अंजली कुलकर्णी की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा
अस्त्र
यह जो सोचने की धुकधुकी
बची हुई है न अभी तक
लगाकर रखना होगा उसे सीने से
दिमाग़ के पत्थर बनने से पहले
यह जो बंद दरवाज़े की ओट से
उजाले की रश्मि की तरह
सपने तैर रहे हैं न आँखों में
रखना होगा उन्हें सहेजकर
पलकों से घेरकर
इन कसी हुई मुट्ठियों के बल
तेज़ी से पड़ते प्रहारों से
कहीं पड़ न जाएँ ढीले
रखना होगा इसका ध्यान
जी-जान से जुटकर
इन मूक होंठों के पीछे के
‘होंगे कामयाब’ के इस
बुझते जाते अंगारे को
करना होगा प्रदीप्त
सख़्त संघर्ष के साथ
इस बंद दरवाज़े से टकराते हुए
छिड़ेगी घनी लड़ाई
तब तक
तैयार रखना होगा इन अस्त्रों को
धार से पैना बनाते हुए…
एकमात्र विकल्प
इन ग्रह-गोलों की ही तरह
स्वयं को महसूस करती हूँ बेजान
आँकी हुई भ्रमण-कक्षा में
असहायता से घूमने का
झेलती हूँ शाप
स्वयंप्रकाशित अस्तित्व
कितना आभासी लगता है
कौन-से परावर्तित प्रकाश में
मैं ढूँढ़ रही हूँ अपनी आकाशगंगा
घर से पाँच सौ क़दम दूरी पर मेरा ऑफिस
मेरा घर
मेरी सीमित गृहस्थी
और बीच-बीच में रसोई से छुटकारा पाने को
एक रोज़ होटल में खा लेने-सा परिवर्तन
यही मेरी भ्रमण-कक्षा
और चौबीस घंटों के टुकड़ों में बँटा
कुछ पचास एक तक का
मेरा कार्यरत जीवन
यही मेरा भ्रमण-काल
मेरे अस्तित्व को जला देने वाला
मुझे पूरी तरह से झुलसा देने वाला
मेरा सूरज
मेरे जीवन का केंद्रबिंदु है
उसकी परिक्रमा लगाना
यही एकमात्र विकल्प है
सच, क्या यही एकमात्र विकल्प है?
कई बार
माना कि
तुम पुरुष हो और
मैं एक स्त्री
पर कई बार नहीं होते हैं हम
कोई स्त्री या पुरुष
घंटों बतियाते रहते हैं हम
आमने-सामने बैठकर
पढ़ी हुई किताबों पर
सूझे हुए विचारों पर
देखे हुए नाटकों पर
साझा करते हैं अधीरता से
कल ही पढ़ी हुई ताज़ी कोई कविता
तय करते हैं कुछ-कुछ
कार्यक्रम
ख़त लिखना
लेखन-संकल्प
योजना
मिलना-मिलाना
कभी-कभी तुम झाड़ते हो बड़ा-सा लेक्चर
ओशो… कान्ट… दोस्तोयेव्स्की आदि पर
सहेजकर रखते हो कहाँ-कहाँ कुछ पढ़ा हुआ
मुझे दिखाने की ख़ातिर
मेरा ध्यान नहीं है कविता की तरफ़
इसलिए भुनभुनाते रहते हो
कभी-कभी मैं दिन भर की भाग-दौड़ को लेकर
भर जाती हूँ चिड़चिड़ाहट से
अपनी चिंताएँ
समस्याएँ
बाधाएँ…
उड़ेल देती हूँ तुम्हारे सामने
अपने आस-पास के अत्याचारों के बारे में
दमन के बारे में
कभी-कभी अनमने-से किसी दिन में
महसूस होते हुए अकेलेपन के बारे में
या मूल्य खोती जा रही व्यवस्था के बारे में
हम बोलते रहते हैं उत्कटता से
तब नहीं होते हैं हम स्त्री या पुरुष
फिर भी हम बेहद कोमल
बेहद नज़दीक होते हैं
किसी अदृश्य धागे से बँधे हम
आमने-सामने रखी कुर्सियों में बैठकर
एक-दूजे को भर देते है ऊर्जा से
तब हम कितने इंसान होते हैं…
किसी ईश्वर के मंदिर में
किसी ईश्वर के मंदिर में
गर्भ-गृह का कण-कण
गंभीर प्रकाश से एकदम उजला
गर्भ-गृह
ठंडा-पथरीला-गूढ़
तेल
फूल
अगरबत्तियों की गंध से
दम घोंटने वाला
पसीने से तर चेहरों की
भेड़-बकरियों-सी भीड़ से
चिपचिपाया
मूर्ति की लपलपाती जिह्वा
और घूरती-विस्फारित आँखों में
हिंसा भरी हुई मूर्तिमंत
सदियों से असुरविनाशिनी
और सज्जनों का वास
कहलाने वाली
वह सशस्त्र मूर्त
सामने पड़ा
दस वर्षीय कुमारिका का देह
धर्म-रक्षक क्रूरताओं की
वासना का गेह
कलियुग के ईश्वर!
अच्छा चल रहा है सब कुछ…
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा तक
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा तक के
अस्तित्व को समेटती
सभ्यता की परतों से ही
शुरुआत की खनन के लिए
उससे पूर्व ऊपर की परतों को
निकलने के लिए ही
बहुत समय निकल गया
कंप्यूटर रोबोट ये परतें तो
बेहद ही साधारण थीं
यूँ ही अलग हो गई सहजता से
पर बाद का समाज
नीति-नियम
रिश्ते
और जीने के तरीक़ों की परतें
पुराने मज़बूत क़िले की तरह
पर भीतर से खोखली होकर धराशायी होती-सी
अतः वे भी अलग हो गईं
नए-पुराने संस्कारों की
जीवट चिपकी हुई परतों को
उकेरा तो
पूरा अस्तित्व छीलकर बाहर आ गया
उस जीवट गीलेपन का भी
एक उष्ण आवरण था
उसके छिन्न-विछिन्न होते ही
मानवीय सभ्यता के अस्तित्व पर निहित
सारी लीपापोती दूर हो गई
अब शेष बची पंचमहाभूतों से बनी
देह के ऊपर की प्राकृत-वासनाओं की मोह-त्वचा
पूरी तरह से निर्वस्त्र
उसे छीलकर रख दे तो
प्रकट होगा
इतिहास के भी पहले का ऐसा कुछ
जो शायद न हो पाशविक!
अच्छा हुआ
अच्छा हुआ कि
खोज हुई कपड़ों की
और मिल गया इंसानों को
सभ्यता का रक्षक एक आवरण
वरना पशुओं से अलग
कैसे दिखाई देते हम?
अच्छा हुआ कि
निर्माण हुआ भाषा का संकर से
इसीलिए तो क्षुद्र आ गए इंसानों की ख़ातिरदारी में
वरना कैसे छुपा पाते हम सच को पेट में?
कितना अच्छा हुआ कि
देह को ढँके रहता है
त्वचा का कोमल युवा आवरण
वरना तो भीतर के रक्त-मांस के
विद्रूप गुच्छों को ही देखना पड़ता
फिर कहाँ का आकर्षण एक-दूजे के लिए
और कैसे अनवरत चलता रहता जीवन-क्रम
(फिर शायद एक-दूजे के आमाशय, जिगर और अंतड़ियों का ही
स्तुतिगान करना पड़ता हमें!)
कितना अच्छा है
नहीं दिखाई देते हैं बाहर
मन के भीतर उठते तूफ़ान
सुबकते-कराहते-तड़पते हुए
या
पीड़ा ढुलकी ही नहीं अगर आँसू बनकर तो
मोती ही प्रतीत होती है हँसी की सीप में बंद-सी
और शब्द निकला ही नहीं एक भी बंद होंठों से
तो साध्वी ही होती है हर स्त्री!
फ़ेसबुक के मुखौटे के पीछे
दिन के किसी भी प्रहर में
पूर्णतया खुली विंडो से
उतरकर समीप आता है
फ़ेसबुक का दिपदिपाता आसमान
फ़्रेंडशिप के सतही समुद्र में
उठती रहती हैं लाइक्स की
लहरों के पीछे लहरें
जैसे असली प्रतीत होते नक़ली नोट
फेनिल चैटिंग का उफनता है झाग
जमा होता जाता है समंदर के किनारे
एक शब्द में सिमटे कमेंट्स का कबाड़
और चढ़ता जाता है मन पर
आभासी रिश्तों का नशा
सोशल इंजीनियरिंग की मृग-प्यास में
डूबते-फिसलते हुए
रिसते जाते हैं दिन के
पहर पर पहर
दिन के किसी क्षण में करना ही होता है
विंडो क्लोज़
कंप्यूटर के साथ ही शटडाउन होती है
भूलभुलैया की दुनिया
और उचट-उचट जाता है जी
वर्तमान के रेगिस्तान में
अनजान-सी लगती है
इंच की ही दूरी पर की दुनिया
वास्तविकता के धरातल पर
कँपकँपाते हैं क़दम
जम नहीं पाते हैं
ख़ून के
हाड़-मांस के
अंतड़ियों के अपने लोगों में
तब वर्तमान से डरकर
शराबी भागता है जैसे शराबख़ाने की ओर
वैसे विंडो को खोलकर
फ़ेसबुक के मुखौटे के पीछे
चेहरे को छुपाने के सिवाय
बचता कहाँ है कोई विकल्प?
अंजली कुलकर्णी (जन्म : 1958) सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री और अनुवादक हैं। ‘मी एक स्त्री जातीय अस्वस्थ आत्मा’, ‘संबद्ध’, ‘बदलत गेलेली सही’ और ‘रात्र, दुःख आणि कविता’ उनके प्रमुख कविता-संग्रह हैं। उनसे anjalikulkarni1810@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।
संवेदनाओं को कुरेदते हुईं अपने समय की महत्त्वपूर्ण कविताएं।