कविताएँ ::
विमलेश त्रिपाठी
हमारा बस इतना ही महत्त्व था
हम यहाँ ईश्वर बनने के लिए नहीं आए थे
न हमें अमरता का वरदान चाहिए था
हम ऐसे भी नहीं थे
न कभी ऐसा होना चाहते थे
कि हमारा इतिहास लिखा जाए
हमारे सपने बहुत छोटे थे
हम हँसना चाहते थे
प्यार करना चाहते थे टूटकर
दोस्ती करना चाहते थे
हमें चहिए थी आज़ादी इतनी
कि हम रो सकें
नफ़रत कर सकें उनसे जिनने हमारे सपने तोड़े
हमारी भूख और बेबसी को भी
अपने फ़ायदे के लिए नीलाम किया
हम नहीं बनना चाहते थे महापुरुष
पुरुष भी नहीं ही लगभग
सारे विमर्श हमारे पेट के पहाड़ से टकराकर
दम तोड़ देते थे
हम तेजी से विलुप्त हो रही प्रजाति थे
जिसकी चिंता न सत्ता को थी
न साहित्य को
दर्शन में तो हम रहे बिल्कुल अछूते ही
हमारा बस इतना ही महत्त्व था
कि हम उन आदिम रास्तों
और संघर्षों की याद दिलाते थे
जिनके निशान हमारे माथे पर
ग़ुलामों की मुहर की तरह
सदियों से छपे थे।
हम हिंदुस्तानी
गुलाब को बहुत ज़माने पहले
हम एक फूल समझते थे
एक फूल जो हमारे हिस्से में नहीं था
हमारे पास सरसों के फूल थे
सहजन के फूल थे
लौकी और कुम्हड़े के फूल थे
यहाँ तक कि कई तरह की घासों के भी फूल थे
हमने फ़िल्मों में देखे गुलाब
उन्हें खिलते हुए नहीं
एक गुलाबी-सी लड़की को
एक ग़रीब और साँवले रंग के लड़के द्वारा
लाल चेहरे और काँपते हाथों से देते हुए
हमने अपनी कॉपियों में गुलाब के फूल नहीं
मोर के पंख रखे
खिलाया उन्हें पिनसिन का भूरा
कि वे एक से दो और दो से चार हो जाएँ
और… और हमारे मन पर छाया अंधकार
धीरे-धीरे रोशनी में बदल जाए
बीस की उम्र में पहली बार गुलाब ख़रीदा
एक तरह से पहली बार क्रांति की
और चार रात बिना सोए
गीली आँखों से कोसते रहे अपने पुरुष होने को
और एक ऐसे समय और दुनिया को
जब क्रांति एक हास्यास्पद शब्द था
प्यार आधुनिक कविता की ट्रिक थी
और प्रेमिकाएँ आधुनिक कवियों की तरह
काफ़ी व्यवहारिक हो चुकी थीं
क्रांति और प्यार दोनों ही
मूर्खों के हिस्से छोड़ दिए गए थे
हम मूर्ख थे
और ज़िंदा थे
अपने हाथों में गुलाब
और दिमाग़ में एक ज़रूरी जंग के समय
गाए जाने वाले गीत लिए
हमें तथाकथित मूर्ख कहलाए जाने पर शर्म नहीं थी
न कभी हम अपने गीतों पर संदेह कर निराश हुए
हमें सिर्फ़ दुख था
जो हर स्थिति में हमारे साथ था
कि इस धरती का एक आदमी भी
हमारे साथ खड़ा नहीं था
न कोई हाथ हमारी तरफ बढ़ा
हम अपने हाथों में गुलाब
और होंठों पर गीत लिए ही मरे
चुप
अलिखित
और उपेक्षित
और देखिए लेकिन
कि हमारे चेहरे पर शिकन तक नहीं थी।
कायरता के विरुद्ध
जबकि यह साबित हो चुका है
कि लोहे के बिना लोहा नहीं कटेगा
नहीं परास्त होगा विचार के बिना विचार
मैं चुप कैसे बैठ जाऊँ इंतज़ार करता
कैसे डपट दूँ
अंदर खलमलाते शब्दों को—
ख़ामोश
इस मिट्टी का नागरिक होने के नाते
मुझे तो करना ही होगा कुछ
मिट्टी हो जाने तक
बावजूद लोहे के भी
लड़ना तो होगा ही उम्र भर
कम से कम शब्द के
एक नाभिकीय विस्फोट के लिए
जो बेहद ज़रूरी है
जीवन के पक्ष में
और कायरता के विरुद्ध।
मैं सच का बच्चा हूँ
अगर उस मुल्क के तुम वज़ीर हो
जिस मुल्क में मेरा जन्म हुआ
जहाँ मेरे पुरखे रहे सदियों
अपने हाथ से हल की मूठ धरे
तो क्या तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाऊँ
जबकि मैं इस मुल्क को जानता हूँ
इसके इतिहास और भूगोल को जानता हूँ
सिर्फ़ इस भय से कि तुम्हारे पास फ़ौज है
असलहे हैं
और तुम्हारे पास अपनी पोसुआ जनता भी तो है
तुम्हारी हर बात पर जयकार करती
यह सोचकर कि तुम्हारे एक इशारे पर
मैं एक साबुत आदमी से तस्वीर बना दिया जाऊँगा
मैं भी तुम्हारा पोसुआ बन जाऊँ क्या
न कहूँ सच
हो जाऊँ और बहुत सारे लोगों की तरह गूँगा ग़ुलाम
नहीं वज़ीर
मैं सच का बच्चा हूँ
सच ही बोलूँगा।
जटिल कथा
डूब जाने दो
अतीत की कंदराओं में
गल्प का एक सूत्र
वहीं कहीं ज़रूर होगा
वही सूत्र
जानता है कि यह जटिल कथा
राजा और परजा की
तुम्हारे हमारे बीच की
कैसे पूरी होगी।
मैं लोकतंत्र बोल रहा हूँ
मैं अपने पिछले जन्म की कथा भूल चुका हूँ
भूल चुका हूँ सब कुछ
सिवाय इसके कि मेरी शक्ल
किसी जैविक तत्त्व से बहुत मिलती-जुलती थी
इस जन्म में चारों ओर अंधकार है
इतना अंधकार कि ख़ुद को टटोलकर देखना है
कि वह कौन-सा अंग है जिसके सहारे रेंगते हुए
रोशनी का कोई एक सुराख़ मैं खोज सकता हूँ
इस जन्म और समय में
मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती
ख़ुद को ठीक-ठीक और साबुत
ज़िंदा रखना है।
अपने हिस्से का जीवन
मैं यूँ ही नहीं हूँ इस दुनिया में
समय ने समय-समय पर
जो विष भरा है
उसे अमृत बना देने का काम
सहज तो नहीं ही है
वह तो करना ही है
इसलिए कि ख़ुद के सामने ही
खड़ा हो सकूँ तनकर
विष नहीं
अमृत-घट छोड़ जाऊँ
समय को समर्पित
एक देश में
अपने हिस्से का जीवन
एक अमृत-घट।
चुनौती
कौन पोंछेगा तुम्हारे आँसू कवि
किसके पास मरहम तुम्हारे अबूझ घावों के
क्या शब्द ही आसरा हैं
समय की भीषण बारिश और तूफ़ान बीच
ठहरने को कुछ देर
तुम्हें ख़ुद ही साफ़ करने हैं मवाद
अकेले रोना है
अकेले ही जश्न मनाना है
इस घातक और मायावी समय में
कविता तो सिर्फ़ एक छलावा है
ज़िंदगी का ताप
ख़ूब सच और खरा
उसके सामने खड़ा होना बेख़ौफ़—बेशर्म
यही सबसे बड़ी चुनौती मेरे अपने
मेरे मीत।
सत्य
अपने को सही साबित करने के लिए
तुम ख़ूब कहानियाँ गढ़ना
कर देना साबित मुझे
इस धरती का सबसे निकृष्ट जीव
तुम्हारी ईर्ष्या का यही खाद्य है बंधु
तुम्हारे अहं के कलंक को अच्छाई
और सत्य से नहीं धोया जा सकता
उसे तुम्हारे हृदय के विष ने पोषित किया है
तुम इस समय के दोस्त हो
प्रेम हो
और असंख्य लोगों के ईश्वर भी
मैं जानता हूँ कि तुम ही जीतोगे
हर बार जैसे जीत जाता है असत्य
मैं पराजित अपने सत्य की
गठरी के साथ धूल हो जाऊँगा
मैं मिट्टी हूँ
जीवन हूँ
जिसे रहना है अलक्षित
पराजित का कोई इतिहास नहीं होता बंधु
उसके हिस्से के अँधेरे में ही चमकना तुम
मैं ख़ुश हूँ
मैं अँधेरा हूँ
जिसको चीरकर चमकेगा तुम्हारा प्रतिशोध
तुम अमर हो जाना
मैं सदियों इंतिज़ार करूँगा
उस सत्य का जिसके सपने ने
मुझे आदमी बनाया।
हर बार मैं ही हुआ विदा
हर बार मैं ही हुआ विदा
भीड़ से दूर एक आकृति की तरह
एक सुनसान रास्ते से
बूढ़े क़दम लौटता
लोग करते रहे ज़रूरी बातें
दोस्तियाँ संबंधों में बदलती रहीं
कोई किसी का भाई था
कोई किसी का प्रेमी
विचार और ईर्ष्या दोनों के चेहरे
एक से दिखने लगे थे
उनकी अपनी दुनिया
जिसमें ज़रूरत की बड़ी भूमिका थी
उनके अपने तर्क थे
अपने भगवान पिता
वे एक परिवार थे
वे ज़रूरत के हिसाब से रोते-हँसते-गाते थे
उन्हें हम जैसे लोगों को देखकर
ख़ुश होने की हिदायत थी
वे ख़ुश रहते थे
उन्हें ख़ुश रहने की बीमारी थी
मैं एक मामूली अलबटाह आदमी
एक भरोसे की सूत पर ज़िंदगी काटता
हर बार मैं ही कटा एक बच्चे की पतंग जैसे
हिलता रहा एक उपेक्षित खंभे के तार से लगा
मौसम की पहली बारिश की प्रतीक्षा में
हर बार मैं ही गला
मिट्टी हुआ
इतिहास में दर्ज है एक बुझी हुई आँख
एक समय जो सिर्फ़ तुम्हारे नाम का हुआ
एक क्रोध जो तुम्हें लुभाने के लिए हुआ
एक कच्चा प्रेम जो तुम्हारी
पीली साड़ी के लिए कालिख हुआ
इस एक जीवन में इतनी बार विदा हुआ
कि मेरे चेहरे पर उग आया एक ग़ुलाम
विदा
मेरी मह्त्त्वाकांक्षा यही कि
मैं एक मुकम्मिल आदमी का साथ चाहता था
लेकिन कह रहा विदा
लौट रहा अकेले
अपने हारे हुए ईश्वर की तरह
एक टिमटिमाती लौ के काँपते अँधेरे में।
विमलेश त्रिपाठी (जन्म : 1979) हिंदी के सुपरिचित-सम्मानित कवि-कथाकार हैं। उनके अब तक पाँच कविता-संग्रह, दो उपन्यास, एक कहानी-संग्रह और एक आलोचना की पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। वह कोलकाता में रहते हैं। उनसे drbimleshtripathi1974@gmail.com पर बात की जा सकती है।