सितांशु यशश्चंद्र की कविताएँ ::
अनुवाद : गगन गिल

सितांशु यशश्चंद्र

हर चीज़, दो दो

हर चीज़ जो मेरे पास है, दो दो है
हर दरवाज़ा, हर दीवार, हर चाँद,
हर मैदान, हर शहर या कप या सितारा

एक कप काँच का बना हुआ
और वही स्टेनलेस स्टील का बना हुआ।

काँच के तारे को
हर संभव सँजोए रखता हूँ
बच सके उतने ज़्यादा समय।

बरसों, क्षणों, सदियों या हफ़्तों तक
उसे बचाता रहता हूँ,
टूटने से,
चिड़ियों के पंख से,
जो कर सकते हैं टुकड़ा-टुकड़ा।

कहीं फिसल न जाए हाथ की पकड़ से,
लग न जाए कहीं पैर की ठोकर,
नीचे न जा पड़े यह
किसी की खुली खिड़की से,
काँच का यह तारा या शहर।

इस कोशिश में लगा देता हूँ
अपनी ज़िंदगी
आख़िरकार
जब वह काँच का बना कप
अचानक टूटता है
अप्रत्याशित।

तब
आहिस्ते से
मेरे ख़याल में आती है
पूरी लबालब भरी हुई
स्टील की चीज़।

पानी में घन पटकता हूँ

पानी में घन पटकता हूँ
और बजने लगती हैं झालरें हवेली की

एक भवन ऐसा भी है
खोजते-खोजते जिसे
निकल जाते हैं
नगर के पार

शाम को डूबा-खपा सूरज
कँटीली रात की अटपटी
किन तारा-पगडंडियों से होकर
आ पहुँचता है भोर के छोर पर
कुछ कहा नहीं जा सकता

आग की लपटों के उगते हैं लंबे पंख
उड़ जाता हूँ चंदन आकाश की
चोटी तक

भूरी बिल्लौरी हवा संग टकराता हूँ
मद झरते हाथी-सा
तो खुल जाता है जो
वह भी दरवाज़ा है एक

इसके उस तरफ़ के भवन में भी
बज उठती हैं झालरें हवेली की


गुजराती के शीर्ष साहित्यकार सितांशु यशश्चंद्र (जन्म : 1941) भारतीय कविता के एक अत्यंत समादृत हस्ताक्षर हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘जटायु, रुगोवा और अन्य कविताएँ’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2022) शीर्षक पुस्तक से साभार हैं। गगन गिल (जन्म : 1959) हिंदी की सुपरिचित कवयित्री-लेखिका और अनुवादक हैं।

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *