सुजाता महाजन की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा

सुजाता महाजन

ऐन मध्यरात्रि में

ऐन मध्यरात्रि में
ख़ुद के पास ही आकर रुको तो
ग़ायब हो जाती है सभी प्रतिमाएँ
शब्दों को सँवारने का अनुशासन
बिखरता जाता है
बेतरतीबी में
देह पर उठती है अचरज की सिहरन
अभावों के पारदर्शी सच को निहारते हुए
लंबा उबाऊ दिन
लबालब बहकर बहता जाता है
अनस्तित्व से
यकायक खुल जाती हैं आँखें अँधेरे की
और भीतर छुपाया हुआ
साफ़ दिखाई देता है सच
नज़र की क़ैद में
थका-थका-सा।

कितना भयावह

कितना भयावह होता है
मध्यरात्रि का दर्पण
कितना स्वच्छ
कितना ईमानदार!
अँधेरे में यकायक उठ खड़े होने पर
अँधेरे से भी घना अपना साया
हिलता रहता है कोने में
आख़िर कौन है यह?
दिन में पूरे समय स्वयं को उधेड़ती रहती
अथाह तूफ़ान में स्वयं को ठेलती
अहंकार
वासना
विकार
पीड़ाएँ
कई-कई पाशों में जकड़ी-कसी
कभी अनाश्रित
कभी पराई
और यकायक खुलकर मुक्त-मुक्त होने वाली
यह देह क्या अपनी ही है?

छोड़ना होगा

छोड़ना होगा उम्र के चालीसवें पड़ाव पर
आँख मूँदकर जीने की परिपाटी को
दिन रेत की तरह हाथ से
फिसलता जाता हो
तब नहीं मिला सकते हैं
रात्रि की आँखों से आँखें!

आधे-अधूरे ज्ञान के टुकड़े
देते हैं दर्द यहाँ-वहाँ चुभकर
और भीतर उठते आवेग
रख देते हैं अंगों को
जहाँ-तहाँ निचोड़कर
रास्ते
पगडंडियाँ
मोड़…
सभी दे जाते हैं चकमा
धारा के साथ बहते जाएँ
भँवर में उलझा लें
ग़श खाते
लुढ़कते चले जाएँ
संभव हो जिस पहाड़ से
ठेल दें नीचे या
राहों की गुत्थियों में अटके पाँव
छुड़ाते-छुड़ाते
किसी सीधी-सरल राह पर
छोड़ दें ख़ुद को
कुछ भी तो समझ में नहीं आता है
ऐसे टूटे क्षणों में
दिन इतना भोला बनता हुआ
और
रात्रि
फ़ैसले की प्रतीक्षा में
आक्रमक!

परिंदे लिखते नहीं

परिंदे लिखते नहीं हैं
हार के गीत
ऐसा नहीं है कि
उनकी आँखों के सामने ही
उड़ा न ले जाता हो कोई उनके मुँह का निवाला
लड़कर
छीन-झपटकर
पा सकते हैं वे उसे पुनः
बड़ी मछली के पेट के नीचे से
लपक कर निकलती छोटी मछलियाँ
जानती हैं
अपनी औक़ात
अपना आकार
बरगद-पीपल के पेड़ एक होकर
नहीं करते हैं जीना दूभर
मोगरा
गुलाब या बेर-बबूल का भी
इंसानों की दुनिया में!

हज़ारों वजहें होती हैं हार की
छुपी और साफ़-साफ़
कोई किसी से कहता नहीं है उनके बारे में
हमें ही जाँचने होंगे हर दिन अपने हाथ-पाँव
किसी ने छाँटे तो नहीं हैं नाख़ून
रात ही रात में
ग़ायब हो सकता है
दुनिया के नक़्शे से हमारा गाँव
हमारा इतिहास
हमारा नाम
दर-दर घूमिए आप फिर भी
कोई भी नहीं दे पाएगा गवाही
आपके पक्ष में कि
‘यहीं इसी जगह पर था आपका गाँव
हाँ
सुना तो है आपका नाम!’

पता होता है

पता होता है
स्त्री को बहुत अच्छे-से
सृजन में निहित मौत-सी पीड़ाओं का
अमानुष पागलपन
पाशविक ख़ुशी
और सृजन के बाद का पवित्र अँधेरा
तौल सकते हैं उसके कंधे
सृजन में निहित हार को भी
देह से परे होती है उसकी समझ
जिसे तौलने के लिए नहीं होता है कोई
उसके आस-पास
पंक्तियों के दरमियान के
कुछ कहते अँधेरे में
भटकते रहते हैं उसके शब्दों के अर्थ
तब शब्द-सुर-ताल-रंग-रेखा सभी
समा जाते हैं एक अपरिहार्य-से मौन में
नहीं शेष रहता है कोई भी उत्तर
स्त्री के प्रश्न का
दृश्य को खोकर स्त्री देखती रहती है
शब्दों को खोकर कहती रहती है!

आकुलता से

आकुलता से राह तकी ख़ुद की ही
देह से बाहर खड़े होकर!

हर दिन की निहायत ही
सीधी-सरल घटनाओं से छुपाते हुए
ख़ुद को ही देखा कई-कई बार
संभाषणों की आवाज़
उतरती गई हलक़ से नीचे
ताकि भीतर का भार हल्का हो कुछ!

जमा किया जी-जान से शब्दों का जमावड़ा
पर कहाँ था कोई सुनने वाला
घर-मंदिर-गर्भगृह-सभागार-सिनेमाघर
सभी जगह सिर्फ़ एक ही कोलाहल उठता हुआ
निरा जड़ हो-हल्ला
अनसुनी थी जहाँ पर हर किसी की आवाज़
मैंने भी कभी नहीं सुना ख़ुद को
प्रातः काल कलियों के खिलने के कोमल पलों में
कहाँ देखा ख़ुद को छू कर
या भीतर कुछ खिलने का कोई अंदेसा ही
पाँव में गुलाबी रेशों को लिए
धीमी गति से उड़ती हुई चिड़िया देखकर मुझे
डाल देती है घबराई-सी रेशों को नीचे
उसे तो नहीं होता है
पर मुझे भी नहीं होता है भरोसा ख़ुद पर
फिर भी उसका घोंसला खड़ा होता है दृढ़ता के साथ
घरौंदे से गूँजती हो जैसे संझा की आवाज़
वैसे बहता है सूक्ष्म-सा एक नाद मेरी भी रगों में
पर कहाँ होता है साहस उसे सुनने का
रीढ़ की हड्डी के समीप होती उसकी फुसफुसाहट
अगर सुनना चाहो उसे तो
पैरो में उलझे गुलाबी रेशम को फेंक देना होगा मुझे
और भिड़ना होगा फिर ख़ुद से ही!

सुजाता महाजन (जन्म : 1962) सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री और कथाकार हैं। ‘भावनिका’, ‘आर्त’ और ‘स्वतःतल्या परस्त्रीच्या शोधात’ उनके प्रमुख कविता-संग्रह हैं। उनसे sujanmaha@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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