मल्लिका अमर शेख़ की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा
दुनिया की सभी औरतों के लिए
एक
औरत ने प्याज़ छीली
औरत ने लहसुन छीला
छीला फिर अपने-आपको
पतीले में डालकर
कलेजे की आग से अंगार जलाया
और देखती रही राह
स्वयं के पकने की!
दो
औरत ने ज़मीन खोदी
कुआँ खोदा
खोदा अपने आपको
हरी-भरी होती गई औरत!
तीन
अंजुली पर भर ली बारिश
अब बारिश औरत आसमान एक हो चुके हैं
यह सुना तो लगा
अच्छा हुआ री!
नहीं दिखाई दिया आँखों का पानी…
चार
मोमबत्ती
अगरबत्ती
दीया
अंगारा
आग
कुछ नहीं दिखाई देता है मुझे
दिखाई देती है एक औरत धूँ-धूँ जलती हुई!
पाँच
किस पायदान की माँग करें उसके लिए
उसकी देह
उसका अस्तित्व
धूल-ग़ुबार बन कर आसमान में फैला
नज़रों को उठाकर ताकती रहती हूँ मैं उसे
जल गई आँखें
उसे विश्वम्भर बनता देखकर!
छह
पेड़ चले आते हैं शहर में
इंसान काटते हैं पेड़
फिर पेड़ बन जाते हैं काग़ज़
बन जाते हैं मेज़
या फूलों से सजी औरत बन जाते हैं
पशु चले आते हैं शहर में
इंसान ख़ामोश रहते हैं
फिर वे उसी तरह चलते हुए
इंसानों के भीतर जाकर सो ही जाते हैं
बारिश चली आती है शहर में
इंसान ले लेते हैं छातें
बारिश चुपचाप स्त्रियों की आँखों में
पलके मूँद कर पड़ी रहती है।
बाज़ नहीं आई
मैं जब पेड़ थी तब की यह बात है
जड़ें ज़मीन के गहरे भीतर
दबी हुई थीं—आश्वस्त-सी
लहलहाती हरी टहनियों पर पंछी विचरते थे उन्मुक्त
आसमान के बादल कंधों पर अपना माथा घिसते हुए
मुस्कुराते रहते थे
नन्हे-कोमल जीव चहचहाते हुए फुदकते रहते
और जब एक दिन बनाना था उन्हें पुल
काट डाला उन्होंने मुझे
फिर मैं औरत बनी
जल्दी-जल्दी घर बुहारती
खाना पकाती हुई
भाग-दौड़ करती बच्चों को सँभालती
पति को सहती हुई
दुबारा मार डाला उन्होंने मुझे
तब मैं पानी बन गई फिर पहाड़ बनी फिर मिट्टी
बार-बार वे मुझे मार-काट कर ख़त्म करते रहे
बार-बार मैं जन्म लेती रही
उन्हें मुझे ख़त्म करने की आदत-सी हो गई
और पुनः पुनः जन्म लेने की मेरी आदत से
मैं मरती गई
पर
बाज़ नहीं आई!
मोड़
सारा काम निपटाकर तैयार बैठी हूँ
फिर से जन्म लेने की आ गई है घड़ी
तिराहे पर यूँ राह देखना
बस आता ही होगा जीवन सज-धज कर
सामने से आती हुई
बिना पहचान दिखाए ही निकल गई
क्या वह बहार थी?
फिर भला उसका चेहरा
क्यूँ इतना मुरझाया हुआ था?
अब आता ही होगा मोड़ पर से जीवन
जगह मिल जाएगी न आसानी से?
दौड़ते-हाँफते तेज़ी से निकल गए सामने से
ये सारे स्वप्न किसके थे?
और यह बारिश लगातार मुझे
क्यूँ कह रही है चलने को
जब कि कोई भी समंदर
नहीं बनता है मेरा प्रियतम!
जीवन
जीवन को जानने में
बहुत हुई तकलीफ़
फिर जीने से किनारा ही कर लिया
और देखिए, सब सरल-सहज होता गया
मरे हुए हिरण की आँखों की मानिंद…
स्त्रियाँ
स्त्रियों के पैदा होने का समय
ठीक-ठाक नहीं बता सकता है कोई
उनके पति
इतिहास के ज्ञाता
या जीवाश्म
क्योंकि किसी भी तड़ित् या पाषाण में
नहीं मिलती है उनकी पुरातन निशानियाँ
वे बहुत-बहुत-बहुत पुरानी हैं
और अभी तक गुफा में ही रहती हैं
इतना ही जानते हैं लोग
अब कैसे यह क्या पूछना हुआ?
क्या बीच-बीच में गुफा से
हिंस्र दहाड़ नहीं सुनाई देती है?
मल्लिका अमर शेख़ (जन्म : 1957) सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री और कथाकार हैं। ‘वाळूचा प्रियकर’, ‘ महानगर’, ‘ देहऋतु’ और ‘माणूसपणाचे भिंग बदलताना’ उनके प्रमुख कविता-संग्रह हैं। उनसे malikaamarshaikh1234@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।
स्त्री संवेदनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति। अनुवाद भी मूल जैसा ही आस्वाद देता है। साधुवाद
वास्तव में असली कविता है यह बधाई शुभकामनाएं ।क्योंकि अधिकांशतः तो कविता के नाम पर तुकबंदी कर देते हैं।
प्रकृति हमारे भारतीय वैदिक साहित्य में पुरुष के रूप में परिभाषित है जन्म के लिए पुरुष को आधार माना गया है पुरुष देने वाला है और इस्त्री उसे स्वीकार करने वाली पुरुष मांगता भी है और चाहता है की स्त्रियों से पूर्ण रूप स्वीकार करें स्त्री की पूर्णता में उसके सभी रूप आते हैं जिसमें उसे मां बहन दोस्त पथ प्रदर्शक सेविका प्रेमिका वैश्या की भूमिका का समय-समय पर प्रदर्शन करना अत्यंत प्राकृतिक है इसमें कहीं भी बनावट नहीं है अतः अपने पुरुष के लिए अपने व्यवहार को कभी भी अन्यथा नहीं लेना चाहिए तथा इसमें कुछ देने की भावना के लिए ना घमंड करना चाहिए और ना ही लज्जित होना चाहिए यही स्त्री पुरुष के व्यवहार की पूर्णता है