फ़हीम शनास काज़मी की नज़्में ::
उर्दू से लिप्यंतरण : ज़ुबैर सैफ़ी

फ़हीम शनास काज़मी

एक ख़्वाजासरा का नौहा

ऐ देखो!
ये कौन सा लम्हा गुज़र गया?
ये क्या हुआ?
लरज़ने लगे घर के बाम-ओ-दर
ये क्या कि गर्द उड़ी दूर-दूर तक
क्यूँ आँख-आँख ख़ून से लबरेज़ हो गई
वहशी हवा में उड़ती हैं शीशे की किरचियाँ
और धूप हाथ आँखों पे रखकर हैं चीख़ती
चीलें हैं
आसमान है
आँखें हैं
और ये दिल
काली बिल्ली काट गई है रस्ता मेरा
और शाम रास्ते में सुखाती है अपने बाल
ख़्वाबों के अब्र बरसे नहीं तपती नींद पर
और कितनी तिश्ना आँखें यहाँ ख़ाक हो गईं
ख़ुद से ग़ुरेज़ कीजियो
हरग़िज़ ना सोचियो
ये सोच ही दिमाग़ का नासूर होवे है
दिल है गुलाब
उसको ना पत्थर पे तोड़ियो
सौसन, बहार, नरगिस-ओ-चम्पा यहीं पे थीं
किस सम्त को गईं?
और कितनी धूप ढल चुकी दीवार-ए-शाम से
और ख़्वाबगाह में अब तक नहीं जला चराग़
हर सम्त गहरी शाम रचाती है रास और
शाम-ए-अवध में सुबह-ए-बनारस भी खो गई
और रौशनी में रौशनी बाक़ी नहीं रही

ऐ दौड़ियो!
ज़माने की बदली है कैसी चाल?
ऐ देखियो!
शहर में भूचाल आ गया?
ऐ देखियो!
सितारा-ओ-अज़रा-ओ-ख़ुश जमाल
इधर आईयो ज़रा..
हर सम्त ऐसा घोर अँधेरा हुआ हैं क्यों
ऐ देखियो!
ये आँख क्यों पथरा गई मेरी?

ख़्वाबगर लड़की

उसके ख़्वाबों में तस्वीरें हैं
एक ही रंग है—गहरा सुर्ख़
उसकी मँगनी टूट गई थी
अब वो एक मुसव्विर है

ज़वाल

मकड़ी एक नुक़्ते से काम शुरू करती है
सुंदर—उजला—दिलकश
वो नुक़्ते के चारों तरफ़ रेशमी जाला बुनती है
फिर महके उजले सारे हर्फ़, सारी ज़बाँ खा जाती है
मकड़ी ज़बाँ को खा के
लबों के दर पे जाला बुनती है
फिर घर पे जाला बुनती है
फिर शहर पे जाला बुनती है
फिर तहज़ीबें खा जाती है
फिर…

ये लोग क्या हैं

ये शहर-ए-ख़्वाब की मर्दुम-शुमारी करने वाले, सब परेशान हैं
ये कैसी ज़ख़्मी आँखें हैं, जो सपनों को जन्म देती हैं
कैसे लोग हैं
जो रात भर चकराए फिरते हैं
ख़्याल-ओ-ख़्वाब की गलियों में
घर को याद करते हैं
न रोते हैं
न हँसते हैं
ये कैसे फूल हैं
जो मुस्कुराते हैं
दिलों के जलते सहरा में
ये कैसी आतिश-ए-नादीदा है, कि जो
जलाती जा रही है घर
मचलती, रक़्स करती जा रही है अपनी मस्ती में
हमारे ख़्वाब की मर्दुम-शुमारी करने वाले
सख़्त हैरान और परेशान हैं
ये कैसा शहर है
ये लोग क्या हैं
अपनी महरूमी पे कैसे मुस्कुराते हैं

स्टॉप्ड

जिनके तुख़्म ही आलूदा हों
ऐसी अनचाही नस्लों से
ख़्वाब-ए-मुहब्बत की तकरीम नहीं मुमकिन
नाम-ओ-नसब और वफ़ाओं की ताज़ीम नहीं मुमकिन
गंदी गोद के परवरदों के दामन मैले होते हैं
सच्चाई गर छू भी जाए बरसों दामन धोते हैं
उनके जिस्म दुकानों जैसे
दफ़्तर-दफ़्तर अहल-ए-हवस की प्यास बुझाएँ
नस्लों की तकरीम गँवाएँ
चाँदनी उन की राह में आए तो पछताए
धूप भी उनके चेहरे देखे तो जल जाए
जिनके तुख़्म ही आलूदा हों
उनकी क़ीमत सिर्फ़ हवस है
जिन रहमों में सब नस्लों के बीज पड़े हों
उन पौधों पे किन रंगों के फूल खिलेंगे
उनका हासिल क्या होगा…?

नसीहत

सपने देखना
अच्छा है पर
उनकी ख़ातिर
अपनी आँखें
मत खो देना

ख़ानाबदोश

रस्ता-रस्ता
घूम के जब हम
वापस लौटे
घर भी रस्ते जैसा पाया

तारीख़ बुरीदा मुस्तक़बिल की नज़्म

पाया-ए-तख़्त पे जिसने भी ये लिक्खा
“मैं हूँ”
वक़्त ने देखा कि वो तख़्ते में तब्दील हुआ
दम-ब-दम बुझती हुई आँखों से
वो न पहचान सका
तश्त में फूलों से सर
किस के हैं
वो नहीं देख सका
कि कौन से लम्हे क़यामत का हुआ था आग़ाज़
नशे में ग़र्क़ हो जो होश उसे कब आया
वो न पहचान सका
ख़ुद को भी
आग और ख़ून में डूबी हुई गलियों का समाँ
वो नहीं देख सका
उसकी हुरमत की रसन-बस्ता थीं
वो नहीं जान सका ये असरार
जो भी तारीख़ को ठुकराता है
क़त्ल हर रोज़ वो होता है नई तरह से
पाया-ए-तख़्त पे जिसने भी ये लिक्खा
“मैं हूँ”
दफ़्न होने के लिए मिलती नहीं उसको ज़मीं

मुझे उसने जन्मा था…

मुझे उसने जन्मा दुखों के लिए
जहाँ ख़ामोशी सूखे पत्तों पे चलते हुए काँपती है,
जहाँ तीरगी हाँफ़ती है
जहाँ दर्द सूखी हुई टहनियों से है लिपटा हुआ,
जहाँ दूर तक साँप ही साँप हैं
ईसा है न मूसा, जहाँ दूर तक फ़िर’औन हैं

मुझे उसने जन्मा था सरसब्ज़ मौसम में अपने लिए
कि मैं उम्र भर साथ उसके रहूँ,
उसके पहलू को शादाब रक्खूँ
उसके सीने से लिपटा रहूँ,
उसकी लोरी सुनूँ
दुआओं के झूले में झूलूँ कि हँसता रहूँ
कि ख़ुशियों भरे मौसमों का पयम्बर बनूँ
मगर हिज्र का तेज़ सैलाब मुझको बहा ले गया
बहा ले गया ज़िंदगी की हदों से परे और वो आँसू बहाती रही
ख़ुदा उसकी आँखों पे रूमाल रखता रहा
मुझे ज़ुल्मत-ए-ख़ाक से ख़ौफ़ आता है माँ!
मुझे अपने दिल में छुपा, अपने सीने में रख ले
तेरे जिस्म की गर्म महकार से,
तेरे लम्स की नर्म सी रौशनी से
महकता रहूँगा, दमकता रहूँगा
तेरे प्यार के पुर-सुकूँ सहन में
चुपचाप बैठा हुआ तुझको तकता रहूँगा
तेरी नींद सोता रहूँगा
कभी तुझसे कोई तक़ाज़ा नहीं मैं करूँगा
मुझे अपने सीने लगा, नूर का एक क़तरा पिला
हाथ तेरे बिछौना मेरा, गोद तेरी है जन्नत मेरी
तेरी बाँहें हिफ़ाज़त मेरी, होंट तेरे हैं लोरी मेरी
तेरी आँखें मेरा ख़्वाब हैं
मगर क्या करूँ?
तेरी दुनिया मुझे रास आई नहीं
तेरे क़ुर्ब के लम्हे हासिल मुझे सिर्फ़ दो पल हुए
और बहा ले गया हिज्र का तेज़ सैलाब हस्ती मेरी, मस्ती मेरी
उम्र भर के लिए ज़ुल्मत-ए-ख़ाक मेरा मुक़द्दर हुई
मुझे उसने जन्मा था क्या इस लिए?

शऊर

ख़्वाब है चाँद और मैं हूँ चकोर
चाँदनी शब में
जिसको वहशत में
पागलों की तरह मुहब्बत में
पाने निकला तो जाँ हार गया

ये जुनूँ हर किसी को होता है

ग़नीमत है

तुम्हें हर रात रोने की इजाज़त है
ख़ुद अपनी ज़ात पर, हालात पर, दिन-रात पर, हर बात पर
हर दौर में हँसने की, ग़म सहने की, रोने की
इजाज़त है
ये दस्त-ए-ग़ैब का लिक्खा हुआ महज़र,
मुक़द्दर है
कि जो कुछ भी मयस्सर है
उसी के दायरे में ज़िंदा रहने की इजाज़त है

अगर इस दायरे से तुम कभी निकले
तो फिर अपना क़बीला और क़िब्ला भूल जाओगे
किसी से मिल न पाओगे

ज़बाँ कड़वी-कसीली है
और आँखों में लहू तालाब बनता है
अदालत हुक्म देती है तो क्या?
अमल कोई नहीं करता
मुक़दमा दर्ज होने से बहुत पहले ही फ़रियादी
हमेशा ख़ुदकुशी क्यों…?
अगर ग़ालिब यहाँ होता तो क्या कहता?
अना की बात भी करना हिमाक़त है
ग़नीमत है
तुम्हें हर रात रोने की इजाज़त है

अली बाबा कोई सिम-सिम

अली बाबा
ये उजलत हिम्मतों को पस्त करती है
मोहब्बत रास्ते में मौत को तजवीज़ करती है
हवस तेरी
घने जंगल से चोरों को
मिरी बस्ती में ले आई
वो चालीस चोर…..
बस्ती के गली-कूचों में अब मक़्तल सजाते हैं

अली बाबा
ख़ज़ाना पाने की उजलत
तिरे माज़ी की महरूमी का
अबतर शाख़साना है
ये तेरी बदनसीबी से भी बदतर इक फ़साना है
नहीं है कोई मरजीना, तिरी अच्छी कनीज़ों में
जो बस्ती को बचा लेती
सलामत है न तेरा घर
न मेरा दिल
न अब दरबार-ए-शाहाना?
तुझे क्या है?
हवस तेरी रहे बाक़ी
ये बस्ती आग की तस्वीर हो जाए
अगर ये राख का ही ढेर हो जाए
तुझे क्या है?

कनीज़ों ख़ास्सा-दारों और ग़ुलामों से
तुझे फ़ुर्सत नहीं मिलती
वही बग़दाद जिसके सब गली-कूचे
कभी थे महविशों के
गुल-रुख़ों के आईना-ख़ाने
सितारे आसमाँ से झुक के जिन को रोज़ तकते थे
जो औराक़-ए-मुसव्विर थे
वहाँ पर धूल उड़ती है
हर इक जानिब अजल की हुक्मरानी है
ज़मीं पर आग जलती है
ज़मीं पर आग जलती है
अली बाबा
ख़ज़ाना पाने की मसर्रत से ज़्यादा अब
अज़ीय्यत है
ख़ज़ाना पाने की उजलत
हवस तेरी
घने जंगल से चोरों को मिरी बस्ती में ले आई
कोई सिम-सिम
कोई भी इस्म-ए-आज़म अब
हमारी मुश्किलें आसाँ नहीं करता
कोई दरमाँ नहीं करता

देर हो गई

आलम-पनाह
ख़ैर से बेदार हो गए
आलम-पनाह!…
ख़ैर…

कहाँ आप चल दिए
रस्ते तमाम बंद हुए
देर हो गई
और कैसी दुपहर में
घनी रात हो गई
फ़ानूस
झाड़
क़ुमक़ुमे रौशन नहीं हुए
और ताक़चों में बाक़ी नहीं कोई भी चराग़
और बेगमात हुजरे से बाहर निकल पड़ीं
और शाहज़ादियों के सरों पर नहीं रिदा
ये रंग-ओ-रूप
ये क़द-ओ-क़ामत
ये चश्म-ओ-गोश
क्या रास्ते में फ़र्श बिछाने को कोई है
कोई कनीज़ कोई भी ख़ादिम नहीं रहा?
शीरीनी-ए-लताफ़त-ओ-आराइश-ए-हयात
और क्या हुए वो नाज़-ओ-नज़ाकत के शाहकार
दीवार पर है आयत-उल-कुर्सी का चौखटा
जुज़दान-ओ-जा-नमाज़ मसहरी के पास है
आँखें उठा के देखने वाला कोई नहीं
पहनाए आ के आप को पापोश कौन अब
मसनद-नशीं जो आप हों ये वक़्त वो नहीं
ये वक़्त है अजीब
कि मुश्किल बड़ी है ये
शोअरा
मुसाहिबीन
असा-दार-ओ-ख़ास्सा-दार
मीर-ए-सिपाह
ग़ुलाम भी बाक़ी नहीं रहे
जो जंग होने वाली थी आग़ाज़ हो चुकी
जो रात ढलने वाली थी
कब की वो ढल चुकी
शाही-महल के पार तो दुनिया बदल गई
और अस्प-ए-शाह-गाम तो सब जाट ले गए
आलम-पनाह
शहर तो बर्बाद हो गया

हर अहद के अम्र-ओ-अय्यार के नाम

उसकी ज़ंबील
क़लंदर का प्याला है न दिल
उसकी ज़ंबील में पोशीदा हवस के सद जाल
उसकी आँखों से तो बेशर्मी भी शर्माती है
गुरुस्न: लहजे में
वो भीक की फ़रियाद कि मचली जाए
उसकी आवाज़ से ज़ख़्मी हो समा’अत सब की
उसकी तर्तीब में तहज़ीब का एक लम्हा नहीं
उसकी शाइस्तगी से एक ज़माना लरज़े
उसके किरदार से हर शख़्स बख़ूबी वाक़िफ़
और सब कहते हैं
सब अच्छा है
अम्र-ओ-अय्यार रहे और लोग बहुत सादा हैं
सारे मक्कार हैं हमराज़ उसके
अफ़रासय्याब!
सारे लश्कर को कहीं बेच न दे
उस का दिल जज़्बा-ओ-एहसास से ख़ाली यक्सर
जिस में अल्फ़ाज़ नहीं
सिर्फ़ ‘आदाद सँपोलों की तरह पलते हैं
उसका कुछ ठीक नहीं,
उसकी हरकत पे ज़रा आँख रखो
वाए-हो-वाए नहूसत उस की
उसपे सर खोल के रोएँ उस के
उसकी ज़ंबील की हर चीज़ लहू रंग हुई
उसने जिस जा भी क़दम रक्खा नई जंग हुई
उसका दीन एक है बस सिर्फ़ हवस
उसकी ज़ंबील नहीं भर सकती
चाहे क़ारुँ का ख़ज़ाना हो कोई
चाहे फ़िर’औन का हो जाह-ओ-जलाल
चाहे शद्दाद के ज़र्रीं बाग़ात
उसकी ज़ंबील नहीं भरने की
उसकी ज़ंबील में दोज़ख़ भर दो!


फ़हीम शनास काज़मी [जन्म : 1965, सिंध, पाकिस्तान] सुपरिचित उर्दू कवि और संपादक हैं। ज़ुबैर सैफ़ी हिंदी कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : शब्द और आशाएँ ख़ारिज हो चुकी हैं | आप यहाँ स्खलित हो सकते हैं

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