की ह्योंग दो की कविताएँ ::
कोरियन से अनुवाद : प्रत्यूष पुष्कर

की ह्योंग दो

पुरानी किताब

मेरा जी लेना
एक आश्चर्य के सन्निकट है
इस शाश्वत समानार्थ के लिए मैं खोटा ही था
कैसे मैं अपने जीवन-अनुमान लगा सकता हूँ
एक सीली अँधेरी दुनिया में

एक ऐसी व्यवस्था में—
जहाँ कोई एक कोशिश भी नहीं करता मेरी ओर,
रिक्त आशा से देखने की,
बाक़ी लोग जल्दबाज़ी में एकाध प्रकरण उठाते हैं
और एक-दूसरे के कृत्यों से घृणित होकर
अपने बुकमार्क्स मुझमें ठूँस देते हैं
बाक़ी कहते हैं कि मेरा जीवन बहुत आसान रहा है
कि मुझे चाहिए और गाढ़ी-मोटी स्मृतियाँ

क्या सघनता सच में एक समस्या है—
अगर पूर्णता आपका लक्ष्य हो तो?
मैं कई बार घूमा हूँ, अलग-अलग जगहों पर जिया हूँ,
लेकिन मृत्यु के बारे में सोचा भी नहीं है
मेरा करियर केवल मेरे जन्म से है। क्यों?
क्योंकि भय मेरा एक हिस्सा है
और क्योंकि भविष्य मेरा भूत है
क्योंकि मैं हूँ इसीलिए वहाँ देखो,
साहस कितनी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना चीज़ है

हर उस इंसान ने जिसने कभी भी मेरी तरफ़ देखा
मुझे छोड़ा, मेरी आत्मा ज़्यादातर सियाह पन्ने हैं,
कौन मुझे कभी भी खोलेगा?
लेकिन फिर ऐसे में उनके पास कोई अधिकार नहीं है—
असत्य-विमर्श का
झूठ और सच एक ही उद्देश्य का स्वप्न देखते हैं
और उन्हें एक ही पंक्ति में ढूँढ़ा जा सकता है

मैं चमत्कारों पर विश्वास नहीं करता।

10 अक्टूबर

एक

कभी-कभार मैं एक छोटी-सी परछाईं बन जाता हूँ
और धीरे-धीरे टहलता हुआ
एक जंगल में काली दुपहर में घुस जाता हूँ
जहाँ बिखरी हुई परछाइयाँ
एक जगह एकत्रित होती हैं

मेरे ख़ाली हाथ में पतझड़,
आसानी से चुप,
वलयाकार सख़्त हवा पकड़ता है
और एक क्षण को महसूस करता है
पेड़ों को हमेशा लगता है कि यह आख़िरी बार है
और वे अपने छोटे पत्ते गिरा देते हैं
पर अब मेरी आशाएँ कुछ ऐसी हैं ही नहीं

जब घना अँधेरा छाता है सभी स्मृतियाँ
यकायक भयावह बन जाती हैं
मेरे पीछे अटल कराल शक्तियों द्वारा खदेड़ी जाती हैं

मैं अपने मौन की बाती और हौले कर लेता हूँ
और धूप सेंकते
हवा में पत्तों की संख्या जितना सियाह
मैं अपने अँधेरे के बारे में विस्तार से सोचता हूँ
कहीं से तितर-बितर धुएँ का झुंड चला आता है
और एक गंदला टीला बनाता है,
मेरे यौवन की उन शामों के कारण
जो बिना किसी अपवाद के पुनर्जीवित होती रहती हैं

कभी मेरा जीवन केवल एक निराशा था
और अब उस निराशा के विषय भी मैंने खो दिए हैं
मैं अपने जीवन के किसी एक हिस्से को भी नहीं जानता हूँ

परती का स्वाद जानतीं पत्तियाँ
बेहोश होकर मेरी निकम्मी ख़तरनाक एड़ियों के पास गिरती हैं
ओह, कैसे प्रेम की स्मृतियाँ मृत्यु का पक्ष ले लेती हैं
लेकिन उस अक्टूबर वन ने जिससे मुझे प्रेम है
कभी भूल नहीं की।

दो

जब मैं नींद से उठता हूँ तो
मेरे तकिए के नज़दीक मोमबत्ती की रौशनी ग़ायब हो चुकी होती है,
बस एक ख़ाली बोतल सख़्त सफ़ेद कपड़े पहने मुझे रिक्त ताकती है।

उस दिन

गर्मी की एक धुँधली सुबह बारिश की बूँदें पुरानी खिड़की के बीच की दरारों से धमकती हुई प्रवेश करती हैं। अँधेरे कमरे के बीचोबीच जिम पैकिंग कर रहा है। बक्से को मिली पहली चीज़ जिम की आत्मा है। कोई भी खिड़की से भीतर नहीं ताक रहा है।

दो दिन पहले जिम ने आख़िरकार अपनी नौकरी छोड़ दी। भावशून्य चेहरे से जिम एक क्षण के लिए बिस्तर को देखता है। बिस्तर जिसे सब कुछ मालूम है, चुप है। आख़िरकार मैं मुक्त होऊँगा, जिम ख़ुद से बुदबुदाता है, और आख़िरकार वह पूरी दुनिया का केंद्र बन जाता है।

मैं हमेशा के लिए उन सड़कों का त्याग कर दूँगा, जिन्होंने अपने साथ मुझे घसीटा है। मेरे जीवन का नेतृत्व अब मेरे दिल से मेरी देह को चला गया है, और अब मैं एक लंबी, सुदूर यात्रा पर निकलूँगा। हर गुज़रती सड़क के साथ मैं विचित्र उत्साहों और भय से भर जाऊँगा, और ऐसे ही कोई ग्लानि फिर कभी मेरी जिह्वा पर शासन नहीं कर पाएगी।

अपने सारे संदेहों को बक्से में भरता हुआ जिम सब कुछ इकट्ठा कर लेता है। इस धुँधले गर्म सवेरे खिड़की के बाहर दिखती वह गीली सड़क भी बिस्तर के जितनी ही चुप है। अंतत: दरवाज़ा खुलता है, गलियारे में एक खोखली चिंघाड़ के साथ।

एक पल को जिम सड़क की तरफ़ देखता है; भावशून्य। जिम हौले से हैंडिल नीचे रख देता है, अंत में, उसकी उम्मीदें और क़दम दोनों गिर पड़ते हैं। उसी क्षण वह बक्सा जिम को ऐसे गिरा देता है जैसे कच्चा लोहा। उसी जगह से फिर किसी लड़की की पतली चीख़ निकलती है। आस-पास कोई नहीं है। बारिश की बूँदें गरजती हुई गिरती हैं एक बूढ़े वैरागी के धूसर माथे पर।

घास

मेरे पास अपेंडिक्स है
लेकिन मुझे घास खाना नहीं पसंद
मैं जानवर के नाम पर धब्बा हूँ
मैं इधर-उधर आवागमन में लगी आत्मा की तरह जीता हूँ
नींद में यात्राएँ करते, भटकते बादल
मेरी कलई की खुली नस को मुआफ़ करता
एक लंबा अवसाद

जब मैं अपनी देह लेकर, ख़ाली,
तुम्हारे सामने खड़ा होता हूँ
तुम्हारे लहराते इशारे
इतने हरित संकेत हैं कि
मुझे उदास कर देते हैं

आह,
मगर रात की रक्षा करते हुए
जिस प्रेम का तुमने वमन किया!
क्या वही तुम्हारी सुंदर आत्मा थी
जो अँधेरे खप गई, धार उठा गई?

अब मैं जड़ लूँगा!
घास होना बेहतर है, रो देना मुस्कुराहटें
चलो जीवन की यातनाओं से होते
चलो अपने पाँव सभी एकजुट कर लें और सिसकें

साफ़ दिनों जब हवा चलती है
और मेरी चोटें हौले-से सहलाती है
मेरे गीत, जो मेरे हृदय में बसते हैं, खिलकर, तुम बन जाते हैं
झुंड बना लेते हैं, कुंचित और ताज़े,
और हवा में तैरते हैं।


की ह्योंग दो (1960-1989) आधुनिक कोरियाई कविता के सबसे चर्चित नामों में से एक हैं। उनकी कविताएँ कोरियाई साहित्य की पाठ्य-पुस्तकों में प्रधानता से प्रस्तुत हैं और मरणोपरांत प्रकाशित उनकी कविताओं का संकलन ‘द ब्लैक लीफ़ इन माय माउथ’ उनकी असामयिक मृत्यु के बाद पिछले दो दशकों में कई बार पुनर्प्रकाशन के लिए जा चुका है। योनसे विश्वविद्यालय में राजनीति-शास्त्र के छात्र रहते हुए और पारिवारिक और व्यक्तिगत समस्याओं से ग्रसित होते हुए भी की ह्योंग दो ने अपनी कविताएँ और कहानियाँ यदा-कदा प्रकाशित कीं और अपने पिता की मृत्यु के बाद परिवार में ‘पुरुष’ बनने के निरंतर दवाब में उन्होंने हमेशा कला और संगीत में अपना एकांत ढूँढ़ा। साल 1989 में उनका शव वसंत की एक सुबह पैगोडा थिएटर में मिला था जो कि सेंट्रल सियोल में एक समलैंगिक वेन्यू के तौर पर जाना जाता था। उनकी मृत्यु हृदयाघात से हुई—महज़ 29 की उम्र में। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक में पूर्व-प्रकाशित। प्रत्यूष पुष्कर एक ट्रांस डिसिप्लिनरी कलाकार, कवि और अनुवादक हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है। अँग्रेज़ी में उनका एक कविता-संग्रह प्रकाशित है। वह संगीत, अध्यात्म और दर्शन से सक्रिय रूप से संबद्ध हैं। उनसे reachingpushkar@gmail.com बात की जा सकती है। सदानीरा पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें : कला और सौंदर्य | विजुअल पोएट्री और उस पर कुछ विचार | कला, अध्यात्म और दर्शन | क्वियर—एक क्रिया की तरह

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