लुडविग विट्गेन्स्टाइन के उद्धरण ::
अनुवाद : अशोक वोहरा
ऐसी भाषा की कल्पना करना सुगम है जिसमें केवल युद्ध के आदेश एवं विवरण हों—या फिर ऐसी भाषा की कल्पना भी सुगम है जिसमें केवल प्रश्न हों और उनके उत्तर हाँ या ना में देने के लिए अभिव्यक्तियाँ हों। और अनगिनत अन्य भाषाओं की कल्पना करना भी सुगम है।—और किसी भाषा की कल्पना करने का अर्थ तो एक जीवन-शैली की कल्पना करना है।
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‘‘किसी लाल वस्तु को नष्ट किया जा सकता है, किंतु लाल को नष्ट नहीं किया जा सकता, और इसी कारण ‘लाल’ का अर्थ लाल वस्तुओं की सत्ता से निरपेक्ष है”—निस्संदेह, यह कहने का कोई अर्थ नहीं होता कि लाल रंग को फाड़ दिया गया है अथवा उसके चीथड़े कर दिए गए हैं। किंतु क्या हम नहीं कहते : ‘‘धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है?’’ कुछ भी लाल न रहने पर भी अपने मानस-पटल पर सदैव लाल लाने की हमारी क्षमता, के विचार से न बँधे रहें। वह तो बिल्कुल आपके यह कहने जैसा ही है कि तब भी लाल ज्वाला को उत्पन्न करने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया तो होगी ही।—मान लीजिए, कि अब आप रंग का स्मरण ही नहीं कर पाते? जब हम भूल जाते हैं कि यह नाम किस रंग का है; तो हमारे लिए उसका अर्थ लुप्त जाता है, अर्थात् अब हम उससे विशेष भाषा-खेल नहीं खेल सकते। और तब यह स्थिति उस स्थिति के तुल्य हो जाती है, जिसमें हमने ऐसे प्रतिमान को खो दिया हो जो हमारी भाषा का उपकरण था।
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‘चित्र’ ने हमें बाँध लिया है। और हम उससे बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि वह हमारी भाषा में ही था और हमें ऐसा लगता है कि भाषा इसे निरपवाद रूप से दुहराती रहती है।
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किसी विशुद्ध ‘बकवास’ को प्रदर्शित करना, और बोध के द्वारा भाषा की सीमाओं से सिर फोड़ने से आई चोटों को दिखाना दर्शन के परिणाम हैं। इन चोटों से हमें खोज की महत्ता पता चलती है।
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क्या निजी भाषा के नियम, नियमों की प्रतिच्छाया हैं?—जिस तुला पर प्रतिच्छाया को तोला जाता है, वह तुला की प्रतिच्छाया नहीं होती।
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निस्संदेह जब बर्तन में पानी खौलता है तो उससे भाप निकलती है और चित्रित बर्तन से चित्रित भाप निकलती है। किंतु क्या हो जब कोई यह कहने का हठ करे कि चित्रित बर्तन में भी कुछ खौल रहा होना चाहिए।
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प्रतिकृति चित्र नहीं होती, किंतु चित्र उसके अनुरूप हो सकता है।
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जब मैं भाषा के माध्यम से विचार करता हूँ तो मौखिक अभिव्यक्तियों के अतिरिक्त मेरे मन में कोई दूसरे ‘अर्थ’ नहीं होते : भाषा तो स्वयं ही विचार की वाहक होती है।
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शब्द कैसे कार्य करते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके प्रयोग का ‘निरीक्षण’ करना और उससे सीखना पड़ता है।
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विचार के साथ और विचार के बिना बोलने की तुलना संगीत को विचार के साथ, और विचार के बिना बजाने से ही करनी चाहिए।
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जिन शब्दों से मैं अपनी स्मृति को अभिव्यक्त करता हूँ, वे मेरी स्मृति-प्रतिक्रियाएँ हैं।
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‘सार’ व्याकरण द्वारा अभिव्यक्त होता है।
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आपने ‘वेदना’ ‘प्रत्यय’ को तब सीखा था, जब आपने भाषा सीखी थी।
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अपेक्षा और उसकी पूर्ति भाषा में ही होती है।
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किसी बेहूदा जासूसी कहानी में कही गई बात किसी बेहूदा दार्शनिक द्वारा कही जाने वाली बात से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और स्पष्ट होती है।
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रूपकों के दुरुपयोग ने जितना क़हर गणित में ढाया है, उतना तो उनके दुरुपयोग ने किसी धार्मिक संप्रदाय में भी नहीं ढहाया।
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मानव-दृष्टि में वस्तुओं को प्रेय बनाने की सामर्थ्य है, यद्यपि यह सच ही है कि इसी कारण वस्तुएँ बहुमूल्य भी बन जाती हैं।
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यह अच्छी बात है कि मैं अपने को प्रभावित नहीं होने देता!
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अच्छी उपमा से चित्त प्रसन्न हो जाता है।
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कमज़ोर नज़र वाले व्यक्ति को कहीं जाने की राह बताना कठिन होता है; क्योंकि उसे आप यह नहीं कह सकते, ‘‘दस मील दूर स्थित उस चर्च की मीनार को देखो और उसी दिशा में चलते चले जाओ।’’
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किसी विषय को अपने से ऊँचा बताने और मानने का अधिकार केवल प्रकृति को ही है, किसी अन्य को नहीं।
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बहस के धरातल पर नया शब्द विवेचन की भूमि में डाले गए नए बीज बोने जैसा है।
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किसी बात के अभिप्राय को स्पष्ट करने की लालसा अति तीव्र होती है।
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यदि कोई अपने समय से आगे निकल जाता है, तो कभी न कभी समय उसे पकड़ ही लेगा।
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यदि तुम प्रत्येक वस्तु पर संदेह करने लगोगे तो फिर तुम किसी वस्तु पर संदेह न कर सकोगे।
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किसी ख़ाली कुप्पी का अहंकार से फूली कुप्पी जैसा दिखने की मजबूरी शर्मनाक है।
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हम भाषा से जूझ रहे हैं।
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प्रत्येक संदेह के मूल में निश्चितता होती है।
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अगर मैं कोई ऐसा सुंदर वाक्य लिखूँ जिसमें संयोगवश दो लयबद्ध पंक्तियाँ हों तो वह एक भारी भूल होगी।
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हम भाषा के साथ संघर्ष में उलझे हुए हैं।
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आपकी उपलब्धियों का महत्त्व आपसे अधिक और कोई नहीं जानता।
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स्वीकारोक्ति को आपके नए जीवन का अंग बनना पड़ेगा।
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चुंबन भी एक कर्मकांड है, किंतु वह सड़ी हुई औपचारिकता नहीं है। पर कर्मकांड वहीं तक स्वीकार्य है, जहाँ तक वह चुंबन की तरह प्रामाणिक है।
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क्या हमें किसी ऐसे व्यक्ति की कल्पना नहीं करना चाहिए, जिसने कभी संगीत नहीं सुना हो, और जो एक दिन अचानक शोपां की कोई अंतर्गुम्फित रचना सुने और यह मान बैठे कि यह एक ऐसी गुप्त भाषा है, जिसके अर्थों को दुनिया उससे छुपाए रखना चाहती है?
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प्रतिभा एक ऐसा स्रोत है जिससे निरंतर निर्मल जल बहता रहता है, परंतु यदि इस स्रोत का सही उपयोग न किया जाए तो इसकी उपादेयता समाप्त हो जाती है।
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सुकरात के संवादों को पढ़ते हुए यह प्रतीत होता है : समय की कैसी भयानक बर्बादी है! ऐसे तर्कों का क्या लाभ जिनसे न तो कुछ सिद्ध होता हो और न ही किसी बात का खुलासा?
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महान् कलाकारों की रचनाएँ तो हमारे बीच उदित और अस्त होने वाले सूर्य जैसी हैं। प्रत्येक महान् कृति जो आज अस्ताचल की ओर चली गई है, वही कल उदयाचल में प्रकट होगी।
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वस्तुतः मैं अपनी क़लम के माध्यम से सोचता हूँ, क्योंकि मेरे मस्तिष्क को तो बहुधा पता ही नहीं होता कि मेरे हाथ क्या लिख रहे हैं।
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अपनी ‘हस्तलिपि’ के समान अपने चरित्र को बाहर से देखना तो असंभव ही है।
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मेरा अपनी हस्तलिपि से इकतरफ़ा संबंध है। यह संबंध मुझे अपनी लिपि को दूसरों के बराबर रखने से रोकता है और मुझे उसकी दूसरों की लिपि से तुलना भी नहीं करने देता।
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कला में कुछ भी कहना कठिन है : कुछ कहना कुछ न कहने जैसा ही है।
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यदि आप तर्कशास्त्र में चालबाज़ी करते हैं तो आप अपने सिवाय किसे धोखा देते हैं?
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जब आप अहंकार के साथ चढ़ावा चढ़ाते हैं तो आप और आपका चढ़ावा दोनों ही पतित हो जाते हैं।
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रचना भव्य होती है, किंतु किसी अन्य के आलोक से प्रकाशित होकर उसके सौंदर्य में और भी अधिक निखार आ जाता है।
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चिंतन की फ़सल बोने और काटने का भी एक निश्चित समय होता है।
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अपने आपको धोखा न देने जैसा कोई मुश्किल काम नहीं होता।
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प्रतिभा का मानदंड तो चरित्र है—यद्यपि चरित्र अपने आपसे प्रतिभा ‘नहीं’ बन जाता। ‘योग्यता और चरित्र’ मिलकर प्रतिभा नहीं बनते, अपितु प्रतिभा तो चरित्र की एक विशेष योग्यता के रूप में अभिव्यक्त है।
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सत्य केवल वही व्यक्ति बोल सकता है जो पहले से ही उसका ‘आदी’ हो, न कि कोई ऐसा व्यक्ति जो असत्याचरण करता हो और कदाचित् ही असत्य से सत्य की ओर बढ़ता हो।
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अपनी उपलब्धियों से आश्वस्त होना बर्फ़ में चलते हुए विश्राम करने जैसा ख़तरनाक है : आप ऊँघते-ऊँघते सो जाते हैं और नींद में ही मर जाते हैं।
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प्रशंसा-रहित प्रेम की आकांक्षा रखो।
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पलस्तर उखाड़ना पत्थर हिलाने से कहीं अधिक आसान है : निस्संदेह कोई काम तो आपको पहले करना ही होगा।
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बड़ी से बड़ी नासमझी में भी समझदारी हो सकती है।
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ज़्यादा अपेक्षाएँ मत रखो और अपनी उचित माँगों की पूर्ति के बारे में आशंकित भी मत रहो।
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‘गहरी’ और कच्ची नींद में भेद की तरह ही गहरे और उथले विचारों में भेद होता है।
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मनोहारी वस्तु सुंदर नहीं हो सकती।
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प्रतिभा के कारण हम योग्य व्यक्ति की उच्चतम योग्यता को भी भूल जाते हैं।
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प्रतिभा के कारण हम उच्चतम कौशल को भी भुला देते हैं।
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जहाँ-जहाँ प्रतिभा क्षीण होने लगती है, वहाँ-वहाँ कौशल दिखाई देने लगता है।
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प्रतिभा के कारण हम योग्य व्यक्ति की उच्चतम योग्यता को देख ही नहीं पाते हैं।
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प्रतिभा क्षीण होने पर ही योग्यता दिखाई पड़ती है।
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सोचने की ‘आकांक्षा’ रखना एक बात है, सोचने की योग्यता होना दूसरी।
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जो व्यक्ति अपनी काया-पलट कर सकता है, वही क्रांतिकारी है।
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लोग इस हद तक धार्मिक होते हैं कि अपने आपको ‘रुग्ण’ तो मान लेंगे, परंतु ‘अपूर्ण’ नहीं मानेंगे।
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थोड़ा भी शालीन व्यक्ति अपने आपको बेहद अपूर्ण मानता है, किंतु धार्मिक मनुष्य हो अपने आपको ‘दयनीय’ मानता है।
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जो फटा-पुराना है, उसे फटा-पुराना ही रहने दो।
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खिन्न व्यक्ति को ही दूसरों पर तरस खाने का अधिकार है।
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हिटलर पर भी ग़ुस्सा करना उचित नहीं है, ईश्वर पर तो और भी कम।
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शब्द तो साक्षात् कर्म ही हैं।
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किसी के मरने के बाद हम उसके जीवन को समन्वयात्मक दृष्टि से देखते हैं। हमें उसका जीवन सरल और सुगम लगने लगता है। यद्यपि ‘उसके’ लिए न तो कोई सरलता थी, न सुगमता; अपितु उसका जीवन तो कठिन एवं अपूर्ण था। उसके लिए तो कोई समझौता न था, उसका जीवन तो तंग एवं दयनीय था।
मानो मैं अपना मार्ग भूल गया होऊँ और किसी से अपने ही घर का रास्ता पूछ रहा होऊँ। वह मुझे कहता है कि वह मुझे मार्ग दिखाएगा और मेरे साथ ही एक सीधे-सपाट रास्ते पर चलता है। यह क्रिया अचानक ही रुक जाती है… और अब मेरा मित्र मुझे कहता है : ‘‘यहाँ से अब तुम्हें स्वयं ही अपने घर का रास्ता खोजना होगा।’’
अत्यंत मेधावी होने पर भी; कोई व्यक्ति अपने बारे में जितना कम जानता, समझता है, वह उतना ही कम महान् होता है। यही कारण है कि हमारे वैज्ञानिक महान् नहीं हैं। इसलिए— फ्रॉयड, स्पेंग्लर, क्राउस, आइंस्टाइन महान् नहीं हैं।
शूबर्ट तो अधार्मिक एवं विषादग्रस्त हैं।
क्या ‘सभी’ मनुष्य ‘महान्’ होते हैं? नहीं।— तो फिर आप महान् व्यक्ति बनने की आशा कैसे रखते हैं! आपको ऐसी चीज़ क्यों मिले जो आपके पड़ोसी के पास न हो? किसलिए मिले?! यदि आपकी समृद्ध होने की इच्छा के कारण आप स्वयं को समृद्ध नहीं समझते, तो आपको किसी दृष्ट अथवा अनुभूत बात से इसका पता चलता है! और आप (मिथ्याभिमान के अतिरिक्त) क्या अनुभव करते हैं? केवल यह कि आपमें एक विशेष ‘योग्यता’ है। और एक असाधारण व्यक्ति होने का मेरा दंभ तो मेरी विशेष योग्यता की वृत्ति से ‘बहुत’ पहले से ही मुझमें मौजूद है।
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यदि लोग यदा-कदा मूर्खतापूर्ण बातें न करते तो कभी भी कोई बुद्धिमत्ता का काम होता ही नहीं।
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चेहरे के समान धुन की भी एक शक्ल होती है।
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धुन का भाषा से मेल होता है।
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विचारों की खेती एक बात है, उस खेती को काटना दूसरी बात।
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हर महँगे विचार के दामन में बहुत से सस्ते विचार भी होते हैं, उनमें बहुत से उपयोगी भी होते हैं।
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‘रुचि’ की क्षमता नई संरचना नहीं कर सकती, वह तो पूर्व-रचित संरचना का समयोजन ही कर सकती है। रुचि तो पेंचों को कसती अथवा ढीला ही करती है, वह कोई नवीन यंत्र नहीं बना सकती।
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रुचि तो समायोजन ही कर सकती है, नवोन्मेष इसका कार्य नहीं है।
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रुचि वस्तुओं को स्वीकार्य बना देती है।
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‘अत्यधिक परिष्कृत’ रुचि का भी रचना-शक्ति से कुछ ‘लेना-देना’ नहीं होता।
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रुचि आनंदित कर सकती है, किंतु नियंत्रित नहीं।
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संवेदना का परिष्कार ही रुचि है; किंतु संवेदना में ‘क्रिया’ नहीं होती, वह तो केवल ग्रहण ही करती है।
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मैं यह निर्णय ‘नहीं’ कर पाता कि क्या मुझमें मात्र रुचि है, अथवा मुझमें मौलिकता भी है। रुचि को तो मैं सुस्पष्टतः देख सकता हूँ, किंतु मौलिकता को या तो देख नहीं पाता, या फिर बहुत अस्पष्ट रूप में देखता हूँ। और संभवत: इसे ऐसा होना ही चाहिए, और आप उसी का अवलोकन कर सकते हैं जो आपके पास ‘होता’ है, अपने आपका नहीं। झूठ न बोलने वाला व्यक्ति मौलिक होता है; क्योंकि अंततः कोई भी मनमाफ़िक़ मौलिकता चाहे वह जितनी भी विशिष्ट क्यों न हो, कोई चतुर चाल अथवा वैयक्तिक विशिष्टता नहीं हो सकती।
यदि आप कपटाचार से परहेज रखते हों तो मौलिकता के बीज आपमें पहले से ही मौजूद हैं। और इसे इससे ‘बेहतर’ ढंग से पहले ही दूसरों द्वारा कहा जा चुका है।
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पुरानी शैली को नई शैली में अनूदित किया जा सकता है, कहा जा सकता है कि इसे तो हम अपने देश-काल के अनुकूल नए सिरे से उत्पन्न कर सकते हैं। यह तो अनुकृति ही है। मेरा निर्माण-कार्य भी यही था।
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‘‘विवेक तो बदरंग होता है।’’ जबकि जीवन एवं धर्म रंगों से भरे-पूरे होते हैं।
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किसी ऐसी बात से कोई वास्ता न रखो, जिसे आपके अतिरिक्त कोई और करता ही न हो!
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जिस प्रकार मैं कविताएँ नहीं लिख सकता; उसी प्रकार मेरी गद्य लिखने की क्षमता भी केवल ‘एक सीमा तक’ है, उससे आगे नहीं। मेरी गद्य लिख सकने की भी एक नियत सीमा है; और जैसे मैं कविता नहीं लिख सकता, उसी तरह मैं अपने गद्य-लेखन की सीमा का उल्लंघन भी नहीं कर सकता। मेरे उपकरणों का ‘यही’ गुणधर्म है, और मेरे पास तो केवल यही उपकरण हैं। मानो कोई कहे : इस खेल में तो मुझे ‘इतनी’ निपुणता ही मिल सकती है, ‘इससे’ अधिक नहीं।
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संभवतः महत्त्वपूर्ण कार्य को संपन्न करने वाले हर व्यक्ति के पास उसे विकसित करने के बारे में एक कल्पनाशील विचार—एक स्वप्न—होता है, किंतु सब कुछ उसके स्वप्न के अनुसार ही होता चला जाए; यह तो अद्भुत ही होगा। आजकल तो अपने स्वप्नों पर विश्वास न करना सरल है।
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नीत्शे ने कहीं लिखा है कि सर्वोत्तम कवियों एवं विचारकों ने भी बहुत-सा सामान्य और बेकार लेखन भी किया है, परंतु उन्होंने अपने अच्छे लेखन को अलग रखा है। किंतु बिल्कुल ऐसा नहीं है। यह सही है कि माली अपने बग़ीचे में गुलाबों के साथ-साथ खाद, कूड़ा-कर्कट एवं भूसा भी रखता है; किंतु उनका भेद केवल उनके मूल्य से नहीं, अपितु बग़ीचे में उनके प्रयोजन से करता है।
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बेकार लगने वाले वाक्य में भी अच्छे वाक्य के ‘जीवाणु’ हो सकते हैं।
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मेरे विचारों का दायरा संभवतः मेरी अपेक्षा से कहीं अधिक सँकरा है।
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बुदबुदों के समान विचार भी धीरे-धीरे सतह तक पहुँचते हैं।
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किसी सुंदर डायरी को शीघ्रातिशीघ्र भरने की मेरी लालसा यह दर्शाती है कि इच्छाएँ कितनी अधिक थोथी होती हैं। मुझे इससे ‘कुछ भी’ प्राप्त नहीं होता, मैं कोई ऐसी आकांक्षा इसलिए नहीं करता कि वह मेरी रचनात्मकता का प्रमाण होगी; यह तो परिचित वस्तुओं से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाने की ‘अभिलाषा’ ही है, यद्यपि जैसे ही मेरी यह अभिलाषा पूर्ण हो जाएगी, वैसे ही मेरे मन में नई अभिलाषा जागेगी और फिर से उसी काम को करना होगा।
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मैं समझता हूँ कि बेकार राज्य-प्रबंधन बेकार परिवार-प्रबंधन को प्रोत्साहित करता है। हमेशा हड़ताल पर जाने को तत्पर मज़दूर अपने बच्चों को भी व्यवस्था के प्रति आदर-भाव नहीं सिखा सकता।
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हे भगवान! दार्शनिक को सभी व्यक्तियों की आँखों के सामने रखी वस्तुओं को देखने की अंतर्दृष्टि प्रदान कर।
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उत्तरदायित्व को ‘अस्वीकार’ करना तो किसी को भी उत्तरदायी ‘ठहराना’ नहीं होता।
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अत्यधिक ज्ञानवान् व्यक्ति को झूठ न बोलना कठिन लगता है।
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मनुष्य अपने भीतर की सभी बुराइयों को मति-भ्रम समझ सकता है।
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मेरे लेखन का कोई वाक्य ही कभी-कभार विचार को आगे की ओर बढ़ाता है; बाक़ी वाक्य तो नाई की क़ैंची के समान हैं जिसे वह लगातार इसलिए चलाता रहता है, जिससे सही क्षण पर वह बाल काट सके।
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नाम पुकारे जाने पर पशु भागे आते हैं, बिल्कुल मनुष्यों की तरह।
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यदि कोई ईश्वर पर पूरा भरोसा कर सकता है तो दूसरों के मन (की सत्ता) पर क्यों नहीं?
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साहस और धृष्टता से कहे गए मिथ्या विचार से भी बहुत लाभ होता है।
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मुझसे कहीं अधिक प्रतिभाशाली लेखक में भी बहुत थोड़ी ही प्रतिभा होगी।
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आपको अपनी शैली की कमियों को, अपने चेहरे के दाग़ की तरह, स्वीकार करना होगा।
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परंपरा सीखी नहीं जाती…
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पाठक को अपने सामर्थ्य पर छोड़ दो।
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महत्त्वाकांक्षा तो विचार की मृत्यु है।
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टिप्पणियाँ ही बोती हैं और टिप्पणियाँ काटती हैं।
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यदि मैं किसी घटना का सामना करने की पूर्व तैयारी कर लूँ तो विश्वास कीजिए कि वह घटना कभी नहीं घटेगी।
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एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को ग़लत समझती है, और ‘निकृष्ट’ पीढ़ी तो सभी अन्य पीढ़ियों का अपने ही कुत्सित ढंग से ग़लत अर्थ लगाती है।
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क्या शैतान में विश्वास का यह अर्थ होता है कि हमारी प्रेरणाओं के सभी उद्गम-स्थल शुभ नहीं होते?
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लुडविग विट्गेन्स्टाइन [1889-1951] बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिकों में से एक हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस’ (संस्करण : 1996) और ‘कल्चर एंड वैल्यू’ (संस्करण : 1998) [प्रकाशक : भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली] से साभार हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के बहुभाषिकता अंक में पूर्व-प्रकाशित। ‘सदानीरा’ पर उपलब्ध कुछ और संसारप्रसिद्ध साहित्यकारों-विचारकों के उद्धरण यहाँ पढ़िए :
वी. एस. नायपॉल │ हुआन रामोन हिमेनेज़ │ एरिक फ्राम │ हरमन हेस │ ई. ई.कमिंग्स │ नोम चोम्स्की│ फ़्रांत्स काफ़्का │ एलियास कैनेटी │ रवींद्रनाथ टैगोर │ फ़्योदोर दोस्तोयेवस्की │ एडवर्ड मुंच │ ख़लील जिब्रान │ गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ │ विलियम फॉकनर │ ग्राहम ग्रीन │ जे. एम. कोएट्ज़ी │ एइ वेइवेइ │ होर्हे लुई बोर्हेस │ मिलान कुंदेरा │जौन एलिया │ प्रेमचंद │ निकोलाई गोगोल │ फ़्रेडरिक नीत्शे │ रघुवीर चौधरी │ यून फ़ुस्से │गुस्ताव फ़्लाबेयर │ अमोस ओज़ │ ओरहान पामुक │ लियोनार्ड कोहेन │ मिलान कुंदेरा │ चक पॉलनीक │ अल्फ़्रेड एडलर │ सी. एस. लुईस │ विन्सेंट वॉन गॉग │ ओनोरे द बाल्ज़ाक │ मार्क ट्वेन │ हेनरी डेविड थोरो │ हारुकी मुराकामी │ लाओत्से और कन्फ़्यूशियस │ अंतोनियो ग्राम्शी │ वालेस स्टीवंस │ गर्टरूड स्टाइन│ जेम्स बाल्डविन │ पॉल बी प्रेसियादो │ रमण महर्षि │ जॉर्ज ऑरवेल │ वाल्तेयर │ हेनरी मातीस │ भालचंद्र नेमाडे │ गंगानाथ झा │ निकोस कज़ानज़ाकिस │ ओउज़ अताय │ फ्रांत्ज़ फ़ैनन
What is pretty cannot be beautiful.
इस महावाक्य की रेड पीट दी गयी है. अनुवादक को भाषा की बेहतर समझ होनी चाहिए