समीर ताँती की कविताएँ ::
असमिया से अनुवाद : कल्पना पाठक

समीर ताँती

विदा भाई वसंत

विदा भाई वंसत
अब बादलों के आने का समय है

हमने खेतों को साफ़ कर लिया है
और बीज बो दिए हैं

मैदान के पत्थर यह बात जानते हैं
और युवा टिड्डियाँ जानती हैं

हमारा ख़ून पिघलकर
अब मिट्टी मीठी हो गई है
और पहाड़ के आलू भी अब मीठे हो गए हैं
इसलिए इतनी मीठी है
हमारी युवतियों के चेहरे की मुस्कान

हमारी टोकरी और फुँकनी तुम्हीं ने दिया
ये चादर के फूल और फुँकनी के टुकड़े
तुम्हारी तरफ़ से उपहार हैं

विदा भाई दुःख
अभी बादलों के आने का समय है
हम वसंत की तरह तुम्हें भी एक दिन
अपना मेहमान बना लेंगे।

नींद और स्वप्न के बीच में

नींद और स्वप्न के बीच
एक दरवाज़ा है

मैं उस दरवाज़े से
तितलियों के घर जाऊँगा

तुरा शहर की रातें
उस रहस्य की कथा जानती हैं

मैं रंगीन मिज़ाजियों के होठों की शराब हूँ
सूरज के हाथों बनाया हुआ

जिन रातों में बारिश रास्ता छुपा लेती है
मिट्टी खोलती है अँधेरे का भेद

कितनी रायफ़ल लगेंगी
फूलों का सामना करने में

कितनी मृत्यु से
एक नवजात का आमना-सामना किया जा सकता है

नींद और सपनों के बीच बैठकर
तितलियों ने पूछा
किसके सीने में कितनी गोलियाँ दाग़ी हैं

इंद्रधनुष की तरह रंगीन बन सकते हो
तुम जो अनिद्रा के उस पार हो
और अन्नहीनता के उस पार हो

ये बातें एक दिन कान लगाकर सुनना
मैं निद्रा के बीच से
सपनों की सुगंध से
तुम्हारे शहर में किसी दिन
इस सफलता के उत्सव का
रक्षक बनूँगा।

आग लगी बारिश में

आग लगी बारिश में पहाड़ियाँ भीग रही हैं
पानी के आईने में संध्या उसक-उसककर रो रही है

पहाड़ की तरह सीधे खड़े रहो
सीधे खड़े रहो
धूप के भाले की तरह

वे रास्ते सीधे नहीं हैं
जिन रास्तों से तुम
एक भूख, एक नींद, एक दिन के उद्देश्य की
व्याख्या करते हो

एक सपना दूसरे सपने को से सकता है
एक सपने के गर्भ से ही
एक दूसरे सपने की लंबी राह खुलती है
जिसमें हज़ार उद्विग्नताओं की दृश्यरेखा झिलमिलाती है

अँधेरे में कोई तलाशी ले रहा है
ख़ून से लथपथ जीभ चाट रही है
परछाईं के भीतर की परछाईं को

परछाइयों को छिपाकर रखो
छिपाकर रखो
परछाईं के भीतर ही परछाईं को
आसान नहीं होता छिपाकर रखना
अपना सीधा खड़ा रहना
अकेलेपन के नियम की तरह

तितलियाँ नियम से ही हर दिन
मिट्टी पर पहरा देती हैं

पत्ते नियम से ही पेड़ों को
एक बार मुक्त करते हैं

बुलाओ!
अपने भीतर के दरबान को बुलाओ
ताकि कल दरबार में खड़े होकर
समय को समाचार दे सको।

कल रात डूबकर मरने वाला आदमी
यशस्वी पत्रकार राधिकामोहन भागवती जी की स्मृति में

कल रात डूबकर मरा आदमी
सड़ना शुरू हो चुका है

अँधेरे का चेहरा धीरे-धीरे
नीला होने लगा है
तितलियाँ उस आदमी की आँखों के घोंसले तक
वापस जाने लगी हैं

चाँद पानी की प्रार्थना में शामिल होने के लिए
सफ़ेद कपड़े पहनकर उतर रहा है

जंगल एक हज़ार एक
दिया जला रखा है
पागल जग-मग जुगनुओं का
पछुआ हवा बहने से
रात थर-थर काँप रही है

यह कैसा समय, कितना समय, किसका समय
नक्षत्रों ने लिखा है

नामफाक के आसमान में इस घड़ी
धीरे-धीरे उस आदमी का धुआँ
शून्य तक उठ रहा है

उसका चेहरा दप-दप कर जल रहा है।

बादल, मैं और तुम्हारी मनमोहक हँसी

गुलाब की ललछौंह पंखुड़ियों की तरह
नाज़ुक हैं तुम्हारे दोनों होंठ
तुम्हारे सपनों की मधुरता में घुले
लंबे बालों की निर्जनता में
साँझ की हवा उतर रही है
अकेले-अकेले

जैसे तुम्हारे परित्यक्त देह-मंदिर से उठने वाली
पुदीना के पत्ते की मायावी सुगंध

क्या था उस दिन
तुम्हारी काजल भरी आँखों में

मैं तो ख़ुद को भूलकर डूब गया था
अज्ञात में
उस अनंत नीली अथाह जलराशि में

कहीं दूर पाटीदैया दल घास की गहराई से
एक जोड़ी बनमुर्ग़ी की करुण आवाज़ आ रही थी

तुम हो कौन-कौन हो तुम मेरी तरह
सूखी फटी वीरान ज़मीन
निर्जन सूनेपन में करवट बदलती हुई इस
अँधेरी रात के चादर के सन्नाटे में

मैं सपनों के लिए पागल
रास्ते-रास्ते भटक रहा
ढूँढ़ रहा इस पृथ्वी के हृदय में
कहाँ, कहाँ हैं मेरी
सपनों की तरह ख़ूबसूरत उजली रातें

हे मेरी शस्यरागिनी!
सूरज के राग-राग-राग से मोह लिया मुझे
तुम्हारे हृदय को आज चुपचाप कान लगाकर सुनता हूँ
हज़ार साल से भूखे किसान की करुण याचना को

बाँध लो! मुझे बाँध लो
दोनों बाँहें फैलाकर मुझे बाँध लो
हे मेरी मधुरआनना! अंतरतमा! प्रियतमा पृथ्वी!

शुद्ध हों आज और एक बार
रंग-रस से भरे
मेरे अनंत काल के उत्सव में
ये कल्याणकारी स्त्री-पुरुष
हर दिन, हमेशा के लिए
मेरी ख़ूबसूरत दुनिया में।


समीर ताँती [जन्म : 1955] असमिया के समादृत कवि हैं। कविता में उनकी गहन कल्पनात्मक आवाज़ एक ऐसे काव्य-लोक का निर्माण करती है जिसकी अनुगूँज उन्हें स्थायी और दूरगामी बनाती है। उनका कविता संग्रह ‘टिड्डियों को रास्ता पता है’ वर्ष 2024 के साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत हुआ है। यहाँ प्रस्तुत पाँच कविताएँ उनके इसी संग्रह से चयनित और अनूदित हैं। कल्पना पाठक बी.एन. कॉलेज, धुबरी, असम में प्राध्यापक हैं। उनका अनुवाद-कार्य [असमिया से हिंदी और हिंदी से असमिया] हिंदी और असमिया के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त असम सरकार की पाठ्य-पुस्तकों के अनुवादक के रूप में भी सक्रिय। उनसे jupitarapathak2014@gmail.com पर संवाद संभव है।

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *