कविताएँ ::
प्रभात
निर्विघ्न
मैं निर्विघ्न खाना खा रहा हूँ
तो यह यूँ ही नहीं है
यह एक ऐतिहासिक बात है
ऐसा न हो कि मेरे बाबा की तरह
मेरे मुँह से भी कोई कारिंदा रोटी का कौर छीनने आ जाए
मेरे लिए गांधी उपवास पर रहे
मैं निर्विघ्न पढ़ रहा हूँ
तो यह यूँ ही नहीं है
ख़ास तौर से एक जातिवादी देश में
सदियों जिसमें अधिकांश जातियों को
पढ़ने-लिखने से रोक कर रखा गया
ज्योतिबा, सावित्रीबाई
नाना भाई, सेंगा भाई
अंबेडकर जैसे कितने ही लोगों ने
मेरे लिए यातनाएँ झेली हैं
तब जाकर मेरा पढ़ना-लिखना संभव हुआ है
हम देर रात
विश्वविद्यालय की सड़कों पर
निर्विघ्न टहलते थे
चर्चाएँ किया करते थे
गर्म बहसें हुआ करती थीं
और कोई गिरोह
हमें देशद्रोही कहने नहीं आता था
तो यह यूँ ही नहीं था
बहस-मुबाहिसे की रवायत
विश्वविद्यालयों में क़ायम हो
और मैं उनमें अपने विचारों के साथ खड़ा रह सकूँ
मेरे लिए जवाहर जेल में रहे
मैं जीवन का जितना भी हिस्सा
निर्विघ्न जी सका
उसके पीछे ‘निर्विघ्नं कुरू मे देव
सर्व कार्येषु सर्वदा’
जैसा कोई श्लोक नहीं
लोकशाही के लिए संघर्ष करने वालों का
सुदीर्घ इतिहास रहा
विपरीत समय
बारह साल का गोरा गदबदा लड़का
आज ही आया था काम पर
रंदा हाथ में लिया था बनासे जा रहे वनों से आए
सागवान को छीलने के लिए
तो आज तुम्हारे काम का पहला दिन है
नौकरी का पहला दिन
कितना पैसा मिलेगा तुम्हें आज के काम का?
वह बिखेरता रहा कच्ची हरी मुस्कान
उसके ठेकेदार ने दिया जवाब
अभी यह सीख रहा है
अभी पैसा कहाँ?
घर की जैसी दशा थी
अच्छा ही था कि दिशाहीन स्कूल में नहीं था
असमय ही काम पर चला आया था
और अब
यहाँ से उसके विपरीत समय को देखा जा सकता था
जो विपरीत ही रहेगा उसकी मौत तक
लौटना
गाँव से शहर आए उस परिवार के मुखिया को
कंपनी में काम मिल गया
लोन मिल गया
मकान बन गया
बच्चों को अँग्रेज़ी स्कूल में दाख़िला मिल गया
एक दिन कंपनी डूब गई
परिवार के मुखिया को
काम से हटने का नोटिस मिला
बैंक से लोन चुकाने का दबाव बढ़ा
मकान बेचना पड़ा
बच्चों को अँग्रेज़ी स्कूल से निकालना पड़ा
गाँव लौट जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा
गाँव में खपरैल का कवेलू उतरा हुआ मिला
घर के आगे की चबूतरी रास्ते में बदली हुई मिली
खेतों के कोने दबे हुए मिले
चार साल से बंद घर में
बाशिंदों को खड़े पाकर
एक दो लोग आए हाल-चाल पूछने
एक दो औरतें आईं गले मिलने
एक दो बच्चे आए बच्चों के साथ खेलने
कंपनी का थ्रैशर
वह तो कुछ और करता था
जिसमें उसका मन लगता था
जीवन गुज़ारा भी हो रहा था
लेकिन एक दिन एक कंपनी ने
उसके आगे थ्रैशर ला खड़ा किया
कंपनी की समाज कल्याण शाखा का
यह करोड़ों का लेकिन नगण्य कारोबार था
उसे बताया गया कि यह थ्रैशर तुम्हारा है
वह थ्रैशर के इर्द-गिर्द सपने बुनने लगा
जबकि वह न किसान था न ड्राइवर
कि उसे उसकी थोड़ी भी ज़रूरत होती
उसने वह थ्रैशर ले लिया
उससे आमदनी के बारे में सोचने लगा
कैसे इतना कमा ले
कि एक और थ्रैशर ख़रीद ले
ज़िंदगी के बाक़ी दिन
इसी उधेड़बुन में गुज़रने लगे
क्या किया जाए कि थ्रैशर वापस न करना पड़े
इसे चोरी होने से बचाने के लिए क्या किया जा सकता है
इसका हिसाब न देना पड़े इसके लिए किससे सलाह ली जा सकती है
थ्रैशर मशीन से जैसे भूसा भुस-भुस निकलता है
जीवन का समय भुस-भुस निकलने लगा
उसके जीवन की समाप्ति के साथ
कंपनी का एक टारगेट पूरा हुआ
कंपनी ने चार सौ पिचहत्तर लोगों को
मुफ़्त थ्रैशर मुहैय्या करवाए थे
कंपनी का लक्ष्य आगामी वित्तीय वर्ष में
दो हज़ार के आँकड़े को छूना है
बेदख़ली
खेतों और जंगलों से तो बेदख़ली हो चुकी
अब तो पृथ्वी से बेदख़ल किए जा रहे हैं लोग
हिटलर अब सिर्फ़ तानाशाह का नाम नहीं
सभ्यता का नाम है
तरह-तरह के गैस चैंबर
हर देश के हर प्रांत और
जिला स्तर पर हैं
अपने आपको पहचानने में
नाकाम लोगों को मालूम नहीं
वे मारने वाले सिपाहियों की टुकड़ी में खड़े हैं
या मरने वालों के शिविर में बैठे हैं
अटके काम
पंतगें अटकी हुई भी सुंदर लगती हैं
उन्हें उड़ने से कितनी देर रोका जा सकता है
आते ही होंगे लकड़ियों के लग्गे लिए लड़के
उतार लेंगे हर अटकी हुई पतंग
फड़फड़ाते हुए फट ही क्यों न जाए
कहीं अटकी हुई पतंग
इस बात को कौन मिटा सकता है भला
कि जब तक अटकी हुई दिखती रही
बच्चे उसे पाने की इच्छा करते रहे
नमी
वह कौन था जो देर रात
जानकारी माँग रहा था :
बैंक खाते के बारे में नहीं
घर गाँव खेत बीवी बच्चों के बारे में
अंधकार में जब
कुत्ते विलाप कर रहे थे
वह किसके फ़ोन की घंटी थी
उसे क्या दिलचस्पी थी
हिंदुओं के अलावा किनसे मिलता हूँ
दलितों से बार-बार क्यों मिलता हूँ
वह कौन था जो अकेला नहीं था फ़ोन पर
कौन लोग हँस रहे थे पार्श्व में
इन दिनों माहौल में
जल की बूँदों की नहीं
लहू की बूँदों की नमी है
क्या तुम रोई हो?
तुम देख लेते हो उसे
वहाँ से निकल कर आते हुए
अपने भीतर जहाँ जाकर
सिसकती है अक्सर
तुम पूछते हो :
क्या हुआ?
वह कहती है :
कुछ नहीं
तुम फिर पूछते हो :
क्या तुम रोई हो?
वह विस्मय से देखती है तुम्हें
और कहती है :
मैं?
नहीं तो
तुम कहते हो :
तुम कुछ छिपा रही हो
वह कहती है :
क्या छिपाऊँगी तुमसे
ऐसे क्यों पूछ रहे हो
क्या हो गया है तुम्हें
और तुम्हारे लिए
खाना लगाती है
हिंदी
अपने ही घर में हिंदी की हैसियत
एक रखैल की-सी हो गई है
अँग्रेज़ी पटरानी बनी बैठी है
अँग्रेज़ी के बच्चे शासकों के बच्चों की तरह
पाले-पोसे जाते हैं
हिंदी के बच्चों की हैसियत
दासीपुत्रों सरीखी है
अंग्रेज़ी के बच्चे ही वास्तविक बच्चों की तरह देखे जाते हैं—
भावी शासकों की तरह
हिंदी के बच्चों को ज़मीनी अनुभवों और योग्यताओं के बावजूद
उनके सामने हमेशा नज़र नीची किए विनम्र बने रहना होता है
हिंदी हाशिए पर धकेल दिए गए अपने बच्चों के साथ
शिविर में रहती है
अँग्रेज़ी राजमहलों में
हिंदी अब थकी-थकी-सी रहती है
उसके अनथक श्रम का कहीं कोई मूल्य नहीं है
उसके बच्चों का भविष्य अंधकार से भरा है
कुछ है जो भीतर ही भीतर खाए जाता है
आते-जाते हाँफने लगी है
भयभीत-सी रहने लगी है
कल की ही बात है
नींद में ऐसे छटपटा रही थी जैसे कोई उसका गला दबा रहा हो
बच्चे ने जगाया :
माँ! माँ! क्या हुआ!
पथरायी आँखों से बच्चे के चेहरे की ओर देखते बोली :
क्या मैं कुछ कह रही थी?
हाँ तुम डर रही थीं!
थकान से निढाल फिर से सो गई
सोते-सोते ही बताया :
बड़ा अजीब-सा सपना था
अँग्रेज़ी ने मुझे पानी में धक्का दे दिया
उसे लगा पानी कम है
वह हालाँकि हँसी-मज़ाक़ ही कर रही थी
लेकिन पानी बहुत गहरा था
मैं डूब रही थी
इतने ही में तुमने मुझे जगा दिया
जाओ सो जाओ
अभी बहुत रात है
बुदबुदाते हुए वह सो गई
तुम्हारी कविताएँ
जैसे प्रेमी प्रेमिका मिलते हैं पुआल के ढेर में
मैं तुम्हारी कविताओं से मिलता हूँ
जैसे कोई प्रेमी देखता है
क्या पहनकर आई है वह
कैसे क़दम धरते हुए आई है धरती पर
आते ही क्या फुसफुसाया उसने
अब कैसी दिख रही है
उसका चेहरा, दाँत और कान
आँखें क्या कह रही हैं
सिर के बालों में
गौरैया के पंख का रोम
बबूल के फूल का रेशा
बता रहे हैं
किन रास्तों से होकर आई है
बिना बोले भी कितना कुछ पता चलता है
एक बार मिल लेने से
कुछ भी लिया नहीं दिया नहीं
तब भी कितना कुछ साथ चला आता है
अँधेरे में गिरती ओस में भीगते हुए लौटते समय
ऐसे ही कट जाएँ बचे-कुचे दिन
तुम्हारी कविताओं के चाँद के नीचे चलते हुए
***
प्रभात सुपरिचित हिंदी कवि हैं। ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ शीर्षक से उनका एक कविता-संग्रह साल 2014 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित और प्रशंसित हुआ। वह सवाईमाधोपुर, राजस्थान में रहते हैं। उनसे prabhaaat@gmail.com पर बात की जा सकती है।
ओह! कविता पढ़ने की शुरुआत की थी, सरसरी नज़र डालनी थी लेकिन ज्यूँ ही कविता का छोर पकड़ा रुक ही नहीं पाया। सच्चाई को इस कदर रखा गया कि अंतस में धंसते गए। तंज और मारकता से लबरेज़ इन कविताओं को शायद ही कभी भूल पाऊं। सदानीरा का आभारी हूँ इस प्रस्तुति के लिए, कवि प्रभात को उनके अद्भुत रचनाओं के लिए साधुवाद
प्रभात की एक कविता भी ऐसी नहीं होती जिसे पढ़ कर तुरंत एक कविता लिखने की इच्छा न जाग जाये। बहुत अच्छी कविता ही यह तिलिस्म जानती है। हमेशा की तरह जीवन से उगी मार्मिक कविताएँ। सदानीरा को बधाई, प्रभात को पुनः खोज लाने के लिए।
प्रभात की कविताएँ जीवन की संजीवनी है, इन कविताओं को पढते समझते लगता है कि इन में होकर प्राणदायिनी ऊर्जावान वायु आ रही है ।
प्रभात और विनोद पदरज राजस्थान बहुत प्यारे कवियों में से है।साधो सदानीरा।