नीरजा की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा

नीरजा

आत्महत्या के वृक्ष पर

मुँह से न निकले एक भी शब्द
इसलिए फंदे को कसकर
लटकाया जा रहा है मुझे
आत्महत्या के वृक्ष पर।

इस दिशाहीन दशक में
उड़ेला जा रहा है मेरे गले में
राष्ट्रवाद का ग्राइपवाटर
मस्तिष्क में भरा जा रहा है हिंसा का बूरा
विकास के गुब्बारों को फुलाकर
अखाड़े में उतरे हुए लोग
छाँट रहे हैं मेरी उँगलियों को
और किसी भी फ़ुटपाथ पर
उकेर रहे हैं मेरे ख़ून में लथपथ चित्र

चित्र में भी जीवित-सी मुझे देखकर बदहवास
वे करते हैं फिर-फिर प्रहार
सभ्यता ने जो उनके हाथों में सौंपी है
उस तलवार से

चाहते हैं वे
गठरी बन पड़ी रहूँ मैं
मेरे आस-पास खींचे हुए उनके घेरे में
या अम्लान
झूलती रहूँ मौत की डाल पर

पर मेरी कटी उँगलियों के फूटे अंकुरों से
पट गया है सारा ब्रह्मांड
अगर वे फैलते रहेंगे यूँ ही तो
उग आएगी शब्दों की फ़सल
और उसके पार दिखाई देता सूरज
छिड़केगा आश्वासक किरणों की हज़ारों बूँदें
फूटेंगी आत्महत्या के वृक्ष की कोंपलें!

मेरे मन में हर वक़्त पनपता रहता है एक पेड़
आसमान की ओर छलाँग लगाता…

खिलेगा अमलतास

धुलंडी खेलने वाले
लड़कों के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं कई-कई हाथ
केशरी
हरे
लाल
नीले रंगों से सने
रँग देते हैं वे लड़कों के चेहरे अपनी पसंद के रंग से
पहचाने नहीं जाते हैं अब
लड़कों के असली रंग

लड़के
होते जाते हैं हिंसक
नचाते रहते हैं नौटंकी के गुड्डों को
शामिल होते हैं धुलंडी के हुड़दंग में
जैसी विकट हँसी हँसते हैं लड़के
पसीना छूटता है शंकासुर को भी

लड़के अब बनते जा रहे हैं मानव बम
वे कर सकते हैं कभी भी धमाका
बंदूक़ की नली को रोके
किसी भी सिर पर निशाना साधकर
लड़के मार सकते हैं अब कितने ही गांधी
और बड़ी आसानी से ले सकते हैं ज़िम्मेदारी भी
अपने खाते में जमा हुई मौतों की

लड़कों के चेहरों पर पुते रंग
अगर धोए नहीं गए समय पर
तो रह जाएँगे लड़के अछूते
लहलहाकर उगी हरी फ़सलों का अर्थ समझने से
रह जाएगी उनकी पलकों से अनचीन्ही
नीले आसमान में चितेरी गई
लाल-केसरिया रंग की छटाओं की ख़ूबसूरती

लड़कों को धो-धुलाकर बनाना होगा फिर से
रंगहीन
साफ़ हो जाते हैं अगर उनके चेहरे
तब खिल सकती है एक समझदार हँसी उनकी आँखों में
जिससे खिल उठे शायद अमलतास कोई!

तुम

रात बैचैन-सी
अहरह रहती है भीतर ही भीतर
तुम प्रवेश करते हो
मेरी देह के मज़बूत गढ़ को भेदते हुए
थाह लेते हो गर्माहट भरी रक्तिम राहों की
देखते रहते हो विस्मय से भरकर
उनके घुमावदार मोड़
और सीधे गाभ पर उनका गले लगकर मिलना
तुम्हारा प्रशस्त ललाट
चटख कर उभरी नस
तुम्हारे होंठों पर के अनगिनत सूरज
तुम्हारी छाती और उसे फूटे काले-से किसलय
तुम्हारी जाँघें और लिंग
सभी के साथ ढेर हो जाते हो तुम भीतर
बहते रहते हो कोख में बाढ़ को समेटे पानी की तरह
मेरी राहों पर से छलछलाते हुए…

क़िले का तटबंध होता जाता है भग्न
बनता जाता है देह का कीचड़
बाढ़ के घटते-घटते दीखता है दूर कहीं
तब तूफ़ान में धराशायी तटबंधों को समेटकर
थका हुआ गढ़ पड़ा रहता है अम्लान
अपने अवशेषों को चिपकाए हुए
क्या मिलेगा खनन में उसके वंशजों को?
तुम्हारे महाकाय क़दम उस पर छपे हुए
या अवशेषों के भीतर से उगकर निकला
पीपल का गाभा?

तृष्णा का प्रश्न

तुम इत्मीनान से
रेशमी कपड़ों की गर्माहट में लिपटे
लेटे हुए हर गर्भगृह में
अलग-अलग नामों को धारण किए हुए
प्रार्थना के कीचड़ को रौंदकर आते पाँव
होते हैं नतमस्तक
तुम्हारे चरणों में
निरुद्देश्य-सी मैं लगाती रहती हूँ परिक्रमाएँ
तुम्हारे इर्द-गिर्द
तुम्हें मुस्कुराता देखकर
बल पड़ते है मेरे माथे पर
परिक्रमाओं को गिनते-गिनते
भूलने लगती हूँ गिनती
गश खाने लगती हूँ
बौराई हुई-सी
भीड़भाड़ से भरा सभामंडप निरंतर
देता रहता है तुम्हें कुछ-कुछ
श्रद्धा भरे हाथों से
और बदले में
लिखवाता है सुख-चैन
स्टैम्प पेपर पर
पर मैं चाहती हूँ
खोलकर रख दूँ
तुम्हारे गर्भगृह के सारे किवाड़ों को
दिखाई दे तुम्हें प्रकाश
मेरी दुनिया में फैला हुआ
मुझे आता है तरस
तुम्हारे असहाय जीवन पर
मैं भर जाती हूँ तुम्हारे प्रति
अतीव करुणा से
ख़त्म करना चाहती हूँ तुम्हारा कारावास
धीमे-से फेरना चाहती हूँ हाथ
तुम्हारे श्रांत चेहरे पर
थपकियों के साथ सुलाना भी चाहती हूँ तुम्हें
मेरी गोद में
तुममें दिखाई देता है मुझे
खेल-खेलकर थका-हारा बालक
जिसके पेट में
धकेलना चाहती हूँ मैं और भी कुछ
गर्भगृह के दही-दूध के अलावा
मैं सब करूँ यह
तुम भी चाहते हो
मन से
तुम्हारी आँखों में चमकती
लहलहाती-सी एक लालसा
कब से दे रही है आवाज़ मुझे
परिक्रमा को रोक कर
तुम्हारी तृष्णा का प्रश्न
सुलझाना होगा अब मुझे
सुलझाना ही होगा!

चल पड़ी हैं लड़कियाँ

चल पड़ी हैं लड़कियाँ
मोमबत्तियों को हाथों में लिए
न्याय की तलाश में

असमय ही गर्भाशय पर दी हुई
थपकी की आवाज़ से
सूखते जा रहे हैं भीतर ही भीतर
सृजन के समग्र स्रोत
गर्भाशय के कभी भी छिन्न-विछिन्न
होने की फ़िक्र से सहमी हुई लड़कियाँ
खींच रही हैं उसे
कहीं गहरे भीतर
कलेजे में
वे रखना चाहती है सहेजकर उसे ख़ुद के लिए

कहीं लड़कियाँ अब यह तो नहीं सोचती होंगी
कि बंद कर दें द्वार ही गर्भाशय के?
या यह भी चाहती होंगी वे
कि लिंग ही न हो
ज़मीन में घुसते हुए हल के फल की तरह
भीतर ही भीतर पनपते हुए गर्भ को
केवल योनि ही दे जन्म?

गर्भाशय को उखाड़ देने वाले हाथों का भय
अगर यूँ ही बढ़ता गया तो
कर देगी लड़कियाँ ही अंत
निर्माण की सारी संभावनाओं का

सुनानी होंगी अब लड़कियों को कहानियाँ
पुरुष में भी छुपी अपार ममता की
स्त्री और पुरुष के बीच खिलते हुए
कोमल संवेदनशील रिश्ते की
उनमें होने वाले आपसी संवाद की

लड़कियों के हाथों में फड़फड़ाती
मोमबत्तियों के आस-पास
अब लड़कों को ही बनाने होंगे घेरे अपने हाथों के
प्रकाश की किरणों को अगर बचाना हो तो!

नीरजा (जन्म : 1960) सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री और कथाकार हैं। ‘निरन्वय’, ‘वेणा’, ‘स्त्रीगणेशा’, ‘निरर्थकाचे पक्षी’ और ‘मी माझ्या थारोळ्यात’ उनके प्रमुख कविता-संग्रह हैं। उनसे neerajan90@yahoo.co.in पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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