नज़्में ::
तसनीफ़ हैदर

तसनीफ़ हैदर

मोहब्बत की पहली नज़्म

सारी रेशा-दवानियों की क़सम
फ़ितना-सामां निशानियों की क़सम
शह्र में आग और राख के बीच
हम तअल्लुक़ के गुल खिलाएंगे
ज़हन आज़ुर्दा, दिल फ़सुर्दा सही
हम बहर-हाल मुस्कुराएंगे
ज़र्द रातों की सब दीवारों पर
सीलने नाचती हैं शोलों की
काई उगती है सिर्फ़ जंगों की
जिसको लाशों से ज़र बनाना है
हमको उस कीमिया से क्या मतलब
आदमियत का ख़ून करता हो
हमको ऐसे ख़ुदा से क्या मतलब
कल भी हमने तेरी जवानी से
अहद-ए-नौ की बहार पैदा की
तेरी ज़ुल्फ़ों से छांव ली हमने
तेरे आरिज़ से धूप पैदा की
आज भी हम ये काम करते हैं
और आगे भी करते जाएंगे
उससे आगे भी करते जाएंगे
हम मोहब्बत की नज़्म लिखते हैं
हम मोहब्बत की नज़्म लिक्खेंगे

नींद से पहले

रात कितनी ही फ़िक्रें सर पर थीं
जिस मकां में मेरी रिहाइश है
उसे दो माह में बदलना है
चार छह सात काम करने हैं
एक नॉवेल अभी अधूरा है
ख़र्च ज़्यादा है और सांसें कम
ज़िंदगी की गरानियां तौबा
इज़्ज़तों का ख़याल, घर की फ़िक्र
मौत-सी ज़िंदगानियां तौबा
इन किताबों का फ़ायदा क्या है
क्या इन्हें भी किसी को दे दूं मैं
क़र्ज़ कुछ दोस्तों का बाक़ी है
क्या उन्हें कुछ दिनों का कह दूं मैं
दोस्त कोई न राज़दार कोई
बस मेरा अंदरून जानता है
ख़्वाब का क़त्ल किस ख़ुदा ने किया
आस्तीनों का ख़ून जानता है
क्या इन्हीं बे-ज़मीर लोगों में
ज़िंदगी काटनी पड़ेगी मुझे
इन्हीं ज़ुल्मत मिसाल गलियों से
रौशनी छांटनी पड़ेगी मुझे
भेड़ियों से ज़ियादा मौक़ापरस्त
ये सियासतज़दा सफ़ेद हिरन
चापलूसी पसंद तलवों पर
डालकर बैठते हैं जो रोग़न
शाइरी शोहरतों से सीटियों तक
इल्म से बे-ख़बर, ख़ला में ख़ुश
एक दो तीन लाख फ़ॉलोअर्ज़
हर कोई है इसी हवा में ख़ुश
इश्क़ जिससे करो वही कम्बख़्त
किसी इक दूसरे का आशिक़ है
या तो मैं ही बहुत कमीना हूं
या तो वो ही बहुत मुनाफ़िक़ है
आने वाले दिनों के अंदेशे
और बीते दिनों की रुसवाई
दूसरी सम्त मुझको डसती थी
अपने बिस्तर की नीम तन्हाई
अलग़रज़ इतने सारे झगड़ों को
कैसे इक शब में झेलता मैं भी
मां की गाली दी इक ज़माने को
और चुपचाप सो गया मैं भी

इक आवाज़ हमारी भी

इस धरती पर सब ही अपनी बात सुनाने आए हैं
ऊंचे महलों वाले भी और काले क़ीट भिखारी भी
मौलवी, पादरी, संत और सूफ़ी, पंडित और पुजारी भी
तोंदों वाले सौदागर, हलके फुलके ब्योपारी भी
शाइर भी, अफ़सानानिगार भी, नाक़िद भी और क़ारी भी
तस्बीहों वाले अल्लामा और जनेऊ-धारी भी
हारने वाले, जीतने वाले दोनों तरह के जुआरी भी
लंबे लंबे दरिया भी और छोटी सी चिंगारी भी
चीख़ते गाते चरिंद ओ परिंद भी, खेलती कूदती क्यारी भी
दुनिया भर के नेता, अभिनेता भी हैं, अधिकारी भी
इज़्ज़त, नाज और छत को रोती जनता जी बेचारी भी
इतने शोर में गूंज रही है इक आवाज़ हमारी भी

तन्हाई

तन्हाई ज़िंदगी का एक उसूल है
जिसे हम बार-बार तोड़ते हैं
और सज़ा के तौर पर
ज़िंदगी हम पर और तन्हाई उड़ेल देती है

तन्हाई की आंखें वीरान हैं
मैं उनमें शाइरी का काजल लगाता हूं
और उन्हें ख़ूबसूरत बनाने की कोशिश करता हूं

तन्हाई की लंबी-लंबी ज़ुल्फ़ें
उदासी की गर्द से अटी पड़ी हैं
मैं उन्हें कहानी के अलग-अलग पानियों से धोकर देखता हूं

तन्हाई मुझे नए रिश्ते बनाने पर उकसाती है
पुराने दोस्तों से बात करने का मशवरा देती है
जानी-पहचानी सूरतों की रौनक़ पर तब्सरे करती है
चुमकारती है, गाली बकती है, मेरी हालत पर हंसती है

मगर मैं अब ज़िंदगी का ये उसूल तोड़ने के मूड में नहीं हूं

आदमी के नाम

आदमी क़ैद है
वक़्त में, ख़ून में, लफ़्ज़ में
आदमी क़ैद है
आदमी का नहीं कोई पुरसान-ए-हाल
देवज़ाद-ए-तरब से ख़ुदा-ए-शबिस्तान-ग़म तक नहीं
दार की नोक से
आबनूसी तफ़क्कुर लुटाते क़लम तक नहीं
आदमी का लहू, बे-निशां, नौहा-ख़्वां
आदमी का सफ़र, रायगां, बे-अमां
बस्तियों में हैं आबाद सब बे-कफ़न आदमी
बे-पैरहन आदमी, और उनके तअफ्फ़ुनज़दा ज़हन में ज़िंदगी क़ैद है
आदमी क़ैद है

मज़हबों के अलमदार, शब के परसतार ये आदमी
सरहदों के निगहदार ये आदमी
इक तिलिस्म-ए-सियह फूंकते ख़्वाब के ज़ेर-ए-मिंक़ार ये आदमी
बे-यार, बे-कार ये आदमी
अपनी तक़्दीस का बोझ कांधों पे लेकर
अपनी तारीख़ का दर्द आंखों में लेकर
मौत के तलबगार ये आदमी
भागते दौड़ते आदमियों के रेवड़ में होंठों की आहिस्तगी क़ैद है
अपने ही शह्र को भस्म करती हुई आग में रौशनी क़ैद है
आदमी क़ैद है
आदमी से कहो
मौत नज़दीक है
आदमी से कहो, राह तारीक है
आदमी से कहो, वो जो कुछ कर रहा है नहीं ठीक है
आदमी से कहो
अपने जलते घरों की हिफ़ाज़त करे
अपने बीमार होते मौसमों की हिफ़ाज़त करे
अपनी तारीख़ को छोड़ दे, अपने मुस्तक़बिलों की हिफ़ाज़त करे
आदमी से कहो
वो गुज़रते हुए और गुज़रे हुए वक़्त के दरमियां
आज भी क़ैद है
आदमी क़ैद है

मोहब्बत की आख़िरी नज़्म

दो लोगों को बिछड़ने से पहले
ठीक से मिल लेना चाहिए
दरवाज़ों के पीछे
नर्म और मख़मली बिस्तरों की लंबी गहरी सांसों के बीच
उन्हें एक दूसरे के बदन की महक को
अपनी खाल के बारीक सुराख़ों में जज़्ब कर लेना चाहिए
उन्हें गुज़ारना चाहिए एक ऐसी शाम
जो धर्म की ज़ंजीरों से बंधे हुए
बीमार कुत्तों के मुंह पर एक तमाचा हो
उन्हें पेट की नर्म ज़मीन पर उंगलियों के दो-मुंहे क़लम से
लिखना चाहिए समाज की मुर्दा ज़हनियत का नौहा
दो लोगों को
अपने होंठों, हाथों, टांगों और सीनों पर

वो कंपकंपाहट लपेटनी चाहिए
जिसे गुज़रते हुए वक़्त की सैकड़ों, हज़ारों चादरें दूर न कर सकें
दो लोगों को एक दूसरे के साथ
मुकम्मल तौर पर दूसरा हो जाने से पहले
एक दफ़ा ज़रूर एक होकर देखना चाहिए

***

तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई कविता के चंद चमकीले नामों से एक हैं. ‘अदबी दुनिया’ से संबद्ध हैं. दिल्ली में रहते हैं. उनसे sayyed.tasneef@gmail.com पर बात की जा सकती है. यहां प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में उन्होंने खुद लिप्यंतरित की हैं. पाठ में मुश्किल लग रहे शब्दों के मानी जानने के लिए इस शब्दकोश को देखा जा सकता है.

2 Comments

  1. संजय मनहरण सिंह मार्च 29, 2018 at 5:55 पूर्वाह्न

    मजा आ गया पढ़कर। खुदा उन्हें मुहब्बत करने और मुहब्बत को खुदा करने की ताकत दे।

    Reply
  2. विशाल कपूर मार्च 30, 2018 at 3:54 पूर्वाह्न

    बहुत ख़ूब तसनीफ़ ।

    Reply

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