कविताएँ ::
सोमेश शुक्ल

सोमेश शुक्ल

एक

कहीं अपने न होने के लिए भी
एक तैयारी करता हूँ

क्या पहना होऊँगा
जब नहीं होऊँगा?

कैसे बैठूँगा,
किससे और क्या बात करूँगा?

इस सबमें मेरा बहुत समय ख़र्च हो जाता है
और अपने होने के लिए
मैं कभी कोई तैयारी नहीं कर पाता

दो

आया हुआ सब
वापस चला जाता है
जैसे हवा का झोंका लौट जाता है

किसी और दिशा में… एकदम!
देखो, देखने में
वस्तुएँ देखने से पहले
अपने आकार में लौट जाती हैं

तुम्हारे स्वप्न में
मुझे तुम छोड़कर लौट जाती हो…
एकाएक!

जैसे देह को छूकर स्पर्श लौटता है

मैं भी लौटता हूँ

हम एक-दूसरे की ओर चलते रहते हैं
जैसे अपनी-अपनी तरफ़ लौट रहे हों
हम कहीं पहुँचे ही होते हैं कि
फिर लौट जाते हैं

तीन

मैं नहीं जानता भवन में भवन को सुंदर कहूँ
तो कहाँ खड़े होना होगा

किस तरह देखना होगा
कि दृष्टि को एक निजी संपत्ति मान सकूँ

बता सकूँ कि हर किसी के रास्ते में पड़ता हूँ मैं
मेरे होने से एक रास्ता रुका हुआ है

जबकि एक यात्रा का चमत्कार ही उसकी निरंतरता है
एक भीतर का चमत्कार है उसकी ख़ाली जगह

मैं अब जहाँ भी
जिधर भी होता हूँ
मेरा चेहरा
मेरे अपने अंत की ओर रहता है

चार

मैं स्पेस पढ़ते हुऐ शब्दों को छलाँग जाता
कहानी में
पेड़ और उसके हरे के बीच में भी एक दूरी होती है
एक अंतराल, ध्वनि और उसके आंदोलन के बीच में होता है,
दो मध्य के मध्य एक स्मृति घुटती रहती है
कालांतर में एक नदी बहती रहती है—
अपने पानी के बिना भी

कुछ नहीं सोचकर मैं
अपने शून्यचित्त में मुस्कुराता रहता हूँ

अंधी आँखें मुँदी हों जैसे

दिखता सब है
देखता कुछ नहीं
दृष्टि अपने आप
पता नहीं कहाँ तक चली जाती है
पता नहीं क्या-क्या देख आती है

मुझे अंतराल लुभाता है

वहाँ कोई विन्यास नहीं है

पाँच

मैं अँधेरे से चटकनी की ओर हाथ बढ़ाता हूँ
बल्ब जलता है
लेकिन रोशनी नहीं होती

अँधेरे में रोते-रोते
अब रोने में भी अँधेरा भर गया है

जाने किस बात को मैं सोचता रहता हूँ

मैं अँधेरे से चटकनी की ओर हाथ बढ़ाता हूँ
तो उँगली हाथ आगे निकल जाती है

मैं जिस कमरे में रहता हूँ
उसकी भाषा समझता हूँ

उसका मन बहुत बड़ा है
इतना जितना मुझे अपने में समा ले
और भूल जाए

छह

सारे रास्ते फ़रवरी की ओर जा रहे हैं
सारे उच्चारण उसी के लिए हो रहे हैं

पता नहीं क्यूँ
पर कुछ भी अकारण नहीं होता
न ही अचानक

होने में एक आश्चर्य है
हो जाने में नहीं

फ़रवरी प्रतीक्षा में
‘सब कुछ’ अपने अंत तक घट रहा है

‘सब कुछ’ एक साथ मिलकर
नितांत अकेला हो गया है

फ़रवरी की प्रतीक्षा में
फ़रवरी की घटनाएँ
फ़रवरी के बिना घट रही हैं

कि तब मैं रात भर उँगली फेर-फेरकर
अपनी देह पर
मृत्यु लिखूँगा
और उसे महसूसूँगा

चल चलकर अपनी जगह छोड़ूँगा
और पीछे मुड़कर देखूँगा
कि फ़रवरी में होने जितनी
फ़रवरी में जगह है कि नहीं

एक-एक कर महीनों की दराज़ें खीचूँगा
सोई हुई अपनी लाशें देखूँगा
और फिर फ़रवरी की ख़ाली दराज़ में
जाकर लेट जाऊँगा


सोमेश शुक्ल हिंदी कवि-कलाकार हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : थोड़े समय से बच गए अनंत समय में │ कुछ ऐसे रहस्य हैं, जिन पर कोई परदा नहीं │ फूल की स्मृति में फूल की गंध

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