शुन्तारो तानीकावा की कविताएँ ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उदयन वाजपेयी और संगीता गुंदेचा
कीता करूईज़ावा की डायरी
छोटी चिड़ियाँ पास क्यूँ नहीं आतीं?
मैं बहुत देर से
अपनी दूरबीन थामे हूँ
क्या मैं उनके लिए पराया हूँ
या मैं अलग गाना गाता हूँ
हाँ,
मैं फ़क़त एक प्राणी हूँ मानुस जिसे कहा जाता है
इतने बरसों में जो उन्हीं पुराने गानों को दुहराने की
ऊब सहने के लायक नहीं रहा
मैं एक गाना गाता हूँ
जब तुम्हारे आकाश से नीचे देखा जाता हूँ
31 जुलाई
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वहाँ डेक पर बेंच रखी थी
लकड़ी की बेंच
डेक पर
ख़ाली
बरसों पहले वहाँ जो आदमी बैठता था, अब नहीं है
जवान आदमी जो सुबह के धुँधलके में रेडियो सुनता था
उसके बाद से उसने विराट संसार को सामने रखकर
जीने का निश्चय किया
और वह उसके बारे में कुछ नहीं जानता था
उसने दुख सहा, वह दुख को जानता था
पर वह निराश नहीं था
‘पर उसने सीखा क्या’ अब मैं अपने से पूछता हूँ
जबकि जो संगीत वह उन दिनों सुनता था
अब भी हल्का-सा हवा में तैर रहा है
1 अगस्त
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ख़ूबसूरत हैं बच्चे
वे क़रीब आते हैं, मुझे पास से देखते हैं
और मुड़ते हैं और दूर की चढ़ाई पर चढ़ जाते हैं
नंगे बच्चे—
बाक़ी अपने रविवार के कलफ़ लगे कपड़े पहने हैं
तालाब में तरंगें उठती हैं
युद्ध कभी ख़त्म नहीं होंगे
ये बच्चे भी धीरे-धीरे बूढ़े हो जाएँगे
और ख़ुद से बुदबुदाएँगे
पर अभी वे चीख़ रहे हैं
उनकी आवाज़ें खरखराने लगी हैं
वे पहाड़ की चोटी से चीख़ रहे हैं
ऐसे शब्द जिन्हें अब मैं समझ नहीं पा रहा
1 अगस्त
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अब मैं उसे देख सकता हूँ, बूढ़ा और कमज़ोर
तार-तार चादर में लिपटा हुआ,
अपनी यादों में खोया हुआ
उसकी तोंद फिर निकल रही है
बच्चे की तरह,
लिखे हुए शब्दों से परेशान उसकी आँखें
छत की लकड़ी के रेशों को टटोल रही है
अनेक दृश्य टुकड़ों में उसके दिमाग़ में कौंधते हैं—
उसके कुछ पुरानें दोस्तों के दृश्य,
नदी किनारे यात्रा के दौरान दिखी झाड़ियों के,
लगभग विस्मृत प्रसिद्ध चित्रों के
हाँ, खिड़की से सूरज की तिरछी किरणें भीतर आ रही हैं—
केवल यही चीज़ है जो बदली नहीं है
2 अगस्त
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क्या तुम जानते हो
कविता लिखने की कई शैलियाँ हैं?
कार्वर की शैली
कावाफ़ी की शैली
शेक्सपीयर की शैली :
सभी का अपना चलन है
हालाँकि मैंने उन्हें केवल अनुवाद में पढ़ा है
(अनुवादको, तुम्हारी सारी कामयाबियों और भूलों के लिए साधुवाद।)
हर कवि मरने तक अपनी शैली पर क़ायम रहा आया
शैली की अपनी नियति है
तब भी ये तमाम शैलियाँ मुझे लुभाती हैं—
एक, दो, तीन, चार…
सारी शैलियाँ मुझे आकर्षित करती हैं
और जल्द ही मैं डॉन युआन की तरह
किसी एक से ऊब जाता हूँ
औरत के प्रति वफ़ादार,
कविता के प्रति बेवफ़ा
पर क्या कविता शुरू से ही लोगों से
बेवफ़ाई नहीं करती रही है
2 अगस्त
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अगर गद्य को गुलाब मान लिया जाए,
कविता उसकी गंध ठहरेगी
अगर गद्य को मलबे का ढेर माना जाए
कविता उसकी सड़ांध ठहरेगी
मैं सोचता हूँ किसी दिन मैं रिल्के की तरह मर सकता हूँ
मेरी अँगुली सचमुच के गुलाब में काँटे से छिद सकती है
क्या तुम्हें लगता है ऐसा होगा?
इस सबके बाद भी मैं बेशर्मी से किसी तरह जिये जा रहा हूँ
3 अगस्त
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सूरज, एक बड़ा-सा मकड़ा, अपनी रोशनी का जाल फैलाता है
और उसमें फँसा हुआ मैं थरथराता हूँ
अगर वैसा संतोष कविता है
मैं एक ऐसी चीज़ से बँधा हूँ जिसे मनुष्य छू नहीं सकता
11 अगस्त
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पियक्कड़ संगीतकार कहता है, ‘मेरे संगीत की वाहवाही करने वालों को
मैं मशीनगन से मार डालना चाहता हूँ’
वे जो, सुनते समय उसके संगीत की विलम्बित अनुगूँजों की मिठास में
बेसुध और क़रीब-क़रीब मर जाते हैं, उसे कभी नहीं
समझ पाएँगे
लेकिन मैं संगीतकार की भावनाओं को समझता हूँ
जो ख़ुद अपनी रचना की अर्थहीनता को बचाए रखने की ख़ातिर
हिंसा के विचार की शरण लेता है
क्योंकि हमारे समय में विनाश और सृजन अलहदा नज़र नहीं आते
14 अगस्त
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नापसंद चीज़ों को सहने के अलावा
मेरे पास कोई चारा नहीं है
आख़िरकार ये चीज़ें यहाँ सदियों से
रहती आई हैं
इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हमने उन्हें शब्दों से छलने की कितनी कोशिश की
तब भी इसका यह अर्थ नहीं कि यहाँ कोई भी आकस्मिक ख़ुशियाँ नहीं आएँगी
अमूर्त अवधारणाओं, विचारों और
शायद ईश्वर से छलकते हुए
लोग हमेशा जीते रहे हैं
15 अगस्त
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एक मेंढक का तालाब में कूदना दुनिया को बदल नहीं देगा
पर क्या दुनिया को बदलना इतना ज़रूरी है?
हम कितनी भी कोशिश क्यों न करें कविता को नया नहीं कर सकते
कविता इतिहास से पुरानी है
अगर कोई ऐसा वक़्त होगा जब कविता नई लगेगी
वह तब होगा जब कविता हमें इस बात पर राज़ी कर चुकेगी,
अपने विनम्र पर अक्खड़ लहज़े में बारम्बार दुहराती हुई :
संसार कभी बदलेगा नहीं
15 अगस्त
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यहाँ इस पुस्तकालय में जहाँ सब युगों और देशों की कविता-पुस्तकें
रखी हुई हैं, मैं खोया हुआ-सा महसूस करता हूँ
युद्धों, अनुरागों, घृणाओं, गहरी बेचैनियों की दुनिया
अचानक एक दूसरी ही दुनिया लगने लगती है
मैं नीचे दुनिया पर ऐसे नज़र डालता हूँ मानो फ़रिश्ते की आँखों से
मैं विचारों में डूबा हूँ यह सोचता हुआ कि किसी भी क्षण
मुझे एक सचमुच की आवारा गोली आकर लग सकती है
और मैं यह भूल चुका हूँ कि मेरे पास भी हथियार हैं
19 अगस्त
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जहाँ छत और कोना मिलते हैं, एक मकड़ी जाला बना रही है
लेकिन मैं उसे वैसे ही रहने देने का निर्णय लेता हूँ
क्योंकि इस घर में मकड़जालों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
क्योंकि इस घर में मुझे मानवेतर प्राणियों के साथ रहने से कोई गुरेज़ नहीं है
हाँ, मैं मच्छरों को मारता हूँ और मधुमक्खियों से बच निकलता हूँ
लेकिन किसी तरह यह घर बहुत समय से ऐसा ही है
और मुझे पसंद है
4 सितंबर
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हमारी भूमि पर पनपी भाषा को
बकबक से चिढ़ है
हम लापरवाही से बतियाते हैं, अनजानेपन का स्वाँग करते हुए
और शब्दों के ऊपर शब्द नहीं जमाते
हम हमेशा मौन पर निशाना साधते हैं
जैसे इतिहास घटा ही न हो और वर्तमान
हर बार ख़ाली पन्ने से शुरू होता हो
जब शब्द कुछ थामने की कोशिश करते हैं
वह तुरंत दूर फिसल जाता है
हमें पता है कि वही शिकार श्रेष्ठ है जो बच निकलता है
इस भूमि पर पनपी भाषा
उन हम सभी को संकोच में डाल देती है
जो यहाँ पैदा हुए हैं
4 सितंबर
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एक दूसरी तरह की उत्तेजना मुझ पर क़ाबिज़ होती है
पत्तियों से छनकर आ रही धूप मोत्ज़ार्ट के साथ अठखेलियाँ करती है
और ख़ाली पुराना मकान प्रेमपूर्ण शब्दों से भर जाता है
और अब जब अनंत मुझे ख़ूबसूरत अलंकारों से छल रहा है,
मैं ख़ुद को बार-बार
किसी अज्ञात द्वारा बिछाए जाल में
फेंक देता हूँ
हालाँकि मैं यह जानता हूँ, यह भ्रम है
वह जाल इतनी मिठास से मुझे लुभा रहा है
कि मैं उससे बच नहीं पा रहा
मुझे लगता है कि हमेशा के लिए फँस जाना मुझे अच्छा लगेगा
पर वह जाल मुझे बिना किसी हास्य के त्याग देता है,
मुझे वापस फेंक देता है मनुष्यों से बने स्थानीय परिवेश में
जहाँ हास्य ही एकमात्र बचाव है
5 सितंबर
शुन्तारो तानीकावा (जन्म : 1931) समादृत जापानी कवि हैं। उदयन वाजपेयी (जन्म : 1960) सुख्यात हिंदी कवि-लेखक-अनुवादक और संपादक हैं। उनसे udayanvaj@hotmail.com पर बात की जा सकती है। संगीता गुंदेचा सुचर्चित हिंदी लेखिका और संस्कृतिकर्मी हैं।
बहुत अरसे बाद, सचमुच अच्छी कविताएँ, संवेदनशील सुंदर अनुवाद ।