कविताएँ ::
विवेक भारद्वाज

विवेक भारद्वाज

जनता

जनता भेड़ है
उसके ऊन से पींजे जाते हैं
चढ़ाई के रस्से
और शहीदों के कफ़न
मरना भी उसी को है
भरना भी उसी को

उसे ही बजानी हैं तालियाँ
थालियाँ
अपनी कोख, अपनी आग, अपनी औलाद,
अपनी धरती, अपनी मिट्टी, अपनी संपत्ति,
अपनी संतति की बर्बादी पर

बला का तमाशा है
अपना ही घर जलाना है
और आप ही मुस्कुराना है

शासक की मजबूरी हो सकती है—
युद्ध
जनता की प्राथमिकता नहीं।

सो जाता हूँ

बहुत ग़ुस्से में होता हूँ
तो सो जाता हूँ
थका होता हूँ—
उदास या भयभीत
तो सो जाता हूँ

सो जाता हूँ
लंबी यात्रा से पहले
किसी महाभारत के बाद
हिक़ारत के बीच
कहीं जूझने से पहले
काफ़ी देर ऊँघने के बाद
सो जाता हूँ

ग़लती करने के बाद
क्षमा माँगने से पहले
किसी को देना हो गच्चा
या किसी बात का धचका
तो सो जाता हूँ

छोटी हारों,
बड़ी शिकस्तों के दरमियान
सोता हूँ कुछ देर
समझौते से पहले
और धोखा खाने के बाद
बड़ा फ़ैसला लेना हो तो
एक बार सो कर देखता हूँ

हर बार जागने से पहले
सोया होता हूँ
अभी कुछ दिनों से
सो रहा हूँ
जागूँगा तो
ख़ुद से ही भिड़ूँगा—संभवतः।

पहाड़ के ही बारे में

दूर
कोसों दूर भागती है
हर चीज़ पहाड़ से—

बर्फ़ की पिघलन
वर्षा का जल
जंगल का सारा मल
तराई में आकर ठहर जाते हैं
किनारों पर खादर
और तटों पर लोग।

पहाड़ शापित है
उसका कुछ भी प्रिय नहीं रहता
उसके समीप।

उसे सहना होता है वियोग—
अपनी संपत्ति, संतति और संस्कृति का।

गुरुत्व बल हो शायद
या मैदानों की अथाह, अनंत तृष्णा—
पहाड़ों में उगा फल
हाटों में बिकता है
और पहाड़ी फूल मज़दूर चौक पर।

किसी न किसी बहाने
कभी न कभी
सब उतर ही जाते हैं पहाड़।

पीछे रह जाता है—
निर्जन, अकेला, ख़ाली, ख़ामोश मकान,
वृद्ध, बीमार, खाँसती पीढ़ी
और सिकुड़ती पगडंडियाँ।

विरहित, अभावग्रस्त, तनाव में कूढ़ता गाँव,
शंकित, आशंकित पहाड़,
अवाक् जंगल,
वे सभी जो नहीं हिल सकते
अपनी जगह से—
एक अन्य शाप के चलते।

पहाड़ से उतरती हर चीज़
पलट देती है पत्थर पहाड़ की ओर
जिसे वे भूलकर भी लाँघना नहीं चाहते।

वे भुला देना चाहते हैं—
आरोह की कला।

नदी तो फिर भी लौट आएगी बरखा बनकर,
आटा बन कर लौटता है खादर,
मगर कभी पाहुने बनकर भी नहीं लौटते बेटे।

वे इतना नीचे उतर आते हैं,
उतरते-उतरते
जहाँ से त्रिशूल नज़र आता है—
जीवंत पहाड़
जिसे वे महज़ माथा टेककर
रोप देना चाहते हैं
अपने बच्चे के संस्कारों में।

इतवार

कल इतवार है
हम बच्चे थे
तो सोचते थे
सोएँगे देर तक
और सोते थे

अब सोचते हैं
कल इतवार है
जागेंगे देर तक
और जाग नहीं पाते

बनिस्बत
सो जाते हैं सोचकर—
कल जल्दी जागेंगे
जो रह गया है भागना
भागेंगे

और भागते हैं—दूर तक

सारा दिन
सभी वारों की जूठन
साफ़ करने में निकल जाता है

अतीत का सुख
एक मुस्कान बिखेरकर
लौट जाता है
अतीत में

वर्तमान में होने की तोहमत से
हम भूत होते जाते हैं।

दो

एक दिन—दो पुरुष मिले
और सारी दुनिया अस्त-व्यस्त हो गई।

एक दिन मिलीं—दो औरतें
वे सारी दुनिया के सारे दुःख सामने रखकर
रोने लगीं।

यूँ ही एक दिन—
एक स्त्री और एक पुरुष मिले—
दुनिया फिर से सँवरने लगी
सारे दुःखों पर पड़ने लगी मिट्टी

इस मिट्टी पर उन्होंने स्ट्रॉबेरी उगाई।

ज्योग्राफिया

ज्योग्राफिया की किताब में लिखा है
जहाँ मैं बैठा हूँ
यहाँ कभी समंदर था
फिर पीछे से एक धक्का आया
धरती उचट गई
एक पहाड़ उभरा
एक शृंखला बनी
जो अभी भी उभर रही है
दुनिया के नवीनतम पर्वत के रूप में

मज़हबी लोग कहते हैं कि
वह धक्का उनके प्रभु ने लगाया था

ज्योग्राफिया की किताब में लिखा है
एक बड़ा विशाल पिंड था
ब्रह्मांड में उड़ता हुआ
बिग-बैंग हुआ
सौर मंडल का निर्माण हुआ
वर्षों-वर्ष अज्ञात रहा
बंजर था सब
बर्फ़ का युग बीता
बारिशों के बाद फिर जीवन उपजा
वानर से उपजे मानव

मज़हबी कहते हैं कि
वह धमाका उनके जी प्रभु ने किया था

वही कर रहे हैं
प्रकाश-संश्लेषण भी

ज्योग्राफिया की किताब में लिखा है
बहुत कुछ सूरज के बारे में
तारों के बारे में
मंगल-शुक्र के बाबत
और यह भी कि सूर्य एक तारा ही है
और तारों से इतर चाँद पर
बसाई जा सकती है बस्तियाँ

ज्योग्राफिया की किताब में
नहीं लिखा है कुछ भी
प्रभु के बारे मे
इसीलिए मज़हबी लोग नहीं पढ़ते ज्योग्राफिया।

मैं

हज़ार प्रकाशवर्ष दूर
किसी उल्का पर भ्रमण करते
देख रहा हूँ
ब्रह्मांड शून्य में फटी आटे की बोरी है
इसमें
एक कण मात्र है
पृथ्वी
इस इतनी सूक्ष्म पृथ्वी पर रहता है
धरती से भी बड़ा मनुष्य
और मनुष्य के भीतर बैठा है
ब्रह्मांड से भी बड़ा
मैं।

कविता

कवि कविता नहीं बुनता
कविता चुनती है अपना कवि

उम्र मायने नहीं रखती
अहमियत रीढ़ की है

जैसे हल्की शाख़ पर
नहीं बैठता बाज़
वैसे ही भारी कविता
कमज़ोर रीढ़ पर नहीं उतरती।


विवेक भारद्वाज [जन्म : 1982] की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। इससे पूर्व उनकी कविताएँ हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाली कुछेक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। वह सिरमौर के संगडाह तहसील के ग्राम ऊँचा टिक्कर के रहने वाले हैं और अध्यापन से जुड़े हैं। उनसे vivekdeep.bhardwaj@gmail.com पर संवाद संभव है।

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