ऑक्टेवियो पाज़ की कविताएँ ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अखिलेश सिंह
पुल
अभी और अभी के बीच
‘तुम हो’ और ‘मैं हूँ’ के बीच
शब्द ही पुल हैं
संसार संपृक्त है
और छल्ले की तरह बंद
इसमें प्रवेश करते हुए
तुम स्वयं में प्रवेश करते हो
एक किनारे से दूसरे तक
हमेशा
एक ही काया का विस्तार है—
एक इंद्रधनुष
जिसके मेहराबों के नीचे मैं सोऊँगा।
अंतिम सुबह
तुम्हारे बाल जंगल में खो गए
तुम्हारे पैर मेरे पैरों को छू रहे
सोते हुए तुम रात से बड़े हो
लेकिन तुम्हारे स्वप्न इसी कमरे तक हैं
हम कितने अधिक हैं
इतने थोड़े होकर भी
बाहर एक टैक्सी गुज़रती है
भूतों का बोझा लादे हुए
नदी जो कि कुछ कहती है
हमेशा उसे ही कहती रहती है
क्या कल कोई और दिन होगा?
हवा,पानी, पत्थर
रोजर कैलोइस के लिए
पत्थर में घोल बना देता है पानी
पानी को छिटका देती है हवा
हवा को थाम देता है पत्थर
पानी, हवा, पत्थर
हवा तराशती है पत्थर
पत्थर ही है
पानी का एक कप
पानी उड़ जाता है
और हवा बन जाता है
पत्थर, हवा, पानी
हवा अपने घेरे में गाती है घूमते हुए
पानी गुनगुनाता है गुज़रते हुए
अचल पत्थर शांत रहता है
हवा, पानी, पत्थर
सब कुछ अपने से परे भी है
और नहीं भी—
गुज़रता और ग़ायब होता हुआ
अपने रिक्त नामों से होकर—
पानी, पत्थर, हवा
मेरे तुम
मेरी देह में तुम पहाड़ को खोजते हो
क्योंकि सूरज दफ़नाया हुआ है
इसके वन में
तुम्हारी देह में मैं नाव खोजता हूँ
मध्य रात्रि में मचलती बहती हुई।
आर-पार
मै दैनंदिनी के पन्नों को पलटता हूँ
उसे लिखते हुए
जो मुझसे कहा है—
तुम्हारी पलकों की चपलता ने
मै तुममें प्रवेश करता हूँ—
अँधेरे में छुपी सचाई!
मैं अँधेरे के प्रमाण चाहता हूँ
चाहता हूँ ब्लैक वाइन पीना :
मेरी आँखें ले लो
और उन्हें कुचल दो
निशा की एक बूँद
तुम्हारे चूचुकों पर—
रहस्यों से भरी लालिमा!
बंद होती हुईं मेरी आँखें
मै खोलता हूँ उन्हें
तुम्हारी आँखों के भीतर
जागता हूँ हमेशा
इसकी लाल मसहरी पर—
यह तुम्हारी गीली जिह्वा!
तुम्हारी शिराओं के बग़ीचे में
झरने गिर रहे हैं
रक्त का मुखौटा पहने हुए
मैं तुम्हारे विचारों से गुज़रता हूँ—विरक्त
भूलने से हुआ मेरा पथ प्रशस्त—
जीवन के एक दूसरे छोर की ओर।
भाईचारा
मैं एक आदमी हूँ :
कितनी देर टिकूँगा!
जबकि रात बहुत बड़ी है
मैं ऊपर नज़र डालता हूँ :
सितारे लिखते हैं!
अनजाने ही
मैं पाता हूँ :
कि मैं भी लिखा जाता हूँ!
कोई मुझसे यही कहता है—
ठीक इसी क्षण।
स्पर्श
मेरे हाथ
तुम्हारे वजूद से पर्दे हटाते हैं
तुम्हें वेशभूषित करते हैं
एक और नग्नता में
उद्घाटित करते हैं
तुम्हारी काया भीतर कायाओं को
मेरे हाथ
आविष्कृत करते हैं
तुम्हारी देह के लिए
एक और देह।
जैसे बरखा को सुनता है कोई
मुझे सुनो जैसे बरखा को सुनता है कोई
होकर न बहुत सचेत न ही बहुत उन्मत्त
हल्के क़दमताल, हल्की फुहारें
पानी हवा की तरह
हवा बह रही समय की तरह
दिन अभी भी प्रस्थान कर रहा है
रात को आना है अभी भी
नुक्कड़ के इस मोड़ पर
घिरता हुआ कुहासा—
इस ठहराव के बिंदु पर
समय की रूपरेखा है
मुझे सुनो जैसे बरखा को सुनता है कोई
बिना ध्यान दिए भी सुनो—
जो मैं कहता हूँ
उन आँखों से जो मुँदी हुईं—
भीतर खुलती हैं
सभी पाँच इंद्रियों से—जाग्रत
बरखा, हल्के क़दम, अक्षरों की बुदबुदाहट
हवा और पानी, भारमुक्त शब्द :
जो हम हैं, वह हैं
दिन और साल, यह क्षण
भारहीन समय और भारी दुःख
मुझे सुनो जैसे बरखा को सुनता है कोई
गीला डामर चमक रहा है
भाप उठती है—छू हो जाती है
रात खुलती है और मुझे देखती है
तुम हो—तुम और भाप से बनी तुम्हारी देह
तुम हो—तुम और रात से ढका तुम्हारा चेहरा
तुम और तुम्हारे बाल, धीमी चमकती बिजली
तुम गली पार करते हो
और मेरे माथे में घुस जाते हो
मेरी आँखों के आर-पार
पानी की क़दमताल
मुझे सुनो जैसे बरखा को सुनता है कोई
डामर चमकता है, तुम गली से गुज़रते हो
यह नीहार है, रात को भटकता हुआ
यह रात है तुम्हारे बिस्तर में सोई हुई
यह लहरों की हिलोर है
तुम्हारी साँस में
मेरे माथे को तर कर रही हैं
तुम्हारी पनीली उँगलियाँ
तुम्हारी जलती हुई उँगलियों से
मेरी आँखें जल जाती हैं
तुम्हारी उँगलियाँ—हवा की,
खोलती हैं समय की पलकें
एक वसंत—सपनों का और पुनर्जीवन का
मुझे सुनो जैसे बरखा को सुनता है कोई
गुज़रते हैं साल, लौटते हैं क्षण
तुम सुनते हो पदचाप अगले कमरे में?
यहाँ नहीं, वहाँ नहीं : कान धरो उन पर
एक और समय में, बिल्कुल अभी
समय की पदचाप सुनो
टैरेस से टकराती बरखा को सुनो
रात अधिक रात है
उन पेड़ों के झुरमुट में
छुप गई है पत्तों में दामिनी
एक अशांत उपवन इधर-उधर डोलता है
इस पन्ने को ढकती है तुम्हारी छाया।
ऑक्टेवियो पाज़ (1914-1998) नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मैक्सिकन कवि-लेखक हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ अँग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद करने के लिए Poetry Foundation और PoemHunter से चुनी गई हैं। अखिलेश सिंह नई पीढ़ी के सुपरिचित कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : मैं तुम्हारे साथ सोना चाहती हूँ कुहनी से कुहनी फँसाकर