चिट्ठियां ::
सावजराज

Sawajraj sadaneera
सावजराज

एक

नई दिल्ली,
जून 14, 2016

प्रिय सर्वप्रिया,

बहुत दिनों तक भटकने के बाद आखिर कल से कुछ दिनों के लिए मुझे घरों-इमारतों को रंगने का काम मिल गया है. अभी तो महज दो ही दिन हुए हैं और मेरी हालत खराब हो गई है— इस काम की वजह से. मुझे इस तरह के सख्त काम का पहले का कोई अनुभव नहीं है, इसलिए फिलहाल बहुत दिक्कत में हूं. शाम होते-होते पूरी तरह से थक कर ढहने लगता हूं और अपना ही शरीर बोझ सरीखा लगने लगता है. देह में इतनी जान भी नहीं बचती कि कुछ दूरी तक जाकर कुछ खा आऊं. लेकिन भूख उस तरफ खींच ले जाती है.

अब मैं कुछ भी खा लेता हूं. बाहर रेहड़ी-ठेलों पर खाना इतना भी बुरा नहीं होता. दिल्ली के ज्यादातर कामगार इनके सहारे ही बीस-तीस रुपए में रोज सुबह-शाम अपना पेट भरते हैं. मैं भी अब इनके सहारे हूं और मजे लेकर रेहड़ी-ठेलों पर खाना खाता हूं. मैं अब अच्छे-बुरे खाने में फर्क नहीं कर पाता. हां, लेकिन मांसाहार से मेरी चिढ़ अब तक बरकरार है.

हाथ में रोल या ब्रश पकड़कर घंटों तक काम करते रहना पूरी तरह हाथों को जकड़ देता है. हाथ बेहद दर्द करने लगते हैं. साथी रंगारे बताते हैं कि शुरुआती दिनों में सबका यही हाल होता है, फिर आदत पड़ जाती है… फिर सहजता आ जाती है… फिर ज्यादा दर्द नहीं होता. कुछ दिनों बाद शायद मैं भी सब कुछ ठीक-ठीक सीख जाऊंगा. इसे ये लोग ‘हाथ बैठना’ कहते हैं.

दर्द कम करने के लिए सहजता जरूरी है. जब मैं सहज हो जाऊंगा, तब इतना दर्द नहीं होगा. फिलहाल ये शुरुआत के दिन हैं और साथी रंगारे मुझे इमारतों से लटकते हुए झूले पर झूलते हुए काम नहीं करने देते, क्योंकि मैं नया हूं और अनुभवहीन भी. कुछ दिनों बाद मैं यह सब कुछ सीख जाऊंगा. तब वे मुझे झूले पर झूलते हुए काम करने देंगे. लेकिन मैं तो अभी से ही इमारतों से लटकते हुए झूले पर झूलते हुए काम करने के लिए बेहद उत्सुक हूं. वे कहते हैं कि कल वे मुझे कुछ देर के लिए इस तरह काम करने देंगे. देखो, शायद ऐसा हो. वैसे मुझे किसी भी तरह का अब कोई डर नहीं है. मैं भीतर-भीतर बहुत मजबूत हो गया हूं, पर जब इतनी ऊंचाई से लटकना होगा, तब शायद जरा-सा डर कर विचलित हो जाऊं!

करीब पंद्रह से बीस दिन तक यहां इमारत रंगने का काम रहेगा, उसके बाद फिर से कुछ नया काम ढूंढ़ने निकलना होगा मुझे. एक तो ठेकेदार का इस इमारत में काम पूरा होने वाला है और ऊपर से बारिश का मौसम आ रहा है. बारिश का मौसम यानी रंगारों की बेकारी का दौर. बारिश के मौसम में घरों की रंगाई-पुताई का काम नहीं हो पाता. हालांकि दो ओर जगहों पर बात हुई है और वहां काम मिलने की मुझे उम्मीद भी है.

एक जगह पर सिक्योरिटी गार्ड की जरूरत है और दूसरी जगह इमारत में बांधकाम के लिए मजदूर की. सिक्योरिटी गार्ड का काम मिलेगा तो मैं प्राथमिकता उसे ही दूंगा… नहीं तो फिर इमारत में मजदूरी तो है ही. मैंने पहले कभी इतना सख्त मजदूरी वाला काम नहीं किया है और फिर मेरा उतना मजबूत शरीर भी तो नहीं है! अब तो आशा लगाए बैठा हूं कि काश जल्द से जल्द सिक्योरिटी गार्ड वाला काम मिल जाए. मुझे लगता है कि जैसे अब दुनिया में इसे छोड़कर अब मैं हर काम के लिए अयोग्यता हूं! यहां हर काम के लिए एक विशेष और प्रामाणिक योग्यता चाहिए. मुझे प्रामाणिक बना सके, ऐसी कोई योग्यता मेरे नजदीक नहीं है. मैं पूरी तरह अयोग्य घोषित हो चुका हूं! मुझे अपनी इस अयोग्यता का अब कोई मलाल भी नहीं होता. मैं अब मैं योग्य बनने के यत्न छोड़ चुका हूं. मैं योग्यताहीन समाज का हिस्सा बनकर खुश हूं, क्योंकि इस देश में ही नहीं बल्कि समूची दुनिया में हम बहुमत में हैं. लेकिन योग्यता का न सही, अयोग्यता का ही सही पर हमारे पास एक प्रमाणपत्र तो होना ही चाहिए न? हमारी अयोग्यता को प्रमाणित करता प्रमाणपत्र! मैं चाहता हूं कि मेरे पास मेरी अयोग्यता का प्रमाणपत्र हो जिसे मैं सोते वक्त अपने सिर के नीचे रखकर निश्चिंत होकर सो सकूं और कह सकूं कि मेरे पास भी एक डिग्री है— मेरी अयोग्यता की योग्यता को प्रमाणित करती.

योग्यताएं जब इतनी बहुल और दुनियावी हों तब किस-किस तरह की योग्यताओं के योग्य बनने का यत्न किया जाए? कितनी कितनी योग्यताएं? माता-पिता के अरमानों और ख्वाबों को पूरा करने की योग्यता, अपनी जाति का गौरव बढ़ाने की योग्यता, धर्म की ध्वजा थामे रखने की योग्यता, समाज में इज्जत और रुतबा जमाए रखने की योग्यता, अपने प्रांत-प्रदेश-देश का नाम रोशन करने की योग्यता, प्रेयसी के लायक बनने की योग्यता और प्रेम पाने की भी योग्यता! कभी-कभी तो डर लगता है कि कोई जीवन जीने के लिए भी किसी योग्यता का प्रमाणपत्र न मांग ले…

फिलहाल जीवन में पहली बार मुझे सड़कों और चौराहों का महत्व समझ आया है. मेरे जीवन के इस आपातकाल में कुछ दिन यहां-वहां गुजारने के बाद जब मुझे एक इमारत रंगने का काम मिल गया तो मैं वहीं रहने का इंतजाम भी हो गया. मैं अब इमारत की छत पर दूसरे रंगारों और अन्य मजदूरों के साथ रहता हूं. दिन भर के काम के बाद रात में सोने के लिए जो जगह चाहिए होती है, वह इस तरह मुझे मिल गई. काली रात की चादर सर्वहारा शरीरों से लिपटकर उनके नंगेपन को ढंक देती है और चांदनी रात इन शरीरों से शरारत करती है.

मैं इन दिनों कृशकाय होता जा रहा हूं, और कृशकाय शरीरों की व्यथा ठीक से समझ रहा हूं. कभी-कभी जब खाने को कुछ नहीं होता, तब देह खुद को ही खाने लगती है! मैं अपने अनुभव से अब ठीक-ठीक समझ रहा हूं और अब अगर कोई मवेड़ (तगड़े जिस्म वाला) व्यक्ति खुद को कवि बताएगा तो यकीनन मैं उसे कवि मानने से इंकार कर दूंगा. कविता के लिए जरूरी है भूख.

मुझे अब लगता है कि या तो मैं गोली से मरूंगा या फिर भूख से. मैं बीमारी से नहीं मरूंगा…

शुभकामनाओं सहित,
प्यार के साथ…
तुम्हारा
सावजराज

दो

नई दिल्ली,
जून 20, 2016

प्रिय सर्वप्रिया,

अब रंगाई-पुताई के काम में ठीक-ठीक अभ्यस्त हो गया हूं. अब न घंटों तक ब्रश या रोलर पकड़ने से हाथ दुखते हैं, न रंग आंखों में गिरने से आंखें जलती हैं और अब तो खासी अच्छी गति भी आ गई है काम में. लेकिन अब भी इमारत से झूले में लटक कर काम करना कष्टदायी है. एकाध घंटे में हाथ-पैर सुन्न होने लगते हैं और सिर भारी हो जाता है… जैसे चक्कर आ रहे हों. इस पर पीठ में लगा सेफ्टी हुक बहुत अखरता है, उसके बोझ से पीठ दुखने लगती है. हां, लेकिन ऊंचाई से गिरने का डर नहीं लगता. हम में से कोई भी नहीं डरता— ऊंचाई से गिरने से.

रंगाई-पुताई का काम कविता, संगीत, नृत्य या चित्रकला जैसी और कलाओं से कम कलात्मक नहीं है. दरअसल, जीवन असहनीय है, इसे जीना ही कलात्मकता है. रंगाई-पुताई की रचना-प्रक्रिया दीवारों पर घिसाई से शुरू होती है. घिसाई जितनी बेहतर होगी, उतना ही बेहतर ‘फिनिशिंग टच’ आएगा. घिसाई के बाद व्हाइट पट्टी (सफेद मिट्टी) लगाई जाती है, जिसे हम पल्टी करना कहते हैं. पल्टी करना बहुत ज्यादा एहतियात का और कलात्मक काम है. दो पतरों पर रबड़ी जैसी व्हाइट पट्टी लेना, उसे पतरों पर संभालना, फिर उसे सलीके से दीवार या छत पर लगाना… इसमें धैर्य और अनुभव जरूरी है, वरना सारी व्हाइट पट्टी आपके ऊपर या जमीन पर गिरेगी और दीवारें इससे वंचित रह जाएंगी. पहले दो-तीन दिन तो जैसे मैं व्हाइट पट्टी से नहाकर आया हूं, ऐसी स्थिति हो जाती थी और साथी रंगारे मुझे देखकर हंसते थे. खैर, अब तो मैं पल्टी करने में उस्ताद हो गया हूं! पल्टी के बाद अस्तर लगाना होता है जो सफेद और तरल होता है. अस्तर रंग को सालों तक चिपकाए रखता है. अस्तर में केमिकल होता है. अस्तर के कण आंख में गिरने पर बहुत जलन होती है. कुछ दिनों तक इसने मुझे बहुत सताया-रुलाया, लेकिन अब आदत हो गई है. अस्तर के बाद रंग लगाया जाता है. रंग के दो या तीन हाथ मारे जाते हैं और फिर घर चमकने लगता है. अच्छा हो कि रंग को पतला रखा जाए और उसके सात-आठ हाथ मारे जाएं ताकि वह खूब चमकदार हो और जीवन भर टिका रहे.

पुताई के रंगों में एक अजीब दुर्गंध होती है, जो काम करते वक्त सर घुमा देती है. ऑइल पेंट तो और भी ज्यादा दुर्गंधयुक्त होते हैं, कभी-कभी तो उल्टी तक हो जाती है उनकी गंध से. इतना सब करने-सहने के बाद आखिर घर चमक-दमक कर तैयार हो जाता है— मालिकों के लिए!

हर घर या इमारत की रंगाई-पुताई करते हुए रंगारे या फिर मजदूर उसे बनाते वक्त उस मकान को, इमारत को अपना घर समझने लगते हैं और बहुत आत्मीयता और स्नेह से उसका काम करते वक्त जान लगा देते हैं. है. वे बेहतर काम के लिए खुद को निचोड़ देते हैं.

हम जब किसी इमारत या घर को रंग रहे होते हैं तो दरअसल उस वक्त एक चित्र पर काम कर रहे होते हैं. हमारा सारा समय, हमारे सारे अरमान, हमारा सारा धैर्य, हमारी सारी ऊर्जा और हमारा सारा स्नेह बस इस कला के लिए ही होता है. यह धीरे-धीरे और समय के साथ होता है कि रंग के साथ घुलकर हम भी घर की चमक हो जाते हैं. हर घर में जो चमक है, वह किसी न किसी रंगारे के मन का आंतरिक रंग है जिसे उसने अपने समय, अपने अरमान, अपने धैर्य, अपनी ऊर्जा और अपने स्नेह से घोलकर लगाया है.

खैर, अब चलता हूं.
प्यारपूर्वक
तुम्हारा
सावजराज

तीन

नई दिल्ली,
जून 26, 2016

प्रिय सर्वप्रिया,

संध्या के समय उत्तर दिशा में काले घने बादलों का लश्कर भयंकर रूप में आता हुआ दिखाई दे रहा था. बिजलियों के चमकारे किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं थे. पूरा आसमान जैसे कोई भगवा वस्त्र पहने साधु हो जो चराचर को तल्लीन होकर निरख रहा था. हमने बारिश आने की संभावना को समझकर आज काम समय से कुछ पहले ही छोड़ दिया था. वैसे औरों का तो पता नहीं पर हम कच्छ-सिंध के रेगिस्तानी लोग बारिश के मौसम में बहुत ज्यादा नैसर्गिक हो जाते हैं, जैसे कि हम सदियों से वंचित हैं वर्षा से, जल से, हरियाली से, नदियों से… हमारा अंग महकने लगता है और हम मोर बनकर नृत्य करने लगते हैं. हम मोर हो जाते हैं. हम अपनी कविताएं, अपने लोकगीत, अपने वर्षा-गीत पुकारने लगते हैं. हम भावुक होकर रोने लगते हैं. हम अपने पशुओं को गले लगाते हैं, उन्हें चूम लेते हैं. क्योंकि हम किसानों से ज्यादा चरवाहे हैं. हम अपने पशुओं से अपना जीवनयापन करते हैं. वर्षा हमारे जीवन में प्राणवायु की तरह है. वर्षा हमारा जीवद्रव्य है.

बारिश की संभावना के उत्साह में मेरे मुंह से ही नहीं हृदय से अपने लोकगीत फूटने लगे. बहुत दिनों बाद मैं अपनी मातृभाषा में गा रहा था, बोल रहा था… (यकीनन अकेले-अकेले खुद से ही) मुझे अपना मुल्क, अपना प्रांत, अपना लखपत याद आने लगा. अपने बचपन के दोस्त और उनके साथ बारिशों में की गई मस्ती याद आने लगी. खीर की वह खुशबू महसूस होने लगी जो बारिश के स्वागत के लिए हर घर में बनाई जाती थी. मैं देह से जरूर दिल्ली में हूं, लेकिन मेरा दिल अपने लखपत के मैदानों में भीग रहा है.

शाम ढले एक ऊंची इमारत की छत से देखने पर दिल्ली उस प्रेयसी की तरह दिख रही थी, जो प्रियतम के आने की खबर मिलते ही अपने खंजन नयन झुकाकर लज्जायुक्त मुस्कुराने लगती है.

रात हो गई है, लेकिन अब तक बारिश नहीं आई. आसमान में बादल इधर से उधर बिखर गए हैं और आसमान पूरा खुला हो गया है, जैसे अभी ही नहाकर आया हो एकदम साफ-सुथरा, धुला-धुला सा… दिल्ली अब चरमसुख से वंचित किसी नगरवधु-सी लग रही है. वह हर रोज मेकअप करके चमकती-दमकती और तैयार होती है, लेकिन अंततः अतृप्यता ही उसका प्राप्य है.

आसमान में तारे जगमगा रहे हैं. कई दिनों बाद इस तरह आसमान को देख रहा हूं. आखिरी बार गांव में इस तरह से आसमान देखा था. दिल्ली की रोशनी में रात का सौंदर्य ही खत्म हो गया है, केवल बहुत ऊंची इमारतों की छत से ही अब रात के आसमान का आनंद लिया जा सकता है. तीन तारे आसमान के मध्य में समान अंतर से एक रेखा में खड़े हैं… इसे मृगया कहते हैं. छोटे-छोटे तारों का जो समूह होता है उसे कृतिका कहते हैं. कृतिका मृगया से कुछ दूर है, लेकिन लगता है जैसे परस्पर हंस-हंस कर बातें कर रही है. कुछ पूर्व में एक तारा बहुत ज्यादा चमक रहा है, यह शायद व्याघ्र है. कुछ और तारें भी तेज जगमगा रहे हैं. उनके बारे मुझे ठीक ज्ञान नहीं है, बस अंदाज लगा सकता हूं. दक्षिण में थोड़े पूर्व में वृश्चिक दिख रहा है. वृश्चिक बिच्छू की आकृति में बना तारों का समूह होता है. दक्षिण में थोड़ा मध्य में सप्तऋषि अपना तेज बिखेर रहे हैं. उत्तर में एक तारा अन्य से ज्यादा चमकदार है. वह शायद ध्रुव है. एक तारा पश्चिम में एक दम क्षितिज के पास लाल-पीला हो रहा है. यह गुरु है. हमारी वह आकाशगंगा भी साफ दिख रही है जिसे हम बचपन में स्वर्ग का रास्ता कहते थे. मैं आसमान को सिर्फ देखता नहीं हूं, उसे अपने हाथों से छूता भी हूं. अपनी उंगलियों को आसमान की ओर उठाकर तारामंडल को चीन्हते हुए मैं उन्हें पहचानने का यत्न करता हूं. बचपन में मां मुझे रोज आसमान और तारे दिखाते हुए उनके बारे में बताती थी. यह बताना थोड़ा-बहुत मेरी स्मृति में अब तक शेष है. मां चंद्रमा और तारों की बहुत सारी कहानियां भी सुनाती थी. ये कहानियां सुनते हुए मैं उसकी गोद में सो जाया करता था.

शुभरात्रि…
बहुत प्यार
तुम्हारा
सावजराज

चार

नई दिल्ली,
जुलाई 4, 2016

प्रिय सर्वप्रिया,

बस कुछ दिनों में इमारत का रंगाई-पुताई का काम खत्म हो जाएगा. दूसरा कोई भी काम अब तक नहीं मिला. कल शाम फिर जाऊंगा कुछ जगहों पर, काम के बारे में पूछताछ करने के लिए. यह काम खत्म होते ही दूसरा मिल जाए तो अच्छा है…

कल बारिश अच्छी हुई थी. शाम से शुरू हुई छींटाकशी कुछ ही देर में तेज बारिश में बदल गई. दो तीन घंटे जमकर और धैर्य से बादल बरसे. बारिश ने थोड़ी-सी परेशानी जरूर खड़ी की, पर उसकी भीगी महक के लिए सब कुछ खुशी-खुशी सहा जा सकता है! बारिश में छत पर तो रहा और सोया नहीं जा सकता तो फिर हमें नीचे ग्राउंड फ्लोर पर रहने आना पड़ा और वहां रात बितानी पड़ी… वहां सफाई नहीं की हुई थी और मच्छरों का तो क्या कहना! पता नहीं इस बारिश में जो सड़क पर या खुले आसमान के नीचे रहते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी? वैसे तो मैं भी खुले में या सड़क पर रहा हूं, पर बारिश में अब तक ऐसा अनुभव मेरा नहीं रहा है. शायद सुबह तेज धूप निकलेगी और सब ठीक हो जाएगा…

बारिश के बाद ठंड कुछ बढ़ गई थी तो कल जमकर शराब पी और कुछ हंगामा भी किया… ऐसा याद पड़ता है. पहली बार जब मैंने शराब चखी थी तो इतनी कड़वी लगी थी कि तुरंत थूक बैठा था, पर अब मैं ऐसा नहीं करता. महंगी शराब थूकने के लिए नहीं गटकने के लिए होती है.

पूरा दिन हाड़तोड़ काम करने के बाद शुरू-शुरू में शरीर में बिल्कुल भी ऊर्जा नहीं बचती थी और अंग-अंग दुखने लगता था… ऐसे में साथी रंगारों ने मुझे इस दर्द की दवा बताते हुए ‘पौव्वा’ मारने की सलाह दी! आखिरकार वह दिन आया जब सोमरस ने मुझे पतित किया! असल में जीवन के हर दर्द की दवा शराब ही है. जब यह अंदर जाती है तो सारे दुख-दर्द हवा हो जाते हैं. मेरी आधी दिहाड़ी इसमें ही हवा हो जाती है. जब होश में जीना मुश्किल हो तो बेहोशी में जीना चाहिए. शराब सस्ती होनी चाहिए या फिर कवियों, लेखकों, मजलूमों और मजदूरों के लिए मुफ्त होनी चाहिए. किसी राजनीतिक दल को अपने चुनावी घोषणापत्र में मुफ्त शराब की पेशकश करनी चाहिए. मैंने मां को जो आखिरी पत्र लिखा था, उसमें यह बात छिपाई है क्योंकि वह अपनी शिक्षा को दोष देंगी और मुझे लेकर दुखी होंगी, वैसे मैं कभी उनसे कुछ छिपाता नहीं हूं, लेकिन यह बात बताऊं तो कैसे बताऊं?

इन दिनों न तो कुछ पढ़ पा रहा हूं और न कुछ लिख. पूरा दिन काम करने के बाद कविता पढ़ने-लिखने का साहस और ऊर्जा कहां बचती है? और वैसे भी किताबें इन दिनों मैं खरीद नहीं सकता और इंटरनेट भी मंहगा पड़ता है तो इन दिनों यह सब कुछ बंद है. बस हफ्ते भर में समय मिलने पर पांच-सात पत्र प्रियजनों को पत्र लिखकर ई-मेल पर भेज देता हूं और उनके आए पत्र पढ़ लेता हूं. पत्र लिखकर सबसे संवाद बनाए रखता हूं. यह संवाद न हो तो डर है कि शायद कहीं पागल न हो जाऊं. मुफ्त का वाई-फाई मिलते ही मैं पत्रों का आदान-प्रदान कर लेता हूं. जैसे वाई-फाई से हम किसी दूसरे का इंटरनेट उपयोग में ले सकते हैं, वैसे ही कुछ खाने में होना चाहिए… सब झंझट खत्म! यह हो तो किसी मोटे तगड़े जिस्म वाले या किसी अमीर से खाना हम वैसे ही चुरा लेते, जैसे वाई-फाई से नेट चुराते हैं.

समय और वाई-फाई मिलने पर जल्द पत्र लिखूंगा.

शुभरात्रि…
प्यारपूर्वक
तुम्हारा
सावजराज

पांच

नई दिल्ली,
जुलाई 9, 2016

प्रिय सर्वप्रिया,

अकेलेपन, अवसाद, भय और नैराश्य ने इन दिनों घेर रखा है. स्वभाव बहुत चिड़चिड़ा हो गया है और मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया है. इतना अपराधबोध से ग्रस्त मैं कभी न था और न ही कभी इतना रचनात्मकताहीन… भीतर जो एक कवि था, वह मर गया है, उसे बीते दिनों की भूख खा गई. उसे ‘दवा-दारू’ से बचाने के यत्न मैंने बहुत किए, लेकिन वह बच नहीं पाया. अंततः वह सिविल लाइंस की सड़कों पर सदा के लिए सो गया. उसकी लाश सड़कीय पहिये उठाकर ले गए, और लाश के अलग होकर इधर उधर गिरे कुछ मांस के टुकड़े परिंदे ले गए.

सड़क पर लहू के धब्बे अब भी साफ दिखाई देते हैं, कुछेक बारिशों में वे भी धूल जाएंगे! यकीनन ये दाग ऐसे ही मिटने चाहिए… दिल्ली के दामन पर ऐसे दाग टिकते कहां हैं? इस नगर में गजब का हुनर है— चोला बदलने का और खुद को हर कृत्य के बाद बेदाग रखने का…

खैर, मैं तुम्हें गुजरे दिनों की एक बात बताता हूं जिससे मैं काफी परेशान हूं और अपने आपको अपराधी-सा महसूस कर रहा हूं. गए दिनों मेरी एक स्त्री-मित्र ने मुझे घोर स्त्री-विरोधी बताया! मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मुझमें क्या गलत है और कैसे मैं स्त्री-विरोधी हूं. वे कविताएं और प्रतिक्रियाएं जो मैंने सार्वजानिक कीं, उन्हें पढ़कर मेरी इस स्त्री-मित्र ने मुझे मूर्ख और अहमन्य जैसी उपाधियों से नवाजा. मुझे इसका रत्ती भर भी बुरा नहीं लगा. वह मित्र मुझसे हर मामले में बड़ी है और शायद मुझसे ज्यादा समझ भी रखती है. साहित्य और समाज के बारे में मेरे विचलनों को लेकर वह मुझे डांट सकती है और गुस्से में कुछ भी कह सकती है… मैं यह हक उसे दूं या न दूं, यह उसके पास है. लेकिन मैं स्त्री-विरोधी समझे जाने से बेहद आहत हूं. मैं यह सुनकर बहुत रोया और बेचैन रहा हूं. मैं अपने आपको कभी भी स्त्री-विरोधी के रूप में नहीं देख सकता. अगर मेरे कुछ विचारों में स्त्री-विरोध प्रकट हुआ है, तब यह खेदजनक है. लेकिन मुझे मेरे विचार और व्यवहार में तनिक भी स्त्री-विरोध नजर नहीं आता. यह भी हो सकता है कि मैं अपनी गलतियां संभवतः खुद स्पष्ट न देख पा रहा होऊं. मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं कि तुम मुझे बताओ कि क्या मैं स्त्री-विरोधी हूं?

मैंने खुद को सदा मां का पुत्र कहा और माना है, पिता का पुत्र नहीं. स्त्रियां मेरे लिए नदियों-सी हैं और पुरुष पहाड़ से. स्त्रियों का स्वभाव नदियों-सा गतिमय, चंचल, विद्रोही और कल्याणकारी है, जबकि पुरुष पर्वत-से कठोर, अटल, उन्नत और अभिमानी हैं. मुझमें या मेरे स्वभाव में जो कुछ भी विद्रोही तत्व, गतिशीलता और जिद है, वह मेरी मां से यानी एक स्त्री से यानी एक नदी से मुझे मिला है.

मैंने स्त्रियों को भरपूर प्रेम किया है, उनसे दोस्ती बनाए रखी है, उनसे शिक्षा पाई है, मैं सदैव उनके बहुत निकट रहा हूं. मैंने जो भी पाया और अर्जित किया है, वह स्त्रियों से ही है. जिसका अस्तित्व ही स्त्रियों से हो और उसे कोई स्त्री-विरोधी कहे तो जानती हो क्या गुजरती है? मैं बहुत कुछ सह सकता हूं… कई दिनों तक भूख, महीनों तक शराब की तलब, सालों तक कविता न पढ़ना, न लिखना और जीवन भर बगैर किसी छत के सड़कों पर या जंगलों में या रेगिस्तानों में, रण में लावारिश की तरह रहना… पर किसी स्त्री की आंख में अपने लिए घृणा मेरे लिए पल भर भी असह्य होगी और खुद को स्त्री-विरोधी सुनना भी. जिसका त्याग स्त्रियों की आंखें कर दें, भला उसका जीवन भी क्या जीवन होगा!

फिलहाल मन बेहद बेचैन है. पुराना रंगारे (पुताई) का काम छूट गया है तो इन दिनों जिसे सार्थक कहा जाए ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा हूं. कुछ जगह काम मिल रहा था, पर पता नहीं क्यों मैंने किया नहीं. स्त्री-विरोधी होने के अपराधबोध से जब उबर जाऊंगा, तब शायद कुछ कर लूंगा. बीते दिनों की दिहाड़ी के बचाए हुए ‘अर्थ’ से काम चल रहा है. शराब पीना कुछ कम कर दिया है तो बहुत ज्यादा खर्च नहीं होता. बाकी ठीक हूं…

तुम्हें प्यार…
तुम्हारा
सावजराज

***

सत्ताईस वर्षीय सावजराज का ताल्लुक गुजरात के कच्छ से है. वह गुजराती, सिंधी, अंग्रेजी और हिंदी भाषाएं जानते हैं, लेकिन कभी स्कूल नहीं गए हैं. वह स्वाध्याय का मेधावी निष्कर्ष हैं. अपनी वैचारिक और सजग नैतिकता की वजह से गुजराती में लिखना छोड़ चुके सावजराज ने गुजराती में किए अपने सारे काम को कुछ बरस पहले सार्वजनिक रूप से अनकिया घोषित कर दिया है. इस काम में बहुत सारी कविताएं और निबंध शामिल हैं. सावजराज इन दिनों हिंदी में कभी-कभी कविताएं, समीक्षाएं, प्रतिक्रियाएं, रपटें, निबंध और पत्र लिखते हैं. यह लिखना भी बहुधा प्रकाशन के तंत्र में शरीक होने के लिए कतई नहीं है. सावजराज सरीखी प्रतिभाएं इस तंत्र की तात्कालिक निरर्थकता को बहुत बेहतर ढंग से समझते हुए चुपचाप अपना मूल काम करती रहती हैं. इस काम की बीहड़ता अपने पढ़ने वाले को अपने में समोने का हुनर रखती है. सावजराज ‘अपने होने के अप्रकाशन’ में रहते हैं. यहां प्रस्तुत पत्र भी एक धोखे में उनसे लेकर यहां प्रकाशित हुए हैं. ये पत्र जिसे संबोधित हैं, उसे अब तक भेजे नहीं गए हैं— यह सोचकर कि वह कहीं नहीं है या सब जगह है. ये पत्र तब के हैं, जब सावजराज पहली बार कच्छ से दिल्ली आए थे. उनसे sawajrajsinh@icloud.com पर बात की जा सकती है. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 19वें अंक में पूर्व-प्रकाशित.

4 Comments

  1. ओमप्रकाश अगस्त 5, 2018 at 12:01 अपराह्न

    जिस लेखन को तीन बार पढ़कर भी मन नहीं भरें तो समझना चाहिए कि आने वाला समय उसी लेखक का है लेखन की दुनिया में | जीवन की रंगाई- पुताई में कोई अपने अरमानों की चमक डाल दे और फिर फिर फिर घुलता रहे उनमें ही…..लेखक को ढेरो बधाई !!!!!!!!

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  2. Reena Khasatiya मार्च 7, 2019 at 7:09 पूर्वाह्न

    This is first write up I ‘ve read from this author and really want to read more and more from same author… @Savajraj rising author of contemporary India.

    Reply
  3. Amar dalpura मई 31, 2019 at 11:23 पूर्वाह्न

    मैं सावजराज को पढ़ते हुए ईरानी कवि सबीर हका याद आ गया.
    बहुत रोचक गद्य. पत्रिका के 19 वे अंक पढ़ा. एक बार फिर ऑनलाइन ढूंढकर पढ़ने का मन किया. शुक्रिया सदानीरा.

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  4. फ़लक़ जुलाई 23, 2021 at 3:05 अपराह्न

    बेहद खूबसूरत♥️

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