जैनेट फ़्रेम की कविताएँ ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद : प्रचण्ड प्रवीर

जैनेट फ़्रेम

मैं अपनी बाँहों में भर लेती हूँ उससे कहीं ज़्यादा जितना कि सँभाल सकती हूँ

मैं अपनी बाँहों में भर लेती हूँ उससे कहीं ज़्यादा
जितना कि सँभाल सकती हूँ
मुझे लुढ़का दिया है दुनिया ने

सीढ़ियों की, पियानो की, पत्थरों को काट कर बने सोपानों की एक सृष्टि
एक भक्षक दाँतों की सृष्टि जहाँ एक आम घोंघा तक
एक जंगल का दिल निकालकर खा जाता है
जैसे कि तुम और मैं, जो मानव हैं, रात में

फिर भी मैं अपनी बाँहों में भर लेती हूँ उससे कहीं ज़्यादा
जितना कि सँभाल सकती हूँ

यदि कवि कम उम्र में मर जाएँ

यदि कवि कम उम्र में मर जाएँ
वे अपनी ज़िंदगी का दो-तिहाई हिस्सा आलोचकों को वसीयत कर देते हैं
जिसे वे चरें और मुटाएँ
दूरदर्शी घास में

यदि कवि बुढ़ापे में मरते हैं
वे अपनी ज़िंदगी स्वयं जीते हैं
अपनी कविताएँ स्वयं लिखते हैं
वे स्वयं हैं जो वे हो सकते थे

युवा मृत कवि बहुमूल्य धूमकेतु हैं
आलोचक अपने ख़ाली छकड़े के साथ पंक्तिबद्ध होकर बिठाने को आतुर होते हैं

वृद्ध जीवित कवि
अपने नभ में विश्वसनीयता से रंग बदलकर छुपे रहते हैं
यहाँ तक कि भुला भी दिए जाते हैं कि वे बड़ी देर से चमक रहे थे
उनके अवशेष उनके गिरने पर
धरती पर बुझे हुए मिलते हैं
आकाश ख़ाली है, सूरज और चंद्रमा जा चुके हैं
गली के बल्ब, चमकने वाले कीड़े, जुगनू इतने नहीं हैं जो उजाला कर सकें

और लगता है कि बहुत दिनों तक सितारे भी नहीं होंगे

अंतिम छोर

अंतिम छोर पर
मुझे अपनी नज़रें ऊपर या नीचे करनी हैं
यह रास्ता यहाँ ख़त्म हो जाता है

ऊपर आकाश है, नीचे सागर है
या, अधिक सरलता से, गगन और समंदर होड़ में हैं
मेरा स्वागत करने में, चिल्लाने में कि मुझमें उड़ आओ (या डूब जाओ)
मुझे हमेशा किसी बुलावे को मना करना बड़ा मुश्किल लगता है
ख़ासकर जब मैं अंतिम छोर पर आ पहुँची हूँ
एक
अंतिम
छोर

वे पेड़ जो खड़ी चट्टानों के किनारे बड़े होते हैं,
जो मौसम की मार सहकर काँटे निकाल लेते हैं
नमक का स्वाद
क़रीनेदार पत्तों और उनकी चमक को अनदेखा कर देता है :
चमकरहित सफ़ेद बालों के नीचे डायनों की तरह
नमक की पुड़ियाँ उलझी गुत्थियों से लिपटे;
नीचे
धरती को अपनी जड़ों से ठोकर मारते हैं
और निकाल फेंकना चाहते हैं
शांति को
अपनी गाढ़ी नींद से

मैं समझती हूँ, यहाँ, अंतिम छोर पर, यदि मैं हवा में कोई रास्ता निकालती हूँ
मैं चलती जाऊँगी और अपनी ज़िंदगी जीती रहूँगी;
एक प्लास्टिक की चटाई पर, तनी हुई रस्सी पर चलने की तरह
लेकिन मेरे पास कुछ नहीं इस अंत के पार किसी को बिठाने को
सागर के चारों और फैली धुँध में मैं कुछ देख नहीं सकती;
मुझे किसी चिड़िया या मछली में बदल जाना होगा
मैं अंतिम छोर पर पड़ाव नहीं डाल सकती

मैं नहीं बचूँगीं
जब तक कि मैं किसी मिथकीय समय में लौटकर
एक वृक्ष नहीं बन जाती
दंतविहीन जहाँ मेरी आँखें नमक के छींटों से भरी हों;
ज़मीन में जड़ें जमाए इसी सीधी चट्टान के कगार पर विरोध करते हुए
—मुझे यहीं रहने दो!

जैनेट फ़्रेम (1924-2004) न्यूज़ीलैंड की समादृत कवयित्री हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ अँग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद के लिए nzpoetryshelf.com से ली गई हैं। प्रचण्ड प्रवीर हिंदी लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : संगरोध

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