प्रमिता भौमिक की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

bangla poet Promita Bhowmik
प्रमिता भौमिक

अजन्मी बेटी को

इन दिनों
भोर रात के सपने में
मुझे दिखाई देती है अपनी अजन्मी बिटिया
अपने छोटे हाथों की मुट्ठियों में
उसने कसकर जकड़ रखी है मेरी उँगली,
पसीने से भीग जाती है मेरी समूची देह—
बेवजह नींद टूट जाती है

अधखुली आँखों के सामने
वह दौड़ती चली आती है
बाँहें पसारे,
लंबे नाड़ी-पथ पर
इतने समय से बिखरी हुई थीं
हमारी दंतकथाएँ—
हीरामन, दुओरानी, मत्स्यकन्या सुख

उजाला तेज़ होने पर
फिसलन भरी देह पर लगे रहते हैं
दमघोंटू विकट रोग
गुड्डे-गुड़ियों से खेलने वाला कमरा
अनिवार्य नींद में ढुलक जाता है।

इन दिनों

इन दिनों वह दिखाई देती है—
दिखाई देती है भोर के सपने के पास
निरापद मुक्ति बन लौट जाती है
तो कभी आईने पर उजास फैलाकर
देह के भीतर से निकल आता है
नया शरीर

दवाई हाथ में लिए
मैं निःशब्द बढ़ जाती हूँ उसकी ओर
उसके हाथ, पैर, सिरविहीन
अवयवों की विच्छिन्न शिरा-उपशिराएँ;
मेरे कानों के पास बड़बड़ाती हैं—
बह जाता है संसार

अनमनी होकर उसे देखती हूँ
ख़ुद को ही लिए-दिए फिरती हूँ
टूटा मन, स्मृति-सुख
और आँखों की पलकें।

कभी-कभी

कभी-कभी
दुर्योग की दो-एक रात
जाग उठें भग्न अँधेरे में
समूचे रन-वे पर बिखर जाए
विराट आसमान
त्रिकोण द्वीप की देह में
घर कर लें बीमारियाँ,
कुछ सपने मर जाएँगे
इसलिए कम से कम एक बार
भात की कमी और प्रेम का अभाव
एक साथ बातें करें
मनुष्य के मस्तिष्क के पास,
दरवाज़ा खुलने के बाद
हट जाए परिचित निर्वासन,
ठीक राह की तलाश के पहले ही
भीड़ में बिला जाएँ—साल, महीने और दिन

कभी-कभी
दुर्योग के दो-एक दिन
बदल दें ईश्वर का अर्थ।

रोज़नामचा

मैं हर रोज़ हारती जाती हूँ
और सुदूर उड़ता चला जाता है
नीला पक्षी—
शून्य के ऊपर, भोर की राह में
प्रश्नों के भीतर
अपने अर्थहीन बचे रहने को क़बूल करती हूँ,
प्राचीन जलाशय से उठ आए
निरंतर क्षीण होते मनुष्य-जन्म को
हौले-से काँपते हाथों से छूती हूँ

सीने के भीतर रहती रंगीन ऋतु में
धूल उड़ रही है
घनीभूत हो उठा है अँधेरा,
तुम्हारे चेहरे को निहारते हुए
और एक बार ढुलकते सूर्यास्त को
देखने की इच्छा हो रही है।

यापन

हर रोज़ आँख खोलते ही
सिर के चारों ओर
उभर आती है युद्ध की तस्वीरें,
मुझे जीवित रहना है
इसलिए बहुत सहज ही
मार देती हूँ शोक, क्षोभ, मान, अभिमान—
लेकिन नाभि के नीचे हाथ रख
भूख को किसी भी सूरत में
झूठ नहीं मान पाती हूँ

एक चुस्की में धर्म
दूसरी चुस्की में राजनीति
आज मुझे उभार रही है;
धूल में से चेहरा उठाकर
ये छोटे-छोटे सारे परिच्छेद
मैं काग़ज़ पर उतार रही हूँ

और आप भी कितनी सहजता से
उन सब पर विश्वास करते चल रहे हैं!

***

प्रमिता भौमिक (जन्म : 1984) बांग्ला की सुपरिचित कवयित्री हैं। उनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। उनसे promitabhowmik@gmail.com पर बात की जा सकती है। उत्पल बैनर्जी हिंदी के सुपरिचित कवि-अनुवादक हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘लोहा बहुत उदास है’ शीर्षक से प्रकाशित है। बांग्ला के कई महत्वपूर्ण रचनाकारों को बांग्ला से अनुवाद के ज़रिए हिंदी में लाने का श्रेय उन्हें प्राप्त है। वह इंदौर में रहते हैं। उनसे banerjeeutpal1@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 21वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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