कविताएँ ::
आदर्श भूषण
पहचान
कहीं किसी भटक में
जब कोई पूछता है अचानक—
‘कौन हो?’
यह कह देने से पहले कि
आदमी हूँ
एक विचार हाथ पकड़ लेता है
फुसफुसाकर कहता है—
यदि तुम कहोगे कि आदमी हो तो
वह नहीं करेगा विश्वास
उसने पहले ही यह मान लिया है कि
तुम आदमी नहीं हो
उससे नीचे या कम कुछ भी हो सकते हो
जितना कि वह आदमी है
अब उत्तर बदलना पड़ेगा
किंतु ध्यान रहे कि
तुम्हें वही बने रहना है जो तुम हो
या कि उतना
जितना आदमी होने की संभावना सबमें होती है
कहीं किसी भटक में
जब कोई पूछता है अचानक—
‘कौन हो?’
यह कह देने से पहले कि
आदमी हूँ
पेड़ हूँ
पक्षी हूँ
कल्पना हूँ
वह सब जो मैं होना चाहता हूँ
या वह सब भी जो होने की इच्छाओं में
यह हुआ हूँ जो नहीं दिखता कि
क्या हूँ
कौन हूँ
एक विचार हाथ पकड़ लेता है
फुसफुसाकर कहता है—
‘कौन हो?’
यह बहुत व्यक्तिगत और जटिल प्रश्न है
किसी की पहचान इतनी स्पष्ट नहीं हो सकती
जिससे इस प्रश्न को पूरी तरह संतुष्ट किया जा सके
कहीं किसी भटक में
जब कोई पूछता है अचानक—
‘कौन हो?’
तो समझो कि वह यह जानना चाहता है कि
कहीं तुम उससे कुछ अधिक तो नहीं
कहीं उसकी श्रेष्ठता को कोई ख़तरा तो नहीं।
वैकल्पिकी
पानी के बीच
सतह पर बने रहने की संभावना
तब तक बनी रहती है
जब तक जीवन विकल्प की तरह दिखता रहे
कोई द्वीप दूर कहीं अपने एक बड़े से अट्टहास में
कोस रहा हो यदि
प्लवन में फँसे थिरते गात की अनावस्था को
तब वैकल्पिकी की दुर्दांत सीमाओं की कल्पना पर भी
फूट पड़ता है हृदय
डूब से बचने और सतह पर निष्प्राण निश्चेष्ट हो जाने की
भीतियों के बीच
पानी जब हहकारता हो रात-दिन
तब याद आता है अपना थलचर होना
उभयचर होने के अभिनय में
नीली छत के नीचे का आयतन
चंद फ़ीट ऊपर उछलकर पानी से वात में
मिल जाने की चेष्टाओं से अनावृत्त
रहने को घर नहीं लगता
पानी को मुक्तियों में देखता हुआ मन
फूस की तरह लहकता है निर्विज्ञान
अस्थियों में उतरती है ऊष्मा
खेह होती जाती है सतह पर घनत्वहीन देह
अंतिम से पहले के सारे विकल्पों के पड़ाव पर
सतह पर उठते हुए उच्छ्वासों में
पानी अपनी अनावस्था में कोई किराए का मकान ही है
भोगे हुए प्रारब्धों से भर रहा है भाटक कोई समस्थानिक
कोई उत्तर-जीवन के अकल्प में पुकारता है
इतना महीन कि सतह पर आँख से रिसता है कोई द्रव और
पानी हो जाता है फिर-फिर।
भाग्यरेखाएँ
बाहर देखने को
सँभालनी पड़ती है भौतिकी—पहेली—खेल
कहना पड़ता है दिखे को दिखा
भरे को भरा और ख़ाली को ख़ाली
उलीचना पड़ता है चेतना का जमा गंधाता पंक जल
अंदर को देखने को
उलटने पड़ते हैं सारे प्रवेश
निकालनी पड़ती हैं आत्मा की चौर्य युक्तियाँ
पहुँचना होता है बीत रहे और चुके के सँकरे गलियारे से
बोधि सम कोई शेष कविता रहती है मृण के रहस्यों में
कोई मेघदूत छटपटाता है सुनते हुए विरह का यक्षगान
एकालाप में देह हिय प्राण से अल्प होता हुआ
उठता है भीत का कोई ज्वार मन में
और पुकारता हूँ तुम्हें आत्मा से अधीर होकर
तथापि ज्ञात है कि यहीं हो सिद्ध
तुम्हें देखने को उतारता हूँ आँखें
तोड़ता हूँ दृष्टि की प्रत्यंचा
कहाँ की तरह और कहाँ की ओर
कैसी उतृष्णाओं में और किस मरीचिका से समरूप होती जाती हैं
तुमसे जोड़ती हुई भाग्यरेखाएँ
ओक में भरता हूँ तुम्हें
और चूमता चला जाता हूँ
जैसे इस पृथ्वी से अलग कोई पृथ्वी नहीं
इस समय के बाद कोई समय नहीं
इस लौट के बाद कोई लौट नहीं
यदि यह विदा है तो इसके बाद कोई विदा नहीं
यदि यह जीवन है तो इसके बाद कोई दूसरा जीवन नहीं
और यदि यह कल्पना है तो इसी को मानता हूँ यथार्थ।
अ-स्थावरण
विस्थापितों की चनाज़ोरगरम आबादी में
एक खोए हुए पते का मकान
रेंग और पैदल को लौटता हुआ कोई घर हो सकता था
लेकिन शहर का तारकोल दरवाज़े की फाँक पर
ऐसे चिपड़ता है जैसे समय साल की लंबी सुई में
महीने का धागा फँसाकर
रफ़ू कर गया हो बिन फटे की औंधी आँख
एक पते का फिरा हुआ
दूसरे पते को ग़ौर से देखता हूँ और
विस्मय से विश्वास में बदलता हुआ
मान लेता हूँ उसे वह ठाँव-ठौर
जिसे उलझी हुई भौगोलिकी में घर होना था
वहाँ मुझे क्यों होना चाहिए
प्रायिकताओं के अपूर्णांक जहाँ गड्डमड्ड हो चले हों
क्या वह रिक्तियों का न्यून भी अब
आत्मा को कोंचने के लिए सज्ज हो चला है
जहाँ प्रतीक्षा की ख़ाली काँच में असन्निधि के कंकड़ भर दिए गए हैं
स्वेदभूमि के स्वत्व में
अवकाश का कोई क्षण फड़कता है
और उबाल पर चढ़ती है रुधिर की प्रत्यंचा
उच्छ्वासों के शर बेधते हैं रफ़ू की सिलाइयाँ
फाड़ते हैं जमा हुआ तारकोल
टूटती है एक मकान के स्थायित्व की अघोषित चिरनिद्रा
धूल के फाहे अगोरते हैं तलुए—
पैरों में उग आता है कपास
हाथ पसारता हूँ और बटोर लेता हूँ
अपने हिस्से की पृथ्वी
गले तक भर आता है
एक विस्मृत विदागीत पूर्वजों की लोकभाषा का
दृश्य-अदृश्य में भी कोई आश्चर्य बचा लेता है प्राण
लौटने को जैसे-जैसे घर बीतता गया
एक अदिष्ट इच्छा का जोग
वयस की देह पर छानता रहा सारंग की कुंडलियाँ
अब एक दुनिया से साँकल खटकाता हूँ तो
दूसरी ओर का कोई विस्थापित प्रतिबिंब खोलता है पाट किवाड़ों के
अनागत को देता है जगह
एक आँसू रखता हूँ भाटक का और
लौट आता हूँ आँखें बदलकर।
व्यक्तिगत क्षमा
ऐसे युग में
जब घट रहे हैं दिनोदिन
आवश्यकताओं की भीड़ से बच निकलने के अवसर
पानी और पेट की कतारों में भर-भर आई है संततियों की शृंखलाएँ
खादियों की प्रतीकात्मकता में लग आई है चमक और कलगियाँ
हिंसा एक सामाजिक औज़ार की तरह भंज रही है
उनके विरुद्ध—जिनके पास बस क्षमा माँगने
और कर देने भर की सहूलियत से भरे हाथ हैं
तब, बस तब
हमारे समय का मज़दूरीकरण कर दिया गया है
हम दिनखटुआ लोग प्रजातंत्र के रतजगे में उबासियाँ ले रहे हैं कि
हमारे मेहनतानों में से भी व्यवस्था-कर चोरी कर लिया जाएगा
राजनीतिक उठाईगीरों के पैंतरों में हमारी गर्दनें फँसी हुई हैं
हमारा अन्न भर दिया गया है युद्धशालाओं में
हमारी क़तारों में चुनावी षड्यंत्र खड़े कर दिए गए हैं
हमें ईश्वर चुनने को बाध्य कर दिया गया है
ऐसे में—
जब वैयक्तिकता की सँकरी बची-खुची जगह में
बिलबिलाने और कहीं भी बस अपनी उत्तरजीविता सिद्ध कर लेने की
यादृच्छिक कोशिशों के बीच
व्यक्तिगत क्षमा ही एक उभयनिष्ठ युक्ति है
जो मुझे और तुम्हें दोनों को समय से पहले और बाद की
ग्लानियों से बचा सकती है
तुम मुझे क्षमा करो
उन्हीं अर्थों में
जिनमें मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ—
और ध्यान रहे कि
यह मात्र एक व्यक्तिगत क्षमा है।
समय से समय की ओर चलता हूँ
उनसे कहते हुए कि
वे अब नहीं रहे आदमी उस परिभाषा और परिचय में
जिससे जानता-जाँचता आया हूँ
कौन अवस्था के पूर्वसर्गों में अभी भी आदमी ही है—
शब्द सीधे और सपाट भी हो सकते थे
और यह भी संभव था कि
सबसे सरल होने की जटिलता से बचाया जा सकता था
आदमी बने रहने का सबसे आदिम ढंग
मुझमें धीरे-धीरे उतरता है
एक पेड़ का गूँगापन और बधिरता
जो बरसों से विभाजन-चिह्न की तरह खड़ा है
वे नक़्शों में ढूँढ़ते हैं कि
उनके हिस्से में कितनी आई हैं ज़मीनें
कितने आए हैं दरवाज़े और खिड़कियाँ
कितनी डेगों में नाप सकते हैं पूरा अधिकार क्षेत्र—
नहीं जान सकते पूरी पृथ्वी को अपना घर कह लेने की सरल उदात्तता
अपनी न्यूनता में जब उठाता हूँ एक मुट्ठी पृथ्वी
पाता हूँ नश्वरता में आदिम होने का कोई सूक्ष्म दिशाबोध
समय से समय की ओर चलता हूँ और कहीं नहीं पहुँचता
उनके अ-शब्दों में
उतर आती है घात लगाए बैठे होने की प्रतीक्षा
जीवन के सबसे कमज़ोर दिनों में प्रहरण की चेष्टाएँ
मुझमें धीरे-धीरे उगता है
एक पेड़ का असंगपन
जिसे वहीं बने रहना है
इतनी बड़ी दुनिया के सुनसान में
घमासान में।
अ-मंगलाचार
जागते हुए दिन में भी
अँधेरे के चमकने की एक जगह होती है
वह जगह हत्या और दमन के घटते हुए समय में
आत्मा को दोफाड़ करती हुई
धँस जाती है—
प्रश्नवाचक और विलाप या शोक से भरे
विस्मयादिबोधक चिह्नों की तरह
अटकती हुई
खटकती हुई
जैसे कटार हो या भाला
उत्पीड़क की ओर भाँजा गया पैंतरा
या फिर सत्ताधीशों के ठहठहों का लोमड़पन
नालों के सिरों पर रेंगती हुई
जनसंख्या पर
थोपे गए प्रश्न
नालों से ही बहकर आते हैं पास
अवसरवादिता के दंभ और
पूँजीवाद की दुर्गंध से भरे
गिट्टी और डामर जैसी
कुचली हुई आबादियों पर
रोलर और बुलडोज़र चढ़ते आते हैं
भविष्य को बचाए रखने की
छिटपुट महत्त्वाकांक्षाओं को करते हुए सपाट
बने सरकारी यम के दूत
हरते हुए प्राण
भूख और दुत्कार से लड़तीं जिजीविषाओं के
भेड़िए अब उघाड़ से नहीं डरते
गिद्धों को मुर्दों की भीड़ के स्वप्न आते हैं
मार देने के नए फ़ाशीवादी तरीक़ों के
नेपथ्य में कुपोषित मंगलाचार
और नारों का पुष्ट बलाघात है
इसी किसी सोती हुई रात के
दूधफटे उजाले के बीच का
एक रतजगा मुँह फाड़कर चिल्लाता है—
जागते रहो! जागते रहो!
आदर्श भूषण की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। वह बहुत मन और लगन से संभव होने वाली सुगठित भाषा के धनी हैं। तत्समनिष्ठता जो कि इधर की हिंदी कविता का सबसे बड़ा दुर्गुण है, कहना न होगा कि आदर्श की कविताएँ भी इससे ग्रस्त हैं। वह अगर तत्सम के दुरुपयोग को सँभाल सके तो निश्चय ही अपने काव्यार्थ का और हिंदी कविता के वैविध्य का और अधिक विस्तार कर सकेंगे। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : हमारे दिल अपनी जगहें बदल लेंगे