गद्य ::
जे सुशील

जे सुशील

मुझसे आज मी ने कहा कि मैं बहुत ज्यादा सोचने लगा हूँ और इससे मेरे बीमार पड़ने का ख़तरा बढ़ सकता है। मी एक औरत है जिसका पति मैं हूँ। मी मेरी पत्नी है। इन दोनों वाक्यों में मुझे मी नहीं दिख रही है। मैं और मेरा दिख रहा है। इस वाक्य को मैं कैसे सही लिखूँ कि मेरा और मैं कि बजाय हमारी बात हो। मैं बस यही नहीं सोचता पिछले तीन दिनों से मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ उस संक्रामक रोग के बारे में सोच रहा हूँ जो लगभग पूरी दुनिया में फैल गया है।

मैं अपने देश से दूर हूँ।

घर के बाहर खिड़की पर बैठे हुए आज मैंने उस इमारत को देखा जिसे ख़ाली कराने के आदेश दिए गए हैं। ये इमारत यूनिवर्सिटी की है जिसमें छात्र रहते हैं। यूनिवर्सिटी चाहती है कि छात्र अपने अपने घर चले जाएँ ताकि किसी छात्र को कुछ हो तो यूनिवर्सिटी ज़िम्मेदार न मानी जाए। सत्र के बीच में सब लोग अपना सामान पैक कर रहे हैं।

इस बीमारी ने राष्ट्र की सीमाएँ पहले तोड़ दीं और फिर अदृश्य दीवारें खड़ी कर दी हैं। चीन से जब यह बीमारी इटली या और देशों में गई होगी तो किस सीमा ने रोका होगा उन्हें। इटली के किसी एयरपोर्ट ने पासपोर्ट देखा होगा, वायरस नहीं। और जब यह बीमारी फैल गई तो अब दीवारें खड़ी हैं, उसी काग़ज़ के नाम पर कि फलाँ तारीख़ तक इस देश में दूसरे देश के नागरिक नहीं आ सकेंगे। अमेरिका ने यूरोप से ग़ैरअमेरिकी लोगों का आना रोक दिया है। भारत ने भी ऐसा किया है।

मुझे पहली बार अपनी मिट्टी छूने का मन हो रहा है—भले ही जैसी भी हो, लोग ख़राब हों, बड़बोले हों, स्वार्थी हों, आपके पीठ पीछे आपकी बुराई करें… मुझे उन्हीं के बीच जाना है। मैं उस दूषित हवा में साँस लेना चाहता हूँ। मुझे पहली बार यह शहर एलियन लगा है, जहाँ सिर्फ़ वीकेंड में चहल-पहल वाली सड़कें अब सुनसान हो गई हैं।

मै सड़क पर हर उस दुकान में चला जाता हूँ जो अब तक खुली हैं। इन दुकानों में दुकानदारों के अलावा कोई नहीं मिलता। उसने भी कई घंटों से किसी से बात नहीं की है। मैंने भी पिछले चार दिनों से किसी इंसान से आमने-सामने बात नहीं की है। हम दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं। सड़कों पर लोगों का एक दूसरे को देखकर मुस्कुराना पिछले हफ़्ते से बंद है। हर आदमी के चेहरे पर तनाव है। मैं उनमें से एक हूँ।

मैं जब पत्रकार था तो मुझे ख़बरों से तनाव नहीं होता था। मैं चौबीस घंटे तनाव में रहता था और मुझे नई ख़बर से एड्रिनलिन मिलता था। मैं और काम कर लेता था। अब ख़बरें पढ़कर मैं सोचने लगता हूँ और तनाव होने लगता है। मेरी स्मृतियाँ ख़त्म हो रही हैं। नई स्मृतियाँ बन नहीं रही हैं। मैं घर, ट्रैफ़िक का शोर, चिल्ल-पों, गली में होने वाले झगड़े, कुत्तों का रोना, बिल्लियों का चिल्लाना, कूड़े की दुर्गंध को स्मृति से हटने नहीं देना चाहता।

मैं दिन भर सोचते हुए इन स्मृतियों को अपने दिमाग़ के किसी कोने में सुरक्षित करता रहता हूँ और शाम होते-होते मेरा चेहरा लाल हो जाता है, तब मी कहती है कि मुझे बाहर घूमकर आना चाहिए। मैं खिड़की से बाहर देखते हुए सोचता हूँ कि सब लोग बीमार हैं। या फिर मैं ज़्यादा सोच रहा हूँ।

शब्द घूम रहे हैं। सबकुछ कनेक्टेड है। ये कैसा कनेक्शन है जो महसूस नहीं होता। वीडियो कॉल, फ़ोन कॉल के बावजूद कहीं कुछ छूटा हुआ-सा है जो महसूस होता है। वह मन का एक कोना धीरे-धीरे ख़ाली होता जा रहा है जैसे रेत मुट्ठी से निकलती है। शायद उसे ही देश कहते हैं। उसकी कोई सीमा नहीं है। वह एक अदृश्य-सा भाव है, एक गंध है, उनींदी-सी चाह है, बेलगाम होने की आज़ादी है।

क़रीब ढाई साल पहले जब अमेरिका आ रहा था तो यात्रा के चार दिन पहले अचानक यह मन में खटका था कि मैं जो कुछ देख रहा हूँ वह अब कम से कम अगले एक या दो साल नहीं देख पाऊँगा। मैंने उस दिन रुक-रुक हर चीज़ देखी थी। और उसके बाद के दिनों में भी मैंने अपने घर और आस-पास की स्मृतियाँ ऐसे जुटाईं मानो अब मैं मरने वाला हूँ। मेरे घर से निकलते ही बाएँ खड़ी जाली, दो सीढ़ियाँ, छह पेड़ लगभग कतार में, फिर ढलान और सड़क। सड़क बाएँ जाकर मुख्य सड़क पर। बीच में हरे रंग के गेट जिसके दाहिने गार्ड। आसमानी शर्ट, नीला पैंट, पीले रंग के धागों से कंपनी का नाम लिखा हुआ। एक लाठी—क़रीब चारेक फ़ीट की। कुर्सी का रंग बदरंग लाल जिसमें से पीला स्पंज दिख रहा है।

ऐसी कई स्मृतियाँ मैंने रखी थीं। ढाई सालों में सारी स्मृतियाँ लुप्त होती चली गईं। मैंने ये स्मृतियाँ ख़र्च कीं ताकि ज़िंदा रह सकूँ। इस देश की कोई स्मृति है या नहीं मुझे ध्यान नहीं। सिर्फ़ एक गंध याद है जो पश्चिम के किसी देश में पहुँचने पर मैंने महसूस की है। मैं बहुत समय तक उसे विदेश की गंध समझता रहा जबकि वह एक परफ़्यूम या हवा में छिड़कने वाला कोई डियोडरेंट था जो प्राय: एयरपोर्टों और इमारतों की सीढ़ियों पर छिड़का जाता है। उस गंध को इस समय याद करने की कोशिश में मुझे दिल्ली में विमान से उतरने के बाद महसूस होने वाली धूल भरी हवा की याद आ रही है। ड्राइवर पसीने से तरबतर है और मैं ऐसे साँस ले रहा हूँ कि मानो फेफड़े ख़ाली हों।

यहाँ की साफ़ हवा में वैसी साँस मैंने कभी नहीं ली। मैंने इस देश को अब तक महसूस नहीं किया है या शायद अब मैं इस देश को महसूस करना चाहता हूँ, इसलिए अपने देश को इतना याद कर रहा हूँ। जब दिल्ली था तो मिट्टी के नाम पर अपना स्कूल याद आता था। वह स्मृति ख़त्म हो गई है। अब अपने बचपन की कोई याद उतनी बिंधती हुई नहीं आती है। दिल्ली आते हुए मैं उस दिन पहली बार रोया था, जब मुझे यह समझ में आया कि अब मैं कभी भी इस घर में या अपनी इस छोटी-सी कॉलोनी में वैसे नहीं लौट पाऊँगा जैसे मैं यहाँ रहता था। मुझे नहीं पता कि लोग समझेंगे या नहीं इस बात को, लेकिन घर तो वह जगह होती है; जहाँ से आदमी जाता नहीं। दिल्ली आने में घर छूट गया। फिर घर ही कहीं और चला गया। वह मेरा घर था। मेरे पिता का नहीं। मेरे पिता का घर कहीं और था। वह वहाँ जाना चाहते थे चले गए। उन्हें नहीं पता था कि उनका घर बदल गया है। जगह वही थी, लेकिन घर घर नहीं रहा था, वैसा—जैसा मेरे पिता छोड़कर गए थे—चालीस साल पहले।

वह उम्मीद कर रहे थे गाँव की जबकि उनका गाँव बदल चुका था। पिता गाँव के साथ बदल नहीं पाए। वह अपनी मज़दूरी और अपने वर्तमान को पीछे छोड़कर आए थे—अतीत में, लेकिन अतीत कहाँ बचता है। इस वर्तमान और अतीत को साधने के चक्कर में पिता कहीं के नहीं रहे। वह बीमार पड़ गए और अब उन चार दीवारों और दालान के बीच पैदल चलते रहते हैं जिन्हें वह घर बताते हैं।

वह मेरा घर नहीं है। मेरे पिता उसे अपना घर बनाने में लगे हैं, जबकि उन्हें पता है कि जब तक वह यह नया घर अपनी स्मृतियों में स्थापित करेंगे, तब तक उनके जाने का समय हो चुका होगा। फिर भी उन्हें लगता है कि वह मरेंगे अपने घर में, अपनी जड़ों में।

मेरी तो जड़ें भी अब नहीं रहीं। जहाँ पैदा हुआ, पला-बढ़ा, वहाँ अब न तो कोई मुझे जानता है और न मैं किसी को जानता हूँ। कुछ साल पहले मैं मी को लेकर गया था तो कॉलोनी के उस छोटे से कमरे को हमने बाहर से देखा, जहाँ मैं पैदा हुआ था। उसी ब्लॉक में नीचे के कमरे में मैंने अपने जीवन के कई और साल बिताए थे। एक कमरे के उन घरों में पता नहीं कौन रह रहा था। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं जाकर कहूँ कि क्या मैं एक बार यह घर देख सकता हूँ—अंदर से।

मैंने स्मृतियों में याद किया उन तस्वीरों को जो दीवार से यूँ लगाई गई थीं उस कमरे में कि मानो वह हमें देख रही हों। भगवान के कैलेंडर शीशे मढ़े हुए और बीच-बीच में एकाध तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट जिनमें माँ-पिता और किसी में मैं, किसी में भाई थे। मैंने अपनी कई साल पुरानी उस तस्वीर को याद करते हुए मी से कहा था कि देखो मेरे बाल तब भी इतने ही बड़े थे—मुंडन से पहले।

ऐसा लिखते हुए मैं अपने बालों को छूता हूँ और वर्तमान में लौट जाता हूँ और पाता कि हूँ मेरी आँखों में आँसू हैं। मैं सब कुछ छूटते हुए देख रहा हूँ और मुझे मैं धुँधला-सा दिख रहा हूँ—कहीं दूर छूटता हुआ। मैं उसे पकड़ने की कोशिश में हाथ बढ़ाने लगता हूँ…

जे सुशील का काम-काज समय-समय पर ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित, प्रशंसित और चर्चित रहा आया है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें :

भूखी डायरी भूखी डायरी-II इसे औरतें बेहतर समझेंगीमैं चाहता हूँ कि न चाहूँकैमरा

इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज मीनाक्षी जे के सौजन्य से।

1 Comments

  1. Sachin मार्च 24, 2020 at 3:47 अपराह्न

    😢

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