सुमना रॉय की कविताएँ ::
अनुवाद : कनक अग्रवाल और ऋतुपर्णा सेनगुप्ता
क्रियाओं में बढ़ता मेरा भतीजा
है
जिज्ञासा भी चाहे प्रदर्शन
उसकी तीन साल की बोली गिरती है—
एक पके फल की तरह
थप से ज़मीन पर
दीवार पर निशान पीक के,
ज़ंग खाए, भूरे
तस्वीरें हो सकती हैं उसके लिए
इंसान का कोई निश्चित आरेख नहीं—
न ही हर चीज़ को दरकार चेहरे की
वक़्त नम है, भिगो ले जाएगा उसे गुज़रती उम्र में
बहता पानी भी वन्य है उसके लिए
ग़ुस्से की आँतें कमज़ोर हैं
क्षितिज एक बंदर
जज़्बात की हैं उँगलियाँ
ख़तरा उत्तेजना
हर चीज़ एक मूरत
और ख़ुशी एक टुकड़ा संयोग का
होना
बुआ का प्रेम सदा है उष्ण
और स्नेह में नमी अत्यधिक
मेरा भतीजा प्रेम को किसी वस्तु की तरह
देखना चाहता है—
जो तोड़ी-मरोड़ी-चबाई जा सके,
प्लास्टिक की तरह
मैं कहना चाहती हूँ—
पारदर्शिता इतनी भी ज़रूरी नहीं,
वह मेरे प्रेम को सहेज नहीं सकती
पर मैं कहती हूँ—
फ़र्ज़ करो, खाते वक़्त तुम्हारी आँतें दिखाई दें
नन्हा बच्चा नहीं सोच पाता
और पानी का गिलास माँगता है
जब शीशे में भी बात नहीं बनती तो मुँह फेर लेता है
मैं जानती हूँ उसे तलाश है एक ढाँचे की—
ऐसी इमारत जो स्नेह को महफ़ूज़ रखे
जो उसे गिरने न दे और सुला दे ठीक नौ बजे
क्यूँकि स्नेह तो पृथ्वी के मध्याकर्षण की तरह है—
पकड़े रखता है बेड़ियों के बग़ैर
हूँ
मेरे भतीजे को पानी की प्रज्ञता पर बेहद यक़ीन है
उसकी चाहत कि हवा और सुंदर हो
गंध वह दुश्मन जिस पर जल्द ही उसका बस होगा
गर्मी उसकी उचित प्रतियोगी
रोशनी माँ-बाबा का मज़हब
ज़ुबान एक खिलौने की इमारत—
जो अधिक बोझ तले धँस जाए
किताबों के ख़ुमार का उसे अब तक आभास ही नहीं
उसकी खिड़की ऐसा कैमरा
जिसका शटर खुला है हर पल
बिछौना एक बग़ीचा जहाँ रास्ते हैं नदारद
और ज़िंदगी एक सीढ़ी जितनी अस्थायी
क्रियाओं में बढ़ता मेरा भतीजा
मिरिक : असामान्य संज्ञाओं के साथ सफ़र
घोड़ा
घोड़े पर से दुनिया अबेकस लगती है—
कोई हिसाब ज़रूर होगा
लेकिन घोड़े के खुरों का कोई टग-बग टग-बग नहीं—
सहसा मेरे बचपन के स्वर झूठे लगते
मेरा भतीजा, जिसका अठारह महीने पहले
कोई अस्तित्व ही नहीं था,
ख़ुद अपने लिए अजूबा है
घोड़े की सवारी यूँ करता जैसे चप्पल पर चींटी
हमारे खुरों के नीचे की ज़मीन, सड़क, पृथ्वी
अपनी लोच खो चुके हैं और हम गिरने में असफल
मुझे घोड़े से अधिक फ़िक्र है अपने भतीजे की
फिर बुरा भी लगता है—अनुबोध मेरा रोग
दुपहर हमारे बोझ तले जम्हाई लेती है
बोरियत के पैमाने भिन्न हैं :
फ़ुज़ूल का यह नयापन, घोड़े पर से दुनिया
उबाऊ लगती है
और मुझे अपने पैरों का सहारा पसंद—
जैसे हर क़दम ख़ुद को दुहरा रहा इतिहास
वसंत मौसम है वीरानी का
मेरे भतीजे को बोरियत का एहसास नहीं
उसके लिए संसार जैसे संज्ञाओं से भीगा डायपर :
माँ, बाबा, पानी, चिड़िया
बोरियत ऐसी वस्तु जिसे वह छू पाता तो जानना चाहता
कि क्या वह उसे भिगो देगा?
साँझ ढले, पार्क के फाटक खींचते चौकीदार की तरह,
वह आकाश को यूँ पास खींचने की कोशिश करता
ज्यों अपनी माँ के बालों को खींचता हो
घोड़ा रुकता है
मेरा भतीजा उसे छोड़ना नहीं चाहता
चार पैर सिर्फ़ दिन को ढो पाते हैं
रात बिन पैरों के आती है
बच्चा
मैं अपने भाई को उसमें देखती हूँ,
वही छोटा-सा
कैमरे के ज़ूम से पता लगता है
हमें अपने छुटपन से क्यूँ है इतना लगाव :
गुड्डे, बच्चे, देवता
बचपन एक टूरिस्ट पार्क है
जहाँ टिकट है तो मुफ़्त
मगर खो जाए तो निकलना असंभव
सुमेंदु झील के किनारे मेरा भतीजा जैसे राजा माईदस
और उसका बचपन एक अनंत चमत्कार
जिसमें क़ैद हम विस्मित मूर्तियाँ
उसके ख़ुशी के मज़दूर—
जैसे की क़ुली और कार्यकर्ता रहे होंगे
बंगाल मुख्यमंत्री एस.एस. रे के
जिन्होंने झील को बिछने का दिया था आदेश
किसी बड़े के बचपन की कल्पना करना मानो वक़्त पलटना :
किसने सोचा होगा मेरी भी माँ कभी एक बच्ची थी
जिसके नन्हे, करामाती पाँव कभी आकाश ओर उड़ते थे
अब वह पागलों की तरह नैपकिन की सिलवटें उतारती है
पहले यहाँ कोई झील नहीं थी,
दलदल के अलावा कुछ नहीं
लोग अब यहाँ पानी के लिए आते हैं :
कुछ पहाड़, कुछ पेड़—
ये नए देवता हैं और छुट्टियों में लोग करते हैं—
धर्म-परिवर्तन
बदलते हैं उनके रूप ख़ुशी से
यही है उनकी अभिलाषा :
ज्यों हिमालय हो एक मनोवैज्ञानिक कक्ष
और झील किनारे एक विशाल सोफ़ा
जहाँ लोग इलाज के लिए हों लेटे
इसकी चाह, इसका सम्मोहन :
यही इस हॉलीडे पैकेज का अस्ल मक़सद
और इस छुटकारे की चाह में होता हर कुछ क़ैद :
यौवन, विवाह, भोजन, वेतन
मेरा भतीजा ये सब कुछ नहीं जानता
जीवन का रहस्य उसने जल्द ही जान लिया है
वह थपथपाकर उड़ती हुई रेत को निहारता है
उसके राज्य में सब कुछ चलते रहना चाहिए
जैसे अल्पकालिक नल, टेलीविज़न, मोटर कार
मिरिक झील के किनारे सब थम-सा गया है
इस रविवार
गुलाबी कैंडीफ़्लॉस पर बहती हवा भी
केवल मेरी माँ की भौंहें हिलती हैं रह-रहकर
और मेरा भतीजा—
एक उल्का तारा, पीछे उड़ती रेत उसकी पूँछ
उसके सोने पर हम दिन समेटते हैं,
जैसे इस्त्री के कपड़े
आकाश एकाएक अपनी आभा बिखेरता है
होटल लौट हम रात पर लिखे दाम को हटा देते हैं
झील
मेरे भतीजे को भीगे हुए प्रेम का एहसास नहीं
उसे परवाह है बस ऐसी नमी की जो न दुखाए
सुमेंदु झील उसकी लार से अलग नहीं
या वे आंसू जो दिखते हैं उसे—
किसी युवती के गाल पर :
वह एक प्रेमिका है,
और बस यही मायने रखता है
झील किनारे इस अप्रैल—
उसके हाथों का गीला रूमाल भीगा है
साथ बैठे प्रेमी के कर्मों से
मेरा भतीजा उन्हें देखने के लिए लपकता है—
मानो वे पानी के ही हों अवतार, या झील के
पर वे उसे अनदेखा करते हैं
उनके लिए मेरा भतीजा है
कोई पेड़ या पक्षी या चाँद :
अबोध, अनजान
मेरा भतीजा नहीं जानता
कि दुनिया बाहरी भी होती है
उसकी दुनिया भीतरी रही है,
दूध और दृश्यों में बहती
जिज्ञासा उसका धर्म है,
वह नया आस्तिक
और झील किनारे बन बैठा वह धर्म-प्रचारक
सहसा आगे बढ़ युवती के गाल को छूता है
इनाम में मिलता उसे पानी
वह ख़ुश, युवती मुस्कुराती है
युवक भी ख़ुश—
एक बच्चे ने उसकी प्रेमिका के आँसुओं को थाम लिया
वह वापसी में कोई उपहार देना चाहता है
पर उसे कुछ नहीं सूझता
तभी मेरा भतीजा इशारा करता है
झील पर तैरती एक पीली, ख़ाली नाव की ओर
‘काश मैं तुम्हें झील दिला पाता’, युवक कहता है—
उसकी नेपाली एक उदास संगीत
युवती फिर निराश—
‘मुझसे तो कभी झील के वादे नहीं किए’
उसकी छतरी की नोक पानी की त्वचा को धीमे से छूती है
सुमना रॉय के निबंध और कविताएँ भारत और विश्व के प्रसिद्ध-प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों पर प्रकाशित होती रही हैं। उनके नाम एक उपन्यास, एक कहानी-संग्रह, दो कविता-संग्रह, एक संपादित संग्रह, एक सहलिखित और एक कथेतर गद्य की किताब हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ अँग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद के लिए उनके कविता-संग्रह ‘आउट ऑफ़ सिलेबस’ (स्पीकिंग टाइगर, 2019) से ली गई हैं। सुमना अशोका विश्वविद्यालय में रचनात्मक लेखन पढ़ाती हैं।
कनक अग्रवाल तस्वीर और साहित्य के बीच बची जगहों में अनुवाद करती हैं। वह एक कॉर्पोरेट में बतौर लेखिका कार्यरत हैं।
ऋतुपर्णा सेनगुप्ता एक अनुवादक, लेखिका, और साहित्य/सिनेमा आलोचिका हैं, जो एक विश्वविद्यालय में साहित्य पढ़ाती हैं।
सुन्दर कविताएँँ हैं