री कहती है
कि हमें पेड़ काट देने चाहिए
वह शोर के कारण सो नहीं पाती

हे भद्र स्त्री,
तुम ख़ुद एक ब्लैकबोर्ड को खरोंचने वाले
नाख़ून की तरह हो।

बताकर आना

मिस्टर डेथ, बताकर आना
तारीख़, वक़्त और जग़ह…

मुझे अपनी पैंटी ढूँढ़नी रहेगी
लाइफ़ ऑफ़ सिन वाली
और पेडीक्योर के लिए
अपॉइंटमेंट भी लेना रहेगा।


शिवम तोमर से परिचय के लिए यहाँ देखिए : आवाज़ लगाने से भी कम होती है दूरीकविता लिखना दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति को एक साथ एक ही बार में एक मुख़्तसर पत्र लिखने जैसा हैइस देश का विशालकाय मुँह दर्द में भिंचा हुआ है

2 Comments

  1. मनीष कुमार यादव अक्टूबर 11, 2023 at 6:06 पूर्वाह्न

    सुन्दर अनुवाद जिसमें कथ्य की मौलिकता यथावत है!

    Reply
  2. विनोद विट्ठल अक्टूबर 12, 2023 at 12:31 अपराह्न

    शानदार कविताएँ।

    शिवम भाई को ख़ूब प्यार और आभार।

    विनोद विट्ठल

    Reply

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