चित्रकथा ::
मोनिका कुमार
एक
प्रस्तुत चित्र सावलाराम लक्ष्मण हलदणकर की जलरंग कृति ‘ग्लो ऑफ़ होप’ की प्रति है जिसे ‘वुमन विथ द लैम्प’ का शीर्षक भी दिया गया। हलदणकर का नाम बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत में हुए महत्त्वपूर्ण चित्रकारों के साथ-साथ विश्व भर में हुए सबसे प्रतिभावान जलरंग चित्रकारों की सूची में आदरपूर्वक लिया जाता है। इटली के एक विश्वकोश में इनका नाम विश्व के तीन सर्वोत्कृष्ट जलरंग चित्रकारों में दर्ज किया गया है, इस कोश की प्रति महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में वाई शहर के पुस्तकालय में भी रखी गई है।
वर्ष 1882 में सावंतवाड़ी, ज़िला सिंधुदुर्ग, महाराष्ट्र में जन्मे हलदणकर स्कूल की पढ़ाई के बाद 1903 में बॉम्बे (अब मुंबई) के प्रसिद्ध संस्थान सर जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट में प्रशिक्षण के लिए चले गए। वर्ष 1907 के आस-पास बॉम्बे के कला-परिदृश्य में और विशेष रूप से चित्रकला के क्षेत्र में नई प्रवृत्तियाँ और संभावनाएँ दिखाई दे रही थीं। जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट में इस दौरान दो धाराएँ सक्रिय थीं, जहाँ एक ओर भारत की पारंपरिक शैली के साथ पश्चिम की चित्रकला शैली का समन्वय करते हुए ‘ओपन एयर’ स्कूल तैयार हो रहा था जिसमें हलदणकर, परांदेकर, पंवालकर, और लूसी सुल्तान अहमद जैसे चित्रकार यथार्थवादी शैली में विभिन्न प्रकार के ग्रामीण भू-दृश्य और गली-बाज़ार में दिखाई दे रहे आम जन-जीवन के दृश्य से प्रेरित होकर चित्र बना रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ़ जगन्नाथ अहिवासी, नगरकर, रविशंकर रावल और अल्मेलकर जैसे चित्रकार भारतीय परंपरावादी शैली से प्रतिबद्ध रहकर चित्र बनाने में संलग्न थे।
बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक और वजह से भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी काल में चित्र बनाने के लिए जलरंगों का प्रयोग भी धीरे-धीरे तैल रंगों की तरह लोकप्रिय होने लगा था। जलरंगों का प्रयोग भारतीय चित्रकारों के लिए नया नहीं था, लेकिन इससे पूर्व वे जलरंगों का प्रयोग अनिवार्य रूप से इसे प्राकृतिक रूप से मिलने वाले सफ़ेद रंग में मिलाकर किया करते थे, लेकिन अब वे इन रंगों को पानी में घोलकर जलरंग की पारदर्शिता का स्वाभाविक उपयोग करने लगे। जलरंगों का यह इस्तेमाल चित्रकला में अभूतपूर्व था। इस नए अंदाज़ में बने पारदर्शी चित्रों के नीचे की सफ़ेद सतह दीप्त होकर ख़ास प्रभाव पैदा करती थी। बहुत समय तक रंगों की मोटी तहों का प्रयोग करने के बाद इस नए रूप में पारदर्शी जलरंगों का झीना प्रयोग नई बात थी। जलरंग चित्रकला की इस शैली को सिसिल बर्न्ज़ की रहनुमाई में और बढ़ावा मिला जो ख़ुद शानदार जलरंग चित्रकार भी थे और सन् 1899-1918 के दौरान जे. जे. आर्ट स्कूल में प्रधानाचार्य के पद पर रहते हुए चित्रकला की पाश्चात्य शैली का प्रशिक्षण भी दे रहे थे। महाराष्ट्र में उसी समय कवि केशवसुत की अगवाई में ‘कविपंचक’ नाम से साहित्यिक समूह भी सक्रिय हो रहा था, जिसने प्राचीन भारत के रीत चुके गौरव का स्तुतिगान करते-करते रूढ़ हो चुकी मराठी कविता को बदलकर सम्यक प्रकार से अपने युग-बोध की कविता लिखनी आरंभ की। प्रकृति-प्रेम में पगी ये प्रगीतात्मक कविताएँ उस समय विकसित हो रही चेतना का नवोन्मेष थीं। वर्ष 1920 में कवि माधव जूलियन के परामर्श पर इस समूह ने हर रविवार फ़र्ग्यूसन पहाड़ी की खुली फ़िज़ा में संगोष्ठी के लिए एकत्रित होने का कार्यक्रम शुरू किया जिसकी वजह से यह समूह ‘रविकिरण मंडल’ नाम से भी मशहूर हुआ।
दो
अक्सर देखा गया है कि प्रत्यक्ष वाद-संवाद की अनुपस्थिति में भी किसी कालखंड में अपने-अपने क्षेत्रों में काम कर रहे कलाकारों की युग-चेतना के उर्ध्वगामी विकास और प्रयोगधर्मिता में साम्य होता है। विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय कलाकार बाह्य समाज के बदलते हुए स्वरूप से प्रकट हो रहे नए यथार्थ को अपनी कल्पनाशक्ति की आँच से मिलाकर उसे कला में अभिव्यक्त करते हैं। इस संश्लिष्ट दर्शन को समाहित करती हुई कला को अनुभव करने के परिणामस्वरूप समाज को वैकल्पिक दृष्टि मिलती है और विभिन्न कलाओं की अभिव्यक्तियाँ एक बेहतर दुनिया के साझे स्वप्न की ओर इशारा करती हैं। उस दौर में ‘रविकिरण मंडल’ के कवि केशवसुत की कविता ‘तुतारी’ और करमारकर के चित्रों ‘विक्टरी’ और ‘कोंच ब्लोअर’ में सहज ही साम्य देखा जा सकता है। इसी प्रकार 1907 से ही बॉम्बे की कला-प्रदर्शनियों में हलदणकर के चित्र चर्चा का केंद्र बने हुए थे और इस दौरान वह लगातार प्रशंसित और पुरस्कृत भी हो रहे थे। आरंभिक दिनों में हलदणकर को अपने बनाए तैल चित्रों के कारण प्रसिद्धि मिली, लेकिन जे. जे. स्कूल में आने के बाद उन्हें धीरे-धीरे जल चित्रों में सिद्धि प्राप्त होने लगी। वर्ष 1925 हलदणकर की चित्रकला के उत्कर्ष का समय था। यह वर्ष उनकी कला का ऐसा उर्वर खंड था कि बॉम्बे के कला-संसार में इसे हलदणकर का वर्ष माना गया। उनकी कृति ‘मोहम्मडन पिलग्रिम’ के लिए उन्हें बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की ओर से स्वर्ण पुरस्कार मिला। उनके बनाए दूसरे चित्रों जैसे ‘मॉर्निंग खंडाला हिल्स’, ‘अहमदाबाद मोस्क़’ और ‘साउथ ऑफ़ बाण गंगा, वलकेश्वर’ की ताज़गी, कागज़ पर उनकी उस्ताद कूची के प्रहार और उनके चित्रों के आकर्षक रंग-संयोजन निरंतर कला-रसिकों और विशेषज्ञों के मन मोहते रहे। वर्ष 1907 में उन्होंने अपने मित्रों की सहायता से ‘हलदणकर फ़ाइन आर्ट इंस्टीट्यूट’ भी खोला जिसमें विशेष रूप से जलरंग चित्र-शैली सीखने के लिए दूर-दूर से प्रशिक्षु आते रहे। चित्रकला के क्षेत्र में उनके अवदान के निमित्त वर्ष 1962 में ललित कला अकादेमी ने उन्हें ताम्र मानपत्र और फ़ैलोशिप से सम्मानित किया। अपने जीवन को अधिकतम रूप से चित्रकला को समर्पित करने वाला यह कलाकार 1968 तक आजीवन चित्रकला अभ्यास से जुड़ा रहा।
तीन
वर्ष 1932 में दीपावली की शाम पिता हलदणकर ने अपनी सोलह वर्षीय बेटी गीता को माँ की नऊवारी साड़ी पहने हुए, एक हाथ में पीतल का होल्डर पकड़े और दूसरे हाथ से दिए को हवा से बचाते हुए देखा। चित्रकार पिता ने पुत्री की उँगलियों से छनकर आ रही रौशनी में उसका दीप्त चेहरा देखा। अँधेरे और उजास के इन अलौकिक रंगों के दृश्य को उन्होंने तुरंत चित्र में अंकित करने का निर्णय किया। अगले तीन दिन तक रोज़ लगभग तीन घंटे के लिए गीता उसी मुद्रा में खड़ी होती रही और पिता ‘ग्लो ऑफ़ होप’ बनाते रहे। 2016 में अपने सौवें जन्मदिन के अवसर पर इस कृति के साथ ही ऐतिहासिक रूप से जुड़ गई गीता उपलेकर ने अपने ‘भाऊ’ का स्मरण करते हुए उस शाम का प्रसंग परिजनों और पत्रकारों के बीच पुनः सुनाया। ‘ग्लो ऑफ़ होप’ को इस प्रसंग के आलोक में देखकर अनायास ही निराला की ‘सरोज स्मृति’ की याद आती है।
‘ग्लो ऑफ़ होप’ उसी प्रकार चित्रकार-पिता के उद्गार और प्रतिभा से सम्मिश्रित दुर्लभ कृति है, जैसे ‘सरोज स्मृति’ कवि-पिता के वात्सल्य और काव्य-प्रतिभा का अद्भुत मिलन है। आश्चर्य की बात है कि इन दोनों कृतियों के रचना-काल में भी ज़्यादा अंतर नहीं है। ‘ग्लो ऑफ़ होप’ बनने के तीन साल बाद वर्ष 1935 में निराला ने ‘सरोज स्मृति’ लिखी। दोनों कलाकारों के बीच कोई सीधा संपर्क हो, यह संभावना तो नहीं लगती; लेकिन ऐसा कहा जा सकता है कि दोनों कृतियाँ भारत की उस समय की कला की मुख्यधारा ‘छायावाद’ के चरमोत्कर्ष की रचनाएँ है; जिसमें निजता, रहस्य, प्रतिभा, यथार्थ और चमत्कार एक साथ संपन्न होता है। निश्चित ही इन दोनों कृतियों का उनके सभी पक्षों के आधार पर विश्लेषण नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रेरणा और अवसर के विषय में ये दोनों बिल्कुल अलग क़िस्म की कृतियाँ हैं। ‘सरोज स्मृति’ उन्नीस वर्षीय पुत्री के असामयिक देहावसान पर लिखा हुआ शोक-गीत है और ‘ग्लो ऑफ़ होप’ उत्सव मनाती हुई पुत्री का चित्र है, लेकिन दोनों कृतियों में कलाकार-पिता की अनूठी दृष्टि का संयोग है, जिसकी वजह से इन दो रचनाओं को एक धरातल पर देखना गहरी कला-अनुभूति बन जाती है।
‘मैं कवि हूँ पाया है प्रकाश’ निराला की उक्ति है, लेकिन यह हलदणकर के लिए भी उपयुक्त मालूम होती है, यह प्रकाश ही शायद कलाकार का नैसर्गिक गुण है जिसके प्रयोग से वह किसी क्षण को उसकी संपूर्णता में पकड़कर और उसकी संपूर्णता से विह्वल होकर उसे कला में परिणत कर देता है। इन कृतियों को देखकर पता चलता है कि ये पुत्रियाँ इन पिताओं के जीवन की ‘जीवित गीते’ हैं। ये दुर्लभ कलाकार हैं जो जीवन के हर क्षण में कलाकार हैं, जिनमें जीवन को कला में प्रवर्तित करने का और फिर कला से जीवन पाने का अपार सामर्थ्य है। दोनों कलाकार अपनी पुत्रियों के स्त्रीत्व को देखकर गौरान्वित हैं, निराला ने जिस औदात्य भाव से ‘सरोज स्मृति’ में बालपन से लेकर युवा होने तक और फिर विवाह के दिन दुल्हन बनी सरोज की बात की है, उसका उदाहरण आधुनिक हिंदी कविता में अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। ‘ग्लो ऑफ़ होप’ में जो कहा गया या फिर जो अनकहा रह गया, उसे ‘सरोज स्मृति’ में ‘कुंज-तारुण्य सुघर आईं’, ‘लावण्य-भार थर-थर’… ‘ज्यों मालकौंस नव वीणा पर’, ‘तू खुली एक उच्छ्वास संग’ आदि कविता-पंक्तियों में पढ़ा जा सकता है और ‘सरोज स्मृति’ के शब्दों और पंक्तियों को ‘ग्लो ऑफ़ होप’ के बैंजनी-गुलाबी के विविध रंगों में उदीप्त होते हुए देखा जा सकता है। इन कृतियों में मन-वचन-कर्म की एकाग्रता और एकता का मिलन-बिंदु है, जहाँ भाव ने अपना भावत्व, विचार ने वैचारिकी और तकनीक ने अपनी चतुराई खोकर उसे अनिर्वचनीय उदात्त अभिव्यक्ति बना दिया है। ऐसी कृतियों में कलाकार का श्रम सुनने और देखने वाले को फूल जैसा हल्का महसूस होता है, लेकिन स्मृति में इस सघन अनुभव के अनेकों अर्थ खुलते रहते हैं। सरोज, निराला, हलदणकर जीवित नहीं हैं और गत वर्ष ‘ग्लो ऑफ़ होप’ की नायिका गीता उपलेकर का भी 3 अक्टूबर 2018 को देहांत हो गया, लेकिन कला-संसार में इन चारों की स्मृति चिरकाल तक बनी रहेगी।
चार
अस्सी वर्ष से अधिक पुराना चित्र ‘ग्लो ऑफ़ होप’ आज भी मैसूर के जगनमोहन महल की जयचमाराजेंद्र कला-दीर्घा में संग्रहित किए गए क़रीब उत्कृष्ट 2000 चित्रों के बीच आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसी कला-दीर्घा में चित्रकार राजा रवि वर्मा के सोलह मौलिक चित्र भी सुसज्जित हैं। ‘ग्लो ऑफ़ होप’ की नायिका की साड़ी और रूप-सज्जा देखकर इसे भूलवश राजा रवि वर्मा की कलाकृति मान लिया जाता है। चूँकि ‘ग्लो ऑफ़ होप’ हलदणकर की अपनी पुत्री का चित्र था, इसलिए वे इसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे; लेकिन अंततः मैसूर के राज-परिवार के आग्रह पर उन्होंने 300 रुपए में इसे कला-प्रेमी राज-परिवार को बेच दिया और इस तरह यह चित्र इस संग्रहालय की शान बन गया। कला-दीर्घा में इसे आम कमरे से अलग किंचित मद्धम रौशनी वाले कमरे में रखा गया है, ताकि दर्शक ‘ग्लो ऑफ़ होप’ के उसी दृश्य का अनुभव कर सकें जिस दृश्य को देखकर हलदणकर को इसे बनाने की प्रेरणा मिली। चित्र देखने की यह व्यवस्था जैसे इस बात को भी पुष्ट करती हो कि चंद्रिका और कुछ और सुंदर चीज़ों को उजाले में नहीं केवल अंधकार में ही देखा और महसूस किया जा सकता है।
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संदर्भ :
यह चित्रकथा लिखने के लिए गए कई वर्षों के दरमियान अख़बारों-पत्रिकाओं में प्रकाशित ‘ग्लो ऑफ़ होप’ से संबंधित ख़बरों-लेखों से मदद ली गई है। शोधगंगा वेबसाइट पर उपलब्ध सयाजीराव यूनिवर्सिटी, बरोडा से नलिनी भागवत द्वारा 1983 में लिखे गए शोध-ग्रंथ ‘Development of contemporary art in western India’ के तीसरे अध्याय को पढ़कर हलदणकर के समय के कला परिदृश्य को समझना आसान हुआ। कुछ और तथ्यों की प्रामाणिकता जानने के लिए महाराष्ट्र के विख्यात चित्रकार सुहास बहुलकर से संपर्क किया है। इन सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ।
प्रस्तुत गद्य ‘सदानीरा’ के 23वें अंक (आलोक, शरद-2019) की आवरण-कथा के रूप में प्रकाशित और प्रशंसित हो चुका है। मोनिका कुमार सुपरिचित कवयित्री-गद्यकार और अनुवादक हैं। उनसे turtle.walks@gmail.com पर बात की जा सकती है।