वार्ताएँ ::
शिव कुमार गांधी

आपदा
अब तुम्हें आना ही है तो आओ, बैठ जाओ,
इतना मत भटको
जो करना है एक बार में कर जाओ
जिज्ञासा
तुम ही मेरी प्रिय थी
अब निस्तेज, कुचली हुई
नाख़ून
पूरे जीवन ही
बढ़ते रहने की क्या ज़रूरत है?
दोस्ती
सिर्फ़ क़िस्से-कहानियों में न रहो
तुम्हारे लिए जाम मेरी टेबल पर
अब भी रखा है
महसूस
अब बहुत हुआ,
लेकिन जितना भी हुआ कम हुआ
आवेग
आओ,
थोड़ा सलीक़े से आओ
कुछ उम्र का ख़याल रखो
मार
कुछ तो शर्म करो
ख़ुशी
लुका-छिपी मत खेलो
सिर्फ़ अपने शब्द में न रहो
विचार
अजनबी रास्तों पर ले चलो
इच्छा
अच्छा हुआ तुम बनी रही
न पूरी भले हो,
तुम्हारी छाया बनी रही—
एक भ्रामक बुत की तरह
बुत
अभिशप्त हो तुम
मृत्युपर्यंत एक ही भंगिमा लिए हुए
भंगिमा
मुझसे खेलो मत
बहुत थका हुआ हूँ।
थकान
पीछे पड़ी है तुम्हारे
भागो मत एक बार
उसके साथ गिर पड़ो
गिरना
इतना ही उठो
कि गिरते हुए
अपना वज़न सम्हाल सको
याद
अच्छे भले आदमी को
एक बोसीदा कवि में बदल देती है
अंतराल
आख़िर कितनी गहराई है तुम्हारी
कविता
ग़फ़लत में हूँ,
यह तुम्हारे आने का समय है
कि जाने का समय—
मुझ जैसे कवियों का
बस यही एक रोना है
इंद्रियाँ
इंसानी जनसंख्या में
अब तुम्हारी जगह कहाँ है?
शहर
विध्वंस तुम्हारे कंधों पर
गुलाबी होंठ लिए बैठा है
उम्मीद
एक असलियत, बस
तुम्हारी मरीचिका ही है
आईना
हाँ हाँ मुझे पता है, तुम हो
अब बस भी करो, थोड़ा चुप रहो
ताक़त
देह छूटी,
फिर भी अपने शब्द में
कुलबुलाती रही
समय
कोई जलसा बस आरंभ को है
और कोई अंत को।
आश्चर्य
कितनी चीज़ें तमाम,
बस एक जीवन और
तुम्हें ठीक से अनुभव करने के लिए
चेहरा
तुम्हें बनाने का अप्रासंगिक काम
पूरी उम्र कर, तमाम किया
उदासी
हर समय ताक में बैठी
आख़िर कब थकोगी?
आवरण
उतरते-उतरते भी
चढ़ता रहा
दरवाज़ा
थोड़े मज़बूत रहो
भोर में पहले-पहल
मनहूस अख़बार फटकारेगा अपने
भ्रष्ट जूते
तारे
क्या तुम्हारी संख्या
रातों से भी ज़्यादा है?
वज़न
दुनिया में और भी तो इतने सिर हैं
कुछ देर वहीं घूम आओ
छायाएँ
पल-पल बदलना कोई तुमसे सीखे
परछाई
आख़िर तुम किसकी हो?
बर्तन
तुम्हें शोषकों ने बरता
शोषितों ने भी
बताओ,
किनकी अलमारियों में तुम ज़्यादा रहे?
नदी
तुम्हारा जल सूख गया
फिर भी तुम नदी ही रही
प्रेम
अपने टूटने की हद तक भी
रहना तुम प्रेम ही
जून
अप्रैल, सितंबर को चाहने वाले बहुत हैं,
मेरा वास्ता तुमसे है जून
अपनी तपिश में पक्षियों के संग
मुझे भी पनाह दो।
मेज़पोश
फूलों का कितना बड़ा बाग़ हो तुम,
ये छुरी-काँटे लिए
तुम्हें
घेरकर कौन बैठे हैं?
हँसी
हाहा 😀 होहो 😁 हेहे 😊 हा
क्या इतनी काफ़ी है?
बिछुड़ना
तुम्हारा पता
मैं दिन-रात
तुमसे ही पूछता रहा
ऋण
जाने कौन-कौन नदियों का पानी मिलकर
मेरे आँगन में बरसा है नदियो,
मैं ऋणी, अर्कमण्य तुम तक नहीं आया
शिव कुमार गांधी हिंदी कवि-लेखक कलाकार हैं। उनका कवि-रूप अपने को बहुत प्रस्तुत करता हुआ नहीं है। वह प्रदर्शनाधिक्य में डूबे समय में स्वयं को अत्यंत सीमित रखते हैं। लेकिन जब आप उनके काम को देखते हैं तो उनकी इस इच्छा और साधना के मर्म तक पहुँच जाते हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ या कहें कविता-पंक्तियाँ भी इस संदर्भ में देखी जानी चाहिए कि उनके सीमित में कहीं न समा पाने वाली तकलीफ़ कैसे एक साथ समा गई है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : लीनी की डायरी
बहुत सुंदर कविताएँ हैंl
इतना पूरा कम, कम ही देखने में आता है। अक्सर कविता, कविता में भी कहीं कहीं ही होती है। बड़ा होना ही अक्सर उसे कम कर गुज़रता है। शिव का इतने कम में उसे कह पाना आश्चर्यजनक है। उन्हीं के अनुसार एक जीवन और चाहिए आश्चर्य को “ठीक से अनुभव करने के लिए।” या यूँ कहें एक ऐसी ही कविता और चाहिए! क्यूंकि इन कविताओं की लम्बाई ठीक उनसे उत्पन्न अनुभव की लम्बाई जितनी हैं। और ऐसा लिख पाना दुर्लभ है। आशा हैं और आएँगी।