गद्य ::
मोनिका कुमार

मोनिका कुमार

मैं तैयार हूँ

धनंजय से मैंने मन में यह जिज्ञासा रखते हुए परिचय किया था कि मैं जानना चाहती थी : मिलने-जुलने और बरतने के स्तर पर ट्रांसजेंडर कैसे होते हैं। मैंने बहुत दिनों तक उसकी फ़ेसबुक सक्रियता देखी थी सो मैं उसके जीवन, व्यक्तित्व और सरोकार को थोड़ा समझने लगी थी। बौद्धिक स्तर पर मेरे मन में ट्रांसजेंडर के प्रति केवल स्वीकार्यता ही नहीं, बल्कि उनके संघर्ष में हिस्सा बनने की इच्छा भी थी। लेकिन धनंजय चौहान से मिलने से पहले मेरी दोस्ती किसी ट्रांसजेंडर से नहीं थी, यह एक दूर का रिश्ता था और इस दूर की इच्छा को मैं निकट अनुभव की तरह देखना चाहती थी। दूर से जानने और दोस्त बनने की यात्रा में बहुत उधेड़बुन होती है और अज्ञान की दीवारें भी इस प्रक्रिया में ध्वस्त होती हैं। मैं मानसिक रूप से उन दीवारों को एक यथार्थ स्थिति में तोड़ने के लिए उत्साहित थी, क्योंकि असमानता और अन्याय के उदाहरणों से भरे हुए भारतीय समाज में अब तक जब भी इस तरह की फ़र्ज़ी दीवारें टूटने का मुझे अपने जीवन में अनुभव हुआ था, वह शानदार था क्योंकि उसके बाद मैंने हमेशा अधिक आज़ाद और बहादुर महसूस किया है।

मैं एम. ए. की क्लास में अपने विद्यार्थियों के साथ ‘जेंडर स्टडीज़’ पर एक लेख पढ़ रही थी, जब किन्नरों की बात चली तो मैंने उनसे पूछा कि जब मैं और आप स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे या पढ़ रहे हैं तो हमारी उम्र के किन्नर बच्चे कहाँ थे और क्या कर रहे थे और अभी भी वे कहाँ हैं। एक पल के लिए हम सब चुप हो गए, क्योंकि हमारे पास कोई जवाब नहीं था।

यह मौन शर्मिंदगी की वजह से नहीं था, बल्कि हम तथ्य के रूप में यह बात नहीं जानते थे किसी शहर में किन्नर कहाँ रहते हैं। वे स्कूल में क्यों नहीं थे, वे हमारे पड़ोसी क्यों नहीं थे, और ज़ाहिर है कि हमारे खेल के मैदानों में तो नहीं ही थे। हम दिन भर जहाँ थे, वे वहाँ नहीं थे, वे बसों और ट्रेनों में थे; लेकिन सहयात्री के तौर पर बहुत कम थे। वे बसों में भीख माँगते थे। पर वे सिग्नल पर और बसों-गाड़ियों में भीख क्यों माँग रहे थे। क्या यह किन्नरों का दोष था कि वे डॉक्टर नहीं थे, प्रोफ़ेसर नहीं थे, हलवाई नहीं थे, प्लंबर नहीं थे और यहाँ तक कि लोगों के घर में कपड़ों की धुलाई नहीं कर रहे थे, किसी के घर की पुताई नहीं कर रहे थे और किसी के यहाँ खाना भी नहीं बना रहे थे। क्या किन्नरों की बौद्धिक क्षमता कम होती है, क्या वे अपनी मर्ज़ी से ताली फेंट कर लोगों से बधाई या भीख माँगने लग पड़े? उस दिन हमें क्लास में यह समझ आया कि समाज से कटा हुआ मनुष्य और समुदाय इसी समाज में रहता हुआ भी बहुत अकेला और असहाय होता है। समाज से कटा हुआ समुदाय मुख्यधारा के समाज की स्मृति और उसकी फ़िक्र का हिस्सा नहीं होता।

मैंने जब मिलने का वक़्त माँगा तो धनंजय ने मुझे एक पार्क में मिलने के लिए बुलाया। मैं अपने साथ नोटबुक ले गई कि शायद हम इंटरव्यू के लिए कुछ बात कर सकें। मैं पहुँची तो धनंजय के साथ और लोग भी थे जिनके साथ मिलकर वह चंडीगढ़ में मार्च में होने वाली ‘प्राइड वॉक’ की तैयारियाँ कर रही थी। धनंजय ने मुझे मिलवाया कि ये लोग हमारी कम्युनिटी से हैं और यह हमारे ally ( सहयोगी) हैं। मैंने उस महफ़िल में तुरंत अपने आपको उनके सहयोगी के तौर पर नियुक्त कर लिया।

धनंजय बहुत थकी हुई थी। वह अपनी तमाम योजनाओं पर बात कर रही थी, जिनके अंतर्गत वह सरकारी या ग़ैर-सरकारी संस्थाओं के सहयोग से ट्रांसजेंडर लोगों के लिए शिक्षा, रोज़गार और सुरक्षा के अधिकार सुनिश्चित करना चाहती है। धनंजय किन्नरों के डेरों के माहौल से बहुत क्षुब्ध थी, क्योंकि उसका मानना है कि जब तक ये डेरे रहेंगे तब तक ट्रांसजेंडर लोग मुख्यधारा से नहीं मिल सकेंगे और शिक्षा और रोज़गार के अवसरों से भी वंचित रहेंगे… क्योंकि समाज से कटे हुए इन डेरों में नशाख़ोरी, एड्स और आत्महत्या जैसी बीमारियाँ और प्रवृत्तियाँ आम हैं। मैं छह-सात ट्रांसजेंडर स्त्रियों के बीच सहज हो रही थी और उनके साथ संवाद करने के साथ-साथ अपने भीतर सोच रही थी कि क्या सच में ट्रांसजेंडर लोग मेरे जैसे हैं। उनका शरीर, उनके कपड़े और उनकी भंगिमाएँ देखकर मुझे अचरज हो रहा था कि धनंजय किसी बात के बीच में ही यकदम बोलने लगी :

‘‘क्या होता है ट्रांसजेंडर! किस बात का हौव्वा है ट्रांसजेंडर के बारे में? मैं कौन हूँ? मैं एक स्त्री हूँ—woman with a penis.’’ उसके कहने से मेरा अचरज कुछ मद्धम हो गया, क्योंकि जिसे मैं जानना चाह रही थी—वह यही बात थी, लेकिन उस पल के बाद मुझे यह नहीं समझ आ रहा था कि उसे स्त्री और पुरुष के समाजनिर्मित संकल्प से जुदा उसकी अपनी इयत्ता को समझने और स्वीकार करने का मेरा क्या संघर्ष होगा। यह कैसी दुविधा थी कि विमर्शों की बारीकियाँ न समझ पाने की स्थिति में मैं मानवाधिकारों के आलोक में अक्सर उलझे हुए आख्यानों को समझ लिया करती हूँ कि जब कोई सिरा न हाथ लग रहा हो तो किसी भी मनुष्य को मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में देखो, क्योंकि इस परिप्रेक्ष्य में देखने से हमें तुरंत अन्याय, उत्पीड़न और शोषण की जगहें दिख जाती हैं; जिनका विरोध करके और संघर्ष करके उन्हें ठीक करना होता है, लेकिन यहाँ मुझे सबसे पहले अपने मन और स्मृति में एक बिल्कुल नई जगह बनानी थी। मुझे अपने बरसों के अभ्यास और समझ को आगे बढ़ाना था कि शरीर और मन के रिश्ते इकहरे नहीं होते, स्त्री का मतलब सिर्फ़ योनि और स्तन नहीं है और शरीर में सिर्फ़ यह होने से भी कोई स्त्री नहीं हो जाता, उसी तरह किसी के शरीर में अगर शिश्न हो तो ज़रूरी नहीं कि वह पुरुष की तरह महसूस करे और शिश्न होने की वजह से वह सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित तरीक़ों से प्रेम करने और सभी संदर्भों में अन्य पुरुषों की तरह व्यवहार करने के लिए बाध्य हो जाए।

धनंजय

बच्चे पैदा करना यौन का एकमात्र ध्येय नहीं है, यह विचार कि केवल वही यौन और वही यौनिकता वैध है जिसकी परिणीति बच्चों के रूप में समाज को आगे बढ़ाना हो, यह केवल उपयोगितावाद के विचार की पराकाष्ठा है; जिसके अंतर्गत हम इस सृष्टि की सभी चीज़ों से लेकर मनुष्यों की भावनाओं और यौनिकता को भी एक उत्पाद बना देना चाहते हैं जिसे हम उत्पाद की तरह इस्तेमाल करके कुछ स्पर्शनीय वस्तु हासिल कर सकें जिसकी हमारे जीवन में पहले से तयशुदा भूमिका हो। फ़्रांस के दार्शनिक, इतिहासकार और चिंतक मिशेल फूको ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुअलिटी’ में यूरोप के संदर्भ में समयौनिकता के इतिहास को देखते हुए यही स्थापनाएँ कीं। दुनिया के अधिकतर समाजों में समाज के आर्थिक और कथित सांस्कृतिक विकास होने के साथ-साथ समयौनिकता का भी अपराधीकरण होता गया, क्योंकि मंतव्यों और साधनों के अधिकाधिक प्रयोग से अधिकाधिक उत्पादन करने के सिद्धांत से देखने पर दो गे लोगों का प्रेम-संबंध या दो लेस्बियन स्त्रियों के प्रेम-संबंध को बड़े आसान तर्क से अप्राकृतिक ठहराया जा सकता है।

‘क्वियर विमर्श’ पर मैंने जो भी पढ़ा था, धनंजय और अन्य ट्रांसजेंडर लोगों से संपर्क और मुलाक़ात के बाद मुझे ज़्यादा समझ आया, बल्कि पढ़े हुए पर अमल कर पाना इस संपर्क के बग़ैर संभव नहीं था। मैंने किसी बच्चे को जन्म नहीं दिया है, लेकिन मैंने अपने आपको स्त्री के रूप में कभी अधूरा नहीं महसूस किया, पर यौनिकता की विविधता और क्वियर की विभिन्न संभावनाओं को मैंने जब धनंजय के हवाले से समझा तो मुझे यह विचार बहुत क्रांतिकारी लगा कि यौनिकता को उपयोगितावाद की नज़र से नहीं देखना चाहिए। दिल में ख़्वाब जग गया है कि क्या यौन और यौनिकता को लेकर भारतीय समाज कभी धार्मिक रूढ़ियों या अज्ञानता से पोषित विचारों को छोड़कर एक आज़ाद और असली समाज बन सकेगा! न्याय की अवधारणा मनुष्य की गरिमा का मर्म है। और इस लिहाज़ से भारतीय समाज के सामने यौन और यौनिकता के आधार पर की गई अवहेलना, उपेक्षा और अन्याय को ख़त्म करने का संघर्ष खड़ा है जिसे अब टाला नहीं जाना चाहिए।

यह बात मुझे अश्लील लगती है जब सुविधाभोगी समाज के बीच उत्पीड़ित वर्ग के उत्पीड़न की बात चल रही हो तो कोई सुविधाभोगी उठकर हज़ारों, लाखों और करोड़ों की संख्या वाले दलितों, स्त्रियों और ट्रांसजेंडर नागरिकों में से सामाजिक रूप से सफल हुए कुछेक लोगों की उदाहरण देते हुए विमर्श को अप्रासंगिक मानता हुआ कहता है कि अब समय बदल गया है, अब पहले जैसा पक्षपात नहीं रहा। मेरा अनुभव है कि हर सुविधाभोगी भारतीय के व्यवहार में अश्लीलता है और वह जब-तब अपने दंभ और अज्ञानता से संचालित होकर पश्चाताप, आत्मचिंतन और परपीड़ा को समझने के अवसरों को भ्रष्ट और नष्ट कर देता है। भारतीय समाज के मुख्यधारा समाज में जिस तरह आत्मालोचना के क्षणों को दरवाज़े से धक्का मारने की विधि रूढ़ हो गई है, वह हर दिन इसे स्वस्थ समाज बनने की प्रक्रिया से दूर करती है।

उधर धनंजय मुझे बता रही थी कि बहुत सारे ट्रांसजेंडर लोग मिलकर एक संस्था बना रहे हैं जिसमें वे केवल अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष को ही केंद्र नहीं बनाएँगे, बल्कि पर्यावरण-संरक्षण के लिए भी सहयोग करेंगे क्योंकि ‘‘हम लोग भी इसी हवा में साँस लेते हैं और इन्हीं नदियों का पानी पीते हैं सो हम लोग सिर्फ़ आत्मकेंद्रित न होकर प्राकृतिक संसाधनों को बचाने में सहयोग करना चाहते हैं।’’ शायद अब समाज में करुणा और सद्भावना केवल वंचित और उपेक्षित वर्ग में बची है? मुख्यधारा का समाज क्या करता है कि सदियों से शोषित और पीड़ित लोगों को जीवन के अवसरों के दायरे में लाया जाए और उससे भी पहले उन्हें मन से स्वीकार किया जाए, और उपेक्षित समुदाय क्या नहीं करता कि वह भी इस दुनिया का हिस्सा बन जाए।

धनंजय ट्रांसजेंडर समुदाय की वक्ता है। कुछ वर्ष पहले मैंने उसके बारे में सुना था कि वह पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ की पहली ट्रांसजेंडर स्टूडेंट है और वहीं स्टूडेंट रहते हुए उसने व्यापक स्तर पर लोगों में ट्रांसजेंडर समुदाय के जीवन-संघर्ष को समझाने का अभियान भी चलाया। यूनिवर्सिटी में ट्रांसजेंडर के लिए अलग से शौचालय बनवाने की माँग भी धनंजय के प्रयास के आधार पर प्रशासन ने पूरी की।

आर्थिक असुरक्षा से परेशान रहते हुए भी धनंजय सारा दिन लोगों में व्यस्त रहती है। स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ट्रांसजेंडर से जुड़े मुद्दों पर आयोजित आंदोलनों, गोष्ठियों और प्रदर्शन में भाग लेती है। धनंजय की हालत यह है कि वह धाराप्रवाह बोलती रहती है, समझाती रहती है कि यौन और यौनिकता में क्या फ़र्क़ है, गे और ट्रांसजेंडर पुरुष में क्या भेद है, किन्नर कौन होते हैं… ये सभी व्याख्याएँ वह इस अंदाज़ से बताती है जैसे उसके अंदर यह सब रिकॉर्ड की तरह अपने आप बज रहा है। धनंजय इतना क्यों बोलती है, रोज़ फ़ेसबुक पर लंबे-लंबे पोस्ट्स लिखती है, फ़ोटो लगाती है, कभी अपने गाए गीतों के वीडियो लगाती है, लोगों को धन्यवाद देती है जो उसे ट्रांसजेंडर अस्मिता-संघर्ष पर बोलने के लिए बुलाते हैं, जो संस्थाएँ उसका सम्मान करती हैं, उसे विशेष अतिथि की तरह आमंत्रित करती हैं।

धनंजय के सभी दिन इसी उद्देश्य को समर्पित हैं कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए भी जीवन के अधिकार सुनिश्चित हों। लेकिन धनंजय का ज़ोर इसलिए भी अधिक लग रहा है, क्योंकि क्वियर समुदाय के लोगों के आंतरिक संघर्ष भी बहुत है, मतभेद भी हैं और दूसरा यह कि एक अल्पसंख्यक समुदाय अपने अधिकारों के लिए लगभग साधनहीन परिस्थिति में बहुसंख्यक समाज से लड़ रहा है जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से उस अल्पसंख्यक समुदाय से कहीं अधिक शक्तिशाली है। जबकि एक जीवित समाज में अन्याय को मिटाने की चेष्टा उस बहुसंख्यक समाज की ओर से अधिक होनी चाहिए जिनकी पूर्णत: अवैज्ञानिक धारणाओं के चलते यह समुदाय सदियों उपेक्षित रहते हुए सम्मान के जीवन से अब तक वंचित रहा है।

पार्क में हमारी मुलाक़ात के बाद धनंजय ने मुझे एक दिन फ़ोन किया कि वह मुझे घर मिलने आएगी। रात का समय था तो जब वह आई तो खाने का वक़्त भी हो गया, धनंजय जब खाना खा रही थी तो मैं यह सोच रही थी कि इससे पहले मेरे घर में कभी कोई ट्रांसजेंडर मेहमान नहीं आया। मैं अपने मन को बार-बार टटोल रही थी कि क्या मुझे कुछ भी अजीब लग रहा है… अजीब नहीं लग रहा था, पर मुझे इस दोस्ती की तरफ़ बढ़ते छोटे-छोटे मज़बूत क़दम अच्छे लग रहे थे। धनंजय जैसे-जैसे मेरे घर की चीज़ों को स्पर्श कर रही थी, बर्तन छू रही थी, खाना खा रही थी, वह मेरे लिए और वास्तविक हो रही थी। उस दिन मुझे लगा कि हमारे बीच की दूरी स्पर्श की दूरी भी है, शायद इसी वजह से समाज में किसी के साथ चाय पीने का मतलब सिर्फ़ चाय पीना नहीं होता… इस ‘ब्रेड ब्रेकिंग’ से मैं और खुल गई थी। मैं woman with a penis के साथ एक आत्मीय संबंध बनाना चाहती हूँ—इतना सहज और आत्मीय—जैसा दोस्तों में होता है। उस दिन न मैं उस संघर्ष से पूरी तरह उबर चुकी थी और न ही उस संघर्ष से भागना चाहती थी। धनंजय ने मुझे बताया कि पहले अपने लिए और फिर परिवार के लिए उसका अपने ट्रांसजेंडर होने को स्वीकार करना कितना कठिन था। वह अपने यौन-शोषण की बातें निरपेक्ष होकर बता रही थी, जैसे ट्रांसजेंडर की आज़ादी का रास्ता इस शोषण की यातना के बग़ैर संभव नहीं था; पर सवाल यह है कि वह क्यों संभव नहीं था।

मेरे पूछने पर कि तुम कहाँ रहती हो। उसने बताया कि उसने इस तमाम झंझावात में भी घर नहीं छोड़ा, क्योंकि वह मानती है कि घर से भागना कोई हल नहीं है और एक ट्रांसजेंडर बच्चे का भी घर पर दूसरे बच्चों की तरह बराबर हक़ होता है। उसने बताया कि उसकी धुन और दृढ़ निश्चय के सामने अब घरवाले ज़्यादा मुखर विरोध तो नहीं करते, लेकिन भावुक होकर उसे बहुत बार कहते हैं कि तुम पहले जैसे बन जाओ, जब तुम लड़कों की तरह कपड़े पहनते थे। ट्रांसजेंडर बच्चों के परिवार के लिए ट्रांसजेंडर बच्चे को स्वीकार करना इसलिए अधिक मुश्किल है, क्योंकि परिवार पर बाहरी समाज का बहुत दबाव है जो किसी दम्पति से सिर्फ़ लड़का-लड़की के पैदा करने की ही अपेक्षा रखता है।

हमें बातें करते हुए लगभग ग्यारह बज गए और जब घर जाने के लिए धनंजय अपने स्कूटर को स्टार्ट कर रही थी तो मैं उसे अपनी छत से देख रही थी। मैं धनंजय के जीवन के संकट और संघर्ष के बारे में नहीं, बल्कि अपने संकट और संघर्ष के बारे में सोच रही थी कि मुझे इस संघर्ष की हर असहजता का सामना करना है। धनंजय स्कूटर स्टार्ट करके निकल गई और मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपने मन में दोस्ती, प्रेम, सहयोग और सहजीवन की नई जगह बनाने के लिए तैयार हूँ।


मोनिका कुमार हिंदी की सुपरिचित कवयित्री और अनुवादक हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक में पूर्व-प्रकाशित।

1 Comments

  1. yogesh dhyani जून 16, 2021 at 12:17 अपराह्न

    Sadiyon se hashiye par rakhe hue vishay jise kuch gine chune log yada-kada utha kar apni jimmedari nibha maan lete hain, us par aapka unki taraf ek nirantar badhta hua hath dekhna sukhad hai. Aapka yah sanchipt tatha saargarbhit aalekh is taraf ishara karta hai ki aap sirf un gine chune logon me nahi, balki ek sthayi samajsudharak ki tarah is warg ke hiton me kaam kar rahi hain.
    Dhananjay tatha unke jaise tamaam log jo apni pahchan ke liye prayas kar rahe hain, unhe meri agrim shubhkaamnayen.

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