कविताएँ ::
सोमेश शुक्ल

सोमेश शुक्ल

एक

मैं इससे अधिक सरल नहीं हो सकता कि कोई मुझे कभी जाने बिना एक दिन भूल जाए।

दो

दो बुद्धिमान लोगों के बीच आपसी समझ एक असहायता पर आधारित होती है।

वे जानते हैं कि वे एक-दूसरे के लिए कितने अपर्याप्त हैं।

तीन

हमें किसी भी एक चीज़ के होने के बारे में इतना कम पता होता है कि हमें लगता है अन्य चीज़ें भी हैं।

चार

कभी-कभी तो कुछ पता न होने से भी काम नहीं चलता।

पाँच

किसी चीज के बारे इतना ज़्यादा सोच लिया गया है कि कुछ कहने के लिए हमारे पास ‘कुछ’ तक भी नहीं बचा है।

छह

यात्राएँ अपनी जगह ठीक हैं पर कभी कोई दूसरी जगह मुझे आकर्षित नहीं करती क्योंकि कहीं न कहीं मैं यह जानता हूँ कि वहाँ कितना भी अनोखापन क्यों न हो पहुँचूँगा तो मैं ही।

सात

जो कुछ मैं नहीं कर रहा होता हूँ,
बस उसे देखो!
वह मेरा एक दिखावा है।

आठ

पता नहीं कहाँ पर
और वह क्या है
जिससे मैं इतना दूर हूँ
कि यहाँ हूँ।

नौ

शक्ल की एक पक्की पहचान है कि वह ख़राब दिखती है।

दस

कोई-कोई ‌‌तो रात इतनी अधिक नींद नहीं आती है कि बाहर गली से किसी के नहीं गुज़रने की आहट भी सुनाई देती है।

ग्यारह

सतही लेखन एक ऐसा दर्पण है जिसमें लेखक के रूप में लिखने वाले व्यक्ति को अपना प्रतिबिम्ब दिखता है।

इसके विपरीत वह लेखन है जो लिखने वाले की छवि को अपार पी जाता है।

बारह

कुछ भी देखकर मुझे ऐसा लगता है कि मैं किसी भी प्रकार का नहीं हो सकता हूँ, बल्कि किसी प्रकार का मैं एक प्रकार हूँ।

तेरह

किसी चीज़ को याद रखना उस चीज़ का लगातार ख़ाली प्रतिरोध करने के अलावा और कुछ नहीं है जो हमारे सामने है।

चौदह

हमारे जीवन के वे हिस्से जिन्हें हम स्वेच्छा से नहीं जीते उनमें किसी भी चीज़ के लिए मना करने को हमारे पास ऐसी कोई भाषा उपलब्ध नहीं है जिसमें किसी तरह का कोई ‘नहीं’ शब्द संभव हो।

पंद्रह

मुझे इस बात का अब भरोसा नहीं है कि मैं अपने होते हुए जी सकता हूँ और सारे संशयों को छोड़ भी दूँ तो मैं अपने आपसे घिर आया हूँ। अब जब अपनी ही आवाज़ निकालता हूँ। अपनी तरह से सोचता हूँ। तब अपने लिए करने को और क्या नया बचा है!

हम जहाँ व्यतीत हुए, जिन जगहों में हमने प्रेम किया। फिर वहाँ से कहीं और चले गए। जैसे कहीं न कहीं हम हमेशा जानते थे कि हमारा न होना यहाँ ठीक हमारे पीछे खड़ा रहता है। वह एक अदृश्य धक्का धकेलते हुए हमें कहीं ले जा रहा है।

सोलह

किसी बुरी से बुरी चीज़ का भी व्यक्ति पूरी तरह तिरस्कार नहीं करता, क्योंकि इससे अपने लिए उसका अपना एक ग़लत उदाहरण बन पेश होने का ख़तरा है।

सत्रह

अंत में
जब कुछ नहीं होता
आवाज़ का नहीं होना तक नहीं
हम अपने आपसे जाग जाते हैं

सज़ा और मुक्ति में अंतर नहीं रहता
कुछ जब ख़ुद से होने लगे

और सब कुछ के बीच अलग से एक शोर भी बना रहता है जो अपने ही आपमें होता है।

अठारह

सुंदरता को समझने को लेकर मेरी अपनी एक निजी तकनीक रही है। जहाँ भी मुझे सुंदरता दिखती है उसे खींचकर ज़ोर से अपने चेहरे पर उससे झापड़ मारता हूँ।

उन्नीस

व्यक्ति अपनी नाकामियों को सिर्फ़ दीखती चीज़ों के पीछे छुपा पाता है। वह उन्हें जाने गए के नीचे दबाता है। वह धीरे-धीरे फिर अपनी जी गई दुनिया जितनी नाकामी में धँसा-धँसा यह भी सोचता रहता है कि कहीं जाया जाए—एक नई जगह जो कभी किसी और के लिए भी न मुमकिन हुई हो या फिर यहीं मेरे कुछ इतने पास हो हर तरह से मेरे साथ हो इस तरह कि जैसे अंधापन होता है।

बीस

कोई व्यक्ति किसी एक स्थान पर हमेशा के लिए नहीं रह सकता है, जब तक कि किसी ने कभी एक बार उसे त्याग न दिया हो।

इक्कीस

किसी भी चीज़ के बारे में मेरी कोई राय नहीं बनती, क्योंकि चीज़ें दुनिया में इतनी हैं कि चीज़ों के बारे में चीज़ें ही हैं।

बाईस

ग़लत को कभी भी किसी भी तरह किया जा सकता है, लेकिन उसे फिर हमेशा सुधारा जा सकता है।

जब सही को हम सही रूप में कर सकें, तब हमारा जीवन हमारी अपनी शर्त पर जीने लायक़ बन सकता है।

तेईस

आराम से लेटे समय तभी कभी मुझे आसानी से भ्रम हो जाता है कि बिस्तर पर मैं लकवाग्रस्त हुआ पड़ा हूँ। फिर पाता हूँ कि मैं विचार को असहाय होकर सिर्फ़ सोच सकता हूँ। सोच-सोचकर हर बार यह देखने के लिए कि विचार कहीं मेरा यथार्थ तो नहीं; मुझे देह द्वारा ही देह को हिलाना होगा, क्योंकि यह जानने का दूसरा कोई तरीक़ा नहीं है। और तब जब यह हिल जाती है तो मेरे पास बस एक धन्यवाद होता है। कोरा धन्यवाद! क्योंकि उस धन्यवाद को लेने वाला कोई नहीं है, किसी तरह का कोई ईश्वर भी नहीं।

मैं अपने बोलने, न बोलने में एक धन्यवाद न दे सकने तक लकवाग्रस्त हूँ।

चौबीस

जीवन में कुछ भी करने से पहले में एक अंतहीन हिचकिचाहट रहती है और करने के बाद हमेशा जितनी शर्मिंदगी।

पच्चीस

बीता सब ऐसा लगता है जैसे एक ऐसे व्यक्ति का सपना मैंने देखा लिया जो हमेशा से अंधा रहा हो।

छब्बीस

हमेशा से अंत में मुझे उन चीज़ों का सहारा है जो साथ देती हैं और बदले में मुझसे कुछ नहीं लेती, मेरा ध्यान भी नहीं। रास्तों पर कितनी भी देरी या कितनी भी जल्दबाज़ी क्यों न हो, पर कभी-कभी इस आने-जाने से छिटक कर रुका रह जाता हूँ और यह अकारण नहीं होता; पर यह उन खड़े हुए मकानों, पेड़, बिजली के खंबों की तरह कोई कारण भी नहीं रखता… बल्कि कोई चीज़ मेरा कोई ऐसा हिस्सा थाम लेती है जिसे जन्म से मैं भूला हुआ हूँ और मैं वहीं रुका रहा जाता हूँ—कारण-अकारण के किसी विपरीत सम्मोहन में।

सत्ताईस

मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, उसे करने में अयोग्य हूँ—चाहे किसी से प्रेम करना हो या किसी को जाने बिना उसके पास से गुज़र जाना।

अट्ठाईस

वे लोग मुझे बहुत दयालु लगते हैं जो जानते हैं कब दूसरे को अकेला छोड़ देना चाहिए।

उनतीस

कविता इस अर्थ में नहीं होती कि हम कुछ जानते हैं, बल्कि इसमें होती है कि हमें पता है कि हम क्या नहीं जानते हैं।

तीस

कोई अपना जब नहीं रहता तो कभी तक उसे गुज़रे कितना भी समय बीत चुका हो, हम पाते हैं कि उसके होने की एक रेखा हम अपने मन में तब से निरंतर खींच रहे हैं बिना टोके, बिना रोके।

फिर एक क्षण को यह यक़ीन आ जाता है कि जीवन एक द्वारा दूसरे के किसी न किसी तरह साथ बने रहने की ज़िद भर है।

इकतीस

याद हमारे मुड़ने की तीव्र शक्ति है—उसकी ओर को जो हमें पता नहीं कि किधर है।

बत्तीस

ऐसा कुछ भी नहीं दिखता कि कह सकूँ—मेरे होने पर इसके होने की क्या तुक थी?

लेकिन हर एक चीज जिसे मैं देखता हूँ तो लगता है कि अरे! जब यह है तो फिर मेरे होने की क्या तुक थी?

तैंतीस

कभी-कभी इतनी हड़बड़ी में रहता हूँ कि तुरंत पहचान में आ जाता हूँ।


सोमेश शुक्ल की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह आठवाँ अवसर है। वह लगभग डेढ़ दशक से कविताएँ रच रहे हैं। लेकिन हिंदी-दृश्य में अब केवल रचना और रचते रहना ही पर्याप्त नहीं रह गया है, इसके अलावा भी दृश्य में बने रहने के लिए तमाम ग़ैर-रचनात्मक चीज़ें लगने लगी हैं। इससे सबसे ज़्यादा समस्याएँ उस पीढ़ी के सम्मुख हैं, जिसने अब तक अपनी ठीक-ठाक पहचान या स्वीकृति दर्ज नहीं की है; लेकिन रचनात्मक रूप से अत्यंत उर्वर, जटिल और प्रयोगशील है। सोमेश भी संयोग से इस पीढ़ी में ही आते हैं, लेकिन इसमें भी कहीं अलग-थलग पड़ते हैं। वह योजनाओं-अनुदानों-वृत्तियों के तहत अपना कविता-संग्रह प्रकाशित करवाने से इनकार कर चुके हैं। उनके पास सताए जाने की स्मृतियाँ नहीं, सताए जाने का वर्तमान है। लेकिन इस स्थिति को लेकर वह बड़बोलेपन, रुदन और आत्मदया से दूर हैं। आज इस दौर में—जब जो जितना अधिक झूठा, कमीना और भ्रष्ट है; यही शिकायत करता पाया जा रहा है कि लोग उसे गालियाँ दे रहे हैं—सोमेश किसी के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं, यह भी नहीं कि लोग उनके बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं… क्योंकि कविता की समझ को हमने इस क़दर एकायामी, चालू और विमर्शीय बना दिया है कि सोमेश सरीखे कवियों की नियति क्या होगी, विश्वासपूर्वक कुछ भी कह पाना मुश्किल है। बहरहाल, उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व-प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : थोड़े समय से बच गए अनंत समय में │ कुछ ऐसे रहस्य हैं, जिन पर कोई परदा नहीं │ फूल की स्मृति में फूल की गंध चूक जाने पर मात्र चूक जाने वाला ही बचे │ मेरे होने से एक रास्ता रुका हुआ है │ इस संसार में सिर्फ़ देखे गए रंग ही फीके पड़ते हैंमुझमें केवल एक ही कमी थी कि मैं था

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *