गद्य ::
उपासना

Upasana hindi writer
उपासना

मैं मौसिमों की मसाफ़त का दास्ताँ-गो हूँ…
नीले शहर का शाइर—शीन काफ़ निज़ाम

किसी बच्चे की रुलाई—सर्द हवा और कुहरे को चीरती हुई आई है। कुछ देर ऊहूँ-ऊहूँ रोने के बाद वह लकीर अँधेरे में क्रमशः गुम हो गई। कभी-कभी लगता है क्यूँ यह सिरदर्द लिया जाए। लिखने वाले क्या-क्या न लिखकर चले गए… उससे आगे क्या लिखा जा सकता है भला!

आधी रात के सन्नाटे में हाईवे पर गुज़रते ट्रक का हॉर्न साफ़ सुनाई पड़ता है। कुत्तों की समवेत भौं-भौं। क़लम बेहद ख़ामोशी से कोरी कॉपी पर पड़ी है—ज़िद पर अड़ी—न बढ़ेगी तो नहीं ही। चाय के पाँच कप कोने में एक-दूसरे पर हँसते पड़े थे। दीवार पर टँगी नन्ही गुड़िया के घुँघराले बालों से मैं खेल आई। आँख पर पानी से छींटे दिए। गूगल बाबा इतनी सारी बातें बता रहे थे कि कोई बात सुनने की इच्छा नहीं हुई। फ़ोन कोने में पटक कर किताबों को टटोलने लगी। रैक से उलटते-पलटते एक किताब हाथ आई। सफ़हे पलटते हुए एक नज़्म पर ठिठक ही तो गई :

सैकल करो
ज़बान
ज़ंगख़ुर्दा
निकलती चिंगारियों की रौशनी में दिख जाए शायद कहीं कोई
नज़्म!

(नज़्म की तलाश)

पस-ओ-पेश और घबराहट की मनःस्थिति में कविताएँ ही शरण देती हैं। किसी नर्म दिल दोस्त की मानिंद वे शाइस्तगी से समेट लेती हैं—आपको और आपकी उलझन को भी! बाज़ दफ़े वे अपने साथ उलझा भी लेती हैं, और उन्हें सुलझाते हुए आख़िरकार आप पाते हैं कि आपने अपनी उलझन का सिरा भी पा लिया है।

संगीताचार्यों के अनुसार आकाशस्य अग्नि और वायु के संयोग से उत्पति होती है नाद की। आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर चित्त देहज अग्नि पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंधिकत प्राण को प्रेरित करती है :

सैकल करो
ज़बान
ज़ंगख़ुर्दा

शून्य में कहीं कोई एक खिड़की है। अँधेरे में लाख टोहने पर भी नहीं मिलती और कभी जैसे ख़ुद चलकर उँगलियों की पोरों पर धड़कने लगती है। पर यह उँगलियों के पोरों तक उसका आ जाना अनायास नहीं है। प्लूटो की यह ‘डिवाइन इंस्पिरेशन’ (Divine Inspiration) स्वतः नहीं आती। यहाँ अभ्यास की सान पर आत्मा को तेज़ करना पड़ता है :

चमकती चिंगारियों की रौशनी में,
दिख जाए शायद कहीं कोई
नज़्म!

चमकती चिंगारियों के बीच उस दिख गई ‘चीज़’ को लपक लेना होता है। वह वक़्फ़ा… वह पल! उस पल की प्रतीक्षा :

मुंतज़िर नाद में है
नाद
उसका जो कभी आएगी
बनकर नज़्म!

नाद के बिना तो कुछ संभव नहीं… गीत, स्वर, राग… यहाँ तक कि ज्ञान भी नहीं। आहत और अनाहत, इन दो प्रकार के नादों में अनाहत को सिर्फ़ योगी ही सुन सकते हैं।

क्या शाइर वह योगी ही नहीं बन जाता उस क्षण? यहाँ वर्ड्सवर्थ की उक्ति क्या ख़ूब आती है : ”कविता संपूर्ण ज्ञान का प्राण है! उसकी सूक्ष्म आत्मा!”

और यहाँ ग़ौर फ़रमाएँ :

उम्मीद के असरार सीने में छिपाए
ढूँढ़ता है
कँवल
रोज़-ए-अज़ल से
नाफ़ में
नज़्म!

यह ‘रोज़-ए-अज़ल’ की चाबी मुझे लोंजाइनस से मिलती है : ‘‘प्रत्येक सृजन का आदि कारण और महान उदाहरण प्रकृति है।’’

उसने कहा : कुन फ़ाया कुन… हो जा और हो गया! Be! and it is…

‘ऋगवेद’ का नासदीय सूक्त : ‘तत्वमसि!’

”नासदासीन नो सदासीत तदानीं नासीद रजो नो वयोमापरो यत। किभावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गम्भीरं। हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकासीत। सा दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमाम कस्मै देवयहविषा विधेम।”

अर्थात् : ”सृष्टि से पहले सत-असत कुछ भी नहीं, अंतरिक्ष और आकाश भी नहीं, तो यह कहाँ छिपा था और इसे किसने ढका था, उस क्षण अगम-अतल जल भी कहाँ था? वह था हिरण्यगर्भ जो सृष्टि से पूर्व से विद्यमान था। वह तो सारे भूत जाति का महान स्वामी है, जो कि अस्तित्वमान धरती और आसमान धारण करता है।”

इसलिए यह ‘नाफ़’ हिरण्यगर्भ का रूपक ही तो है, और यह ‘नज़्म’ जो स्वयं सृष्टि है—रचना! प्रकृति!—यह वह अन्वेषण है जो गत्यात्मक मनोवेगों के बीच किसी एक स्थिर और शाश्वत रेशे को थामकर (सहारे के लिए) तटस्थ भाव से देखा, पढ़ा, गुना जा सके… हो चुके को, होते हुए को!

दिसंबर (2016) का वह आख़िरी हफ़्ता था। शहर लिटरेचर फ़ेस्टिवल की रौनक से आबाद था। बहुरंगी पंडाल में सजी गेंदे की लड़ियों से सुबह महक उठी थी। सर्दी की वह सुबह हल्की पीली धूप में सेंक ले रही थी। प्रांगण में साहित्य व कला प्रेमियों के समूह बिखरे पड़े थे। यह एक ऐसा जमावड़ा था, जहाँ मिज़ाज मुआफ़िक़ समूह या अकेले घूमने का लुत्फ़ उठाया जा सकता था। प्रवेश-द्वार पर मालती के गुच्छे सर्द हवा में धीमे-धीमे झूमते मानो अतिथियों का इस्तक़बाल कर रहे थे। तभी सामने से फूलों-सा ही ज़रा-ज़रा झुक कर लोगों का सलाम क़ुबूल करते जनाब शाइर चले आ रहे थे। स्याह कोट पर सदाबहार ब्लॉक प्रिंटेड मफ़लर गले में बेपरवाही से पड़ा था। काले फ़्रेम का चौकोर चश्मा नाक पर मुस्तैदी से टिका पुरवक़ार शख़्सियत में मानो कितने तो असरार छुपाए था। मंच से उतरते ही शाइर को उनके प्रशंसकों ने घेर लिया। लोगों के हुजूम से टकराते-भिड़ते किसी तरह हम उन तक पहुँच पाए।

‘‘मैं मुनीर नियाज़ी पर कुछ लिखना चाहती हूँ…’’

‘‘भई! मिलके बैठते हैं तो बात होगी। ऐसे खड़े-खड़े तो क्या बात होगी?’’ कहकर वह आगे बढ़ गए।

इसके कुछ महीनों बाद रेत के झोंकों से फ़ारिग़ एक पीली गर्म शाम को हम उनके अदीबख़ाने चल पड़े। ‘कबूतरों का चौक’ से आगे बढ़ने पर टेढ़ी-मेढ़ी असंख्य गलियाँ हैं। परकोटे के भीतर अवस्थित यह शहर का पुराना हिस्सा है—बेहद पुरानी सँकरी गलियाँ… दूध फेनियों की सोंधी महक, कृष्णा टी-स्टॉल की भट्ठी पर उबलती चाय, ध्यान से कैंची चलाने में डूबे नाई, सस्ती दर के कपड़ों की छोटी दुकानें (जहाँ हैंगर पर टँगे कपड़ों पर धूल की एक परत ऱोज चढ़ जाती है)। इस सबसे गुज़रते हुए तिराहे पर महात्मा गाँधी की मूर्ति दिखती है। सूरज के विदा लेते न लेते सड़कों पर बिजली के लट्टू रौशन हो गए हैं। कल्लों की यह गली रक्तिम आभामय है। संभवतः छित्तर पत्थरों से बने घरों का गुलाबी रंग प्रकाश में परावर्तित होकर हवा के रेशे-रेशे में घुल गया है।

कैसी अजीब बात है कि जिनके अंदर ‘अदीब’ न्यूनतम मौजूद है, वे अपने बँगलों के आगे मोटे हर्फ़ों में ‘साहित्यकार का लेबल’ सजाए बैठे हैं, पर जिसने पूरी ज़िंदगी अदब को ही जिया, बिछाया, ओढ़ा… उसके दरवाज़े पर एक टूटी हुई नेम-प्लेट तक नहीं है। बस कल्लों की गली में किसी राहगीर, दुकानवाले से ठहरकर पूछना भर होता :

‘‘निज़ाम साहब रो घर कठे?’’

बेहद छुटपन के दिनों में जब शे’र, शाइरी, ग़ज़लें, गीत तो दूर की बातें थीं… सिर्फ़ धुनें समझ आया करती थीं। उन दिनों शहर में आस-पास पंकज उधास की गाई एक ग़ज़ल ख़ूब बजा करती :

मेरी ग़ज़लों में ढल गया होगा
चाँद कितना बदल गया होगा

लफ़्ज़ों के मायने न समझ आए तो क्या! वे शब्द धुन के साथ याद हो गए थे। तब कहाँ मालूम था कि अनजाने ही उस शाइर को अपनी अधपकी भाषा में गा रही हूँ… कई बरसों बाद जिसे पढ़ूँगी और मिलूँगी! तब जान पाऊँगी कि किसी मुशायरे में टकरा गए गायक ने इसरार से नई ग़ज़ल माँगी थी। उस वक़्त शाइर के पास लिखा कुछ नहीं था। बे-परवाई से सिगरेट की डिब्बी पर ग़ज़ल लिखकर थमा दी गई :

छत लिखते हैं, दर दरवाज़े लिखते हैं
हम भी क़िस्से कैसे-कैसे लिखते हैं

छोटी-सी ख़्वाहिश है पूरी कब होगी
वैसे लिक्खें जैसे बच्चे लिखते हैं

बच्चे को नई क़लम और कॉपियाँ मिलीं। बाज़ दफ़े वह नन्हा बच्चा नई कॉपियाँ खोलकर उन्हें सूँघता। उनकी ख़ुशबू नथुनों से खींचकर फेफड़ों तक आत्मसात कर लेता। तब शायद ही उसे मालूम हो कि बरस-दर-बरस फेफड़ों में इक्कठा होती ये ख़ुशबुएँ आहिस्ता-आहिस्ता उसकी नज़्मों में उतरती आएँगी।

माँ की थपकियों से बोझिल पपोटों के बीच भी वह क़लम नन्ही उँगलियों में सख़्ती से कसी रहती।

“और कलम छीनकर कौन ले जाएगा? I was the only child of my parent.”

अब वह ज़रा ढीले होकर सोफ़े की पुश्त से टिक गए…

अपनी पलकें वो बंद रखता है
जाने कैसी पसंद रखता है

कैफ़ियत इम्पोर्टेंट होती है। कैफ़ियत से क़ौल बनता है। किसी अनुभूति को व्यष्टि से समष्टि बनाना ही कैफ़ियत को क़ौल बनाना है!

शेक्सपियर का कथन है : ‘‘You brutus too!’’

यह एक मनःस्थिति थी जो क़ौल बन गई! समय का मुहावरा बन गया यह कथन।

जब शाइर कहता है कि लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से जो सन्नाटा पैदा हो सकता था, वह खो गया है तो सुखद सन्नाटे की अनुपस्थिति से उपजा यह रीतापन निरे, छूँछे, खोखले ‘यूज ऑफ़ पोएटिक वर्ड्स’ से आता है :

हंस मोती चुग के
बर्फ़ीली फ़ज़ा में
उड़ चलेंगे
मैं
यूँ ही चुनता रहूँगा लफ़्ज़
बुनता रहूँगा नज़्म
टूट जाएगा
हर नस्क़
लफ़्ज़ सारे
आबजू में जा मिलेंगे
फिर कोई आएगा
चुनने
लफ़्ज़
बुनने नज़्म
आबजू तो ऐसे ही बहती रहेगी…

यहाँ ‘पोएटिक यूज ऑफ़ वर्ड्स’ का मिसरा सुलझ जाता है। इससे सुना हुआ एक क़िस्सा याद आता है कि काव्य और आलोचना पर बोलते हुए शाइर ने कहा था : ‘‘अदब असरारसाज़ी का अमल है, और तन्क़ीद असरारकुशाई का।’’ इस पर ख़ूब वाह-वाही हुई। कुछ उत्साही लोग बोल पड़े : ‘‘वाह साहब आप तो हो गए!’’ शाइर ने चुटकी लेते हुए कहा : “हम तो कभी के हो गए थे, आपको आज पता चला!”

चाय आ गई थी। चाय पीते हुए शाइर कुछ गंभीर हुए थे। बातों के लच्छों से लच्छे निकाल ले जाना और लच्छों से क़िस्से… और क़िस्से से खुल जाती है किसी पेचीदा शे’र की गाँठ। बाज़ दफ़े तो एक शे’र को समझाने के लिए दूसरे शे’र की गिरहें सुलझाई जातीं। चश्मा उतारकर उन्होंने सामने टेबल पर रख दिया। बग़ैर चश्मे की आँखें कहीं खोई हुई थीं।

‘‘हमारे उस्ताद फ़रमाते थे कि तकिया नहीं छोड़ना चाहिए। सूफ़ी अपना तकिया छोड़ दे तो फ़क़ीर हो जाता है!”

खो देने/भुला देने की टीस शाइर के यहाँ रह-रहकर चिलक उठती है। पर ये नज़्में खो देने या भुला दिए जाने की पीड़ा को रोमांटिसाइज़ नहीं करतीं। वे तटस्थ-निर्मम भाव से उस कारक तत्व की खोज में बेचैन हैं, जो एक आदमी या एक पूरी पीढ़ी को जड़ों से काटकर रख देती हैं। केवल कारक तत्व ही क्यों, पीड़ा को छीलकर दिखाने के पश्चात व्यष्टि से समष्टि तक, समय से सूक्ष्म तक एक बारीक (डरावनी!) उदासीनता को भी ये रेखांकित करती हैं :

पूरे थे अपने आप में आधे-अधूरे लोग
जो सब्र की सलीब उठाते थे क्या हुए

ग़ज़ल किसी उजड़ चुकी बस्ती से आज तक की यात्रा करती है। यहाँ कुलधरा के उजड़े गाँव से वर्तमान के अपार्टमेंट्स तक की कहानी समायी है :

ख़ामोश क्यूँ हो कोई तो बोलो जवाब दो
बस्ती में चार चाँद से चेहरे थे क्या हुए

यूँ लगता है जैसे वक़्त ने उजड़े शहर के मलबे पर आह भरी हो। बेकल हो सवाल पूछा हो। इस वीरान बस्ती से सवाल आगे भी हैं :

किसने मिटा दिए हैं फ़सीलों के फ़ासले
वाबस्ता जो थे हमसे वो अफ़साने क्या हुए

फ़ारसी में इक़बाल का शे’र यूँ है :

”बगीरे-सारबान राहे दराज़
मेरा सोज़े जुदाई तेज्तर्कु”

अर्थात् : ”ऐ सारबान (ऊँट हाँकने वाले) मुझको वो रास्ता दे जो रास्ता लंबा हो। मेरी विरह की अग्नि को और भड़का दे।”

यहाँ मूल है विरह की अग्नि को बढ़ाना, यानी इंतज़ार का लुत्फ़। शहर में फ़सीलें (परकोटे) हुआ करती थीं। इनसे गुज़रते हुए परकोटों से, रास्तों से दो-चार बातें हो जाया करती थीं। झरोखे से किसी का दीदार हो जाता। शहर का एक चेहरा किसी दूसरे का हाल-चाल जान पाता… और सारे परकोटे एक दूसरे के राज़दार हो जाया करते थे :

खंभों पे लाके किसने सितारे टिका दिए
दालान पूछते हैं कि दीवाने क्या हुआ

ऊँची इमारतें तो बड़ी शानदार हैं
लेकिन यहाँ जो रैन बसेरे थे क्या हुए

सारे मंज़र धुँधला गए हैं। अब गाँव के दालान में टँगी लालटेनों के साथ जमी हथाई खो गई है। उदास दालान बिजली के लट्टू की कृत्रिम रौशनी से चकाचौंध है। कुलधरा उजड़ा है और रैन बसेरे भी उजड़े हैं। ‘कल’ भी उजड़ा था और ‘आज’ भी उजड़े हैं। एक धरातल पर दोनों का दर्द यकसाँ है, पर उजड़े कुलधरा का क्षत-विक्षत घाव दिखता है। उसका खो देना भी प्रत्यक्ष है। वहीं दूसरी ओर रैन बसेरों का इतिहास अज़ाब में है। रैन बसेरों को रौंदकर, उनके बजबजाते टीसते घाव पर एक शानदार चमकती बिल्डिंग आ खड़ी होती है। रौंदे हुए की चीख़ इस चकाचौंध के बीच घुट जाती है।

भुला देना बेशक क्रूर है, पर कई दफ़े यह अभीष्ट नहीं होता। अभीष्ट न होकर भी अंततोगत्वा जो प्राप्य है, शाइर उसे सामने रख देता है :

बयाज़ें
जिनके सीने में
समंदर और सूरज की अदावत के थे अफ़साने
परिंदों और पेड़ों के
रक़म थे बाहमी रिश्ते
हमारे इर्तिका की उलझनें
जिनसे मुनव्वर थीं
बयाज़ें खो गई हैं
अब लुग़त हमसे परीशाँ हैं।

बयाज़ें मानव सभ्यता के वे शुरुआती दस्तावेज़ हैं जिनमें माना जाता है कि प्रकृति और मनुष्य के पारस्परिक संबंधों का लेखा-जोखा है। यहाँ पुराण के संबंध में एक श्लोक ध्यातव्य है :

”सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्॥”

पुराण में सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय), वंश (देवता एवं ऋषि सूचियाँ), मन्वंतर (चौदह मनु के काल) तथा वंशानुचरित(सूर्य-चंद्रदादि) सम्मिलित हैं। सभ्यता का आरंभ कैसा भी हो, बयाज़ें स्मृति में रहे ये ज़रूरी है। ज़रूरी इसलिए कि वे हमारे विकास की साक्षी हैं… कहाँ से कैसे चलते हुए हम आज कहाँ तक पहुँच पाए हैं।

चुनाँचे बयाज़ें समाज-सभ्यता की बढ़त और विकास का जितना ज़रूरी हिस्सा हैं, उतना ही अनिवार्य अंश व्यष्टि स्तर पर एक निरे अकेले लेखक की आत्मा का है और पाठक की संवेदना का भी :

हमसे वो रतजगों की अदा कौन ले गया
क्यूँ वो अलाव बुझ गए
वो क़िस्से क्या हुए

लेकिन विकास के इस पायदान पर आकर भी क्या हम इल्म से रू-ब-रू हो पाए हैं। जिसे फ़ैज़ कहते हैं :

”ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं”

आज उसे निज़ाम यों कहते हैं :

हम मुंतज़िर थे शाम से सूरज के दोस्तों
लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया

ग़ुलामी की शब से गुज़रकर मुल्क आज़ाद सुबह को जगता है तो बदन पर बँटवारे की बेतरह चोटें हैं, लहू के धब्बे हैं, जला हुआ दिल है। फ़ैज़ की यह सुबह ख़ौफ़नाक है। लेकिन आज जब इल्म का सूरज चमकता है तो ‘अपना आप’ छोटा दिखने लगा है। अपराधबोध की टीसें उभर आई हैं।

एक ही रचना के कितने पाठ… और कितने पाठों के कितने-कितने अर्थ, और सच कहो तो ये अर्थ अपने-अपने राम ही तो हैं। मुझ तक जो जितना पहुँच सका वह मेरा राम, मेरा निज, मेरा अर्थ। संभव है कि यहाँ यह समझ की भी बात हो। जैसा कि कॉलरिज़ फ़रमाते हैं : “Poetry gives most pleasure when only generally understood and not perfectly.”

शाइर इस बात को अलग कुछ अलग अंदाज़ में कहते हैं कि कविता को अगर पूरा समझ लिया गया तो वह मर जाती है। वह तभी तक ज़िंदा है, जब तक हम उसमें नए-नए अर्थ पाते हैं।

कविताओं का सूक्ष्म संगीत जब पाठक के आंतरिक रागों के साथ तारतम्य बिठा लें, तो कविताएँ पाठक की अनुभूति-प्रदेश का हिस्सा हो जाती हैं। पाठक उस पूरी अनुभूति से गुजरता है, बहुत संभव है कि जहाँ से कवि गुज़रा हो या न भी गुजरा हो। निज़ाम जब इस सूक्ष्म संगीत की रचना करते हैं तो उसके पीछे मानव सभ्यता का इतिहास, फ़ारसी और संस्कृत की परंपरा, राजस्थानी तथा आधुनिक पश्चिमी चिंतन इन सबका रस सम्मिलित रहता है।

नीला शहर उर्दू-हिंदी की साहित्य परंपरा से सदैव समृद्ध रहा है। उन दिनों नामवर सिंह जयनारायण व्यास यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में थे। एक गोष्ठी में उन्होंने शाइर को देखकर किसी से उनका तआ’रुफ़ पूछा। एन. के. व्यास (कॉमरेड एच. के. व्यास के भाई) ने मुस्कुराते हुए फ़रमाया :

“इनकी तारीफ़ ये है कि इनसे किसी की तारीफ़ बर्दाश्त नहीं होती… और कुछ पलों बाद अपनी तारीफ़ भी बर्दाश्त नहीं होती।”

किसी होशमंद को ख़ुदपसंद मान लेना यह ख़िलाफ़-ए-होशमंदी नहीं तो और क्या है!

उर्दू से हिंदी व हिंदी से विश्व-साहित्य पर बात करते हुए रात काफ़ी बीत गई थी :

जब खुल जाती हैं तो आँखें मुँद जाती हैं
बोल-बोलकर सुनने का सुख मत खो देना

जब हम निकले तो घरों के किवाड़ तक़रीबन बंद हो चुके थे। थोड़ी दूर पर स्थित मंदिर से स्त्रियों के गीत-गान के स्वर सुनाई पड़ रहे थे। शाइर की बातों में भी मारवाड़ का लोक गाहे-ब-गाहे झाँकता रहता है। वह बाहर तक छोड़ने आए तो फ़िक्रमंदी की हल्की छाया चेहरे पर ठिठकी और गुज़र गई। हालाँकि यह शहर महफ़ूज़ रखता है, फिर भी जब तक हम निकल नहीं गए वह वहीं खड़े रहे। अलबत्ता गली के बाहर कबूतरों का चौक रोशन था। तेज़ रफ़्तार बाइक जल्दी ही आबादी से बाहर निकल आई। ढलती रात की हवा सुख दे रही थी। सूनी सड़क के आख़िरी छोर पर पूरा चाँद उतर आया था—शहर की रात पर झिलमिलाता सुनहला चाँद! एक शे’र ख़ुद-ब-ख़ुद होंठों पे ठहर गया…

एक हसीं चेहरे का होना
शहर का हुस्न बढ़ा देता है

***

उपासना हिंदी की सुपरिचित कथाकार हैं। कथा से इतर जब वह गद्य लिखती हैं, तो उसमें एक काव्यात्मक आभा होती है। यही वजह है कि उनकी कहानियों के साथ-साथ उनके इस तरह के गद्य का भी इंतज़ार बना रहता है। वह इन दिनों उर्दू के मशहूर शाइर शीन काफ़ निज़ाम के शहर जोधपुर में रह रही हैं। उनसे chaubeyupasana@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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