दुर्गा प्रसाद पंडा की कविताएँ ::
ओड़िया से अनुवाद :: सुजाता शिवेन

Durga Prasad Panda poet 1
दुर्गा प्रसाद पंडा

कुछ लड़कियाँ : एक ज़िद की कविता

कुछ लड़कियाँ मामूली एक ज़िद को
रबड़ की तरह खींच-तानकर
बिता देती हैं अपनी बाक़ी की ज़िंदगी।

आँख-कान लाल कर
इस तरह से न छोड़ने की ज़िद लिए
अड़ी रहती हैं जब
ख़ूब सुंदर लगती हैं कुछ लड़कियाँ।

कुछ लड़कियाँ पिघलकर बह जाती हैं,
कुछ एक खुदरा प्रेम की ऊष्मता में।

और कुछ लड़कियाँ कमर में आँचल खोंसकर
सीधे आकर खड़ी हो जाती हैं,
बुलडोजर के सामने।

कुछ लड़कियों को देखने से लगता है
इन्हीं की गोद में सिर रखकर
मरा जा सकता है परम शांति से।

कुछ लड़कियाँ अपने भीतर से
खुल जाती हैं अपने आप ही
फूल की पंखुड़ियों-सी;
पुरुष नहीं, पेड़ों से ही
ब्याह कर लेती हैं कुछ लड़कियाँ।

कुछ लड़कियाँ कविता बनतीं और कुछ किंवदंती
कुछ लड़कियाँ लौट नहीं पातीं घर को
दुपहर के अंधकार में खो जातीं।

शहर की सबसे ज़्यादा भीड़ भरी सड़क पर
पूरी तरह विवस्त्र खड़े होकर
कुछ लड़कियाँ हिला देती हैं शासन-तंत्र को।

कभी पवन को तो
कभी पानी को
पीट-पीटकर बीत जाती हैं कुछ लड़कियाँ।

बारूद बन, धुआँ बन
सुलगती रहती हैं कुछ लड़कियाँ
इस तरह होते-होते कुछ लड़कियाँ
ख़ुद ही फट जाती हैं बम बनकर।

हँसी की लड़ी को फूल की तरह
ईश्वर के चेहरे पर फेंक कर, रजस्वला होने पर भी
कुछ लड़कियाँ बलात् घुस जाती हैं मंदिर के भीतर।

कुछ लड़कियाँ होती हैं बहुत ज़िदख़ोर, कुछ बहुत मानिनी
कुछ लड़कियों के मन के अंदर
नीरव बहती रहती है,
दुःख की एक गुप्त नदी।

कुछ लड़कियाँ लगातार झगड़ा करती रहती हैं,
अपनी देह के साथ, दर्पण के साथ।
और कुछ लड़कियाँ घने अरण्य का अभेद्य रहस्य।

कुछ लड़कियाँ सीने के भीतर की तरल उसाँस
और कुछ आजीवन अफ़सोस।

कुछ लड़कियाँ तो एकदम बिजली
जहाँ गिरतीं वहाँ, कई साल तक फिर
उग नहीं पाता
एक भी गुच्छा दूब का।

कवि मनजीत टिवाणा को पढ़ने के बाद।

माँ-बेटी संवाद

इतनी ज़्यादा शरम
और मत मल तू मेरे चेहरे पे।

एक-आध बार इस लाज-शरम को भी
मैं जला कर खाना सीखूँ
दहकते अंगार में।

खीसें मत निपोर
बस तेरा यह रोक-टोक।

देख मेरे चारों तरफ़ सुबह
कैसे और थोड़ा निखरी दिखती हैं,
मेरी खिलखिलाती हँसी में।

अनार की तरह दाँत की सजावट मेरी
किसी के बाड़े में से तो किया नहीं चोरी
कि रखूँ इसे ढक कर हमेशा
होंठों के नीचे या फ्राक के भीतर।

भरे-भरे इन गालों को
और गुलाबी होंठों को
कहो कहाँ छुपाऊँ फिर?

अपने इन लंबे बालों के गुच्छों को
एक कसी चोटी में गूँथ कर
क़ाबू में रखने की बहुत चाहत है तेरी तो!

पर इस आग लगी चोटी को
कहाँ ले जाकर छुपाऊँ? बोल?

इस गोरे रंग को
कैसे पोछ दूँ तन से
ख़ून में उठ रहे ज्वार को
क्या कहकर लौटा दूँ दहलीज़ से!

दिखा दे किस कूड़े के ढेर में
ले जाकर फेंक दूँ
अपने इन दोनों उद्धत स्तनों को।

और पंख फैलाए आकाश में उड़ रहे
इस मन को?

छिप-छिपकर ख़ुद को निरख रही हूँ
इसलिए जो कह रही हो यह बात
तो बोल, तोड़ दूँ इस दर्पण को?

कीड़ा

कीड़े सारे पैदा होते हैं
और मरते हैं
हज़ार-हज़ार की संख्या में।

सच में जैसे मरने के लिए ही हुआ हो उनका जन्म।
फिर भी उन्हें कोई
शिकायत नहीं होती
हमारी इस बेतरतीब पृथ्वी से।

पता नहीं मिट्टी के भीतर छिपे
जीवन के किस स्वाद को
चख चुके होते हैं वे!

जीवन और मृत्यु की
सर्पीली गली के रास्ते से
कितनी सतर्कता के साथ
घुस आते हैं वे
हमारे इस कोलाहलमयजीवन के भीतर।

हम क्या कभी
पहचान पाएँगे उन अलौकिक राहों को
जिनसे वे पहुँच जाते हैं
पेड़ पर लटके फलों में?

कीड़े-मकोड़े खिल्ली उड़ाते अमरत्व की,
ईश्वर के साथ उनकी बातचीत सीधे-सीधे,
ख़ूब बेपरवाह और अस्थिर,
उनकी सारी गतिविधि।

ख़ास इसलिए कभी-कभी
वे मौत को भी बुलाते हैं हाथ के इशारे से,
भीड़ में नज़र आ गए
किसी पुराने मित्र की तरह।

और थोड़ा ध्यान से देखने पर
मौत को चिढ़ाने जैसा
नज़र आता है मृत कीड़ों का चेहरा।

वे चीख़ते नहीं
उत्कट पीड़ा से,
वे विभोर नहीं होते
भरपूर ख़ुशी में,
वे टूट नहीं जाते
उनके ऊपर लद गए
दुःखों के ढेर से।

ऐसे ही सारे कीड़े पैदा होते
और मर जाते हैं हज़ारों की संख्या में
फिर भी उनको कोई
शिकायत नहीं होती
हमारी इस बेतरतीब पृथ्वी से।

जूता और पाँव

एक

पाँव अब नहीं
पहन रहे हैं जूता

अब जूते सारे
पहन रहे हैं पाँवों को।

दो

कुछ पाँवों में नहीं था जूता
कुछ जूतों में नहीं थे पाँव

कुछ पाँव अपने को इतना हीन
समझ रहे थे कि जूते के भीतर
घुसने के लिए साहस नहीं था उनमें।

तीन

अचानक कुछ पाँव
हो गए विराट और महान
उनके लिए नहीं मिले जूते

कुछ जूते भी इतने बड़े हो गए
कि उनके लिए नहीं मिले पाँव।

चार

पसीने-पसीने होकर कुछ पाँव
दौड़ रहे थे रास्ते में,

दौड़ते-दौड़ते थक जाने पर
पता चला
वे एक क़दम भी
हटे नहीं थे अपनी-अपनी जगह से।

पाँच

पंख उगाकर
कुछ पाँव उड़ना भी सीखे शून्य में

जो पाँव कम उतरते थे
धूल-मिट्टी के रास्ते पर

सबसे ज़्यादा जूते
जमा रहते थे उन्हीं के पास।

कविता जो एक पत्नी अपने पति को नहीं सुना पाई कभी भी

अपने भीतर मैं
ख़ूब अकेली थी
शायद इसलिए
आतुर होकर
तुम्हारे हाथों को पकड़े रखा

उसके बाद ऐसा क्या हो गया
मैं अपने भीतर की
अँधेरी गर्त के अंदर निचुड़ गई,
घिसट गई

और भी ज़्यादा अकेली हो गई
इतनी अकेली
जितनी मैं कभी भी नहीं थी।

हाथ

हज़ार नखरे हैं इस हाथ के

अछूत होकर भी ढूँढ़ने लगा है
सवर्ण प्रेम, देखो फिर
उसका साहस कितना कि
कहता है देखूँगा देव।

सिर्फ़ बढ़ जाने के सिवाय
इस आग लगे हाथ ने कुछ और जाना ही नहीं
हाथ के आँख नहीं है सच है
पर उसके सपने के लिए रात भी पूरी नहीं पड़ती

एक बार नहीं, दो बार नहीं
बार-बार असफल, उपहासित, लांछित होकर भी
यह कंगाल हाथ दुपहर की छाँव के जैसे पसर जाता है
सारे निषिद्धों में, अनपहुँच में, अनिश्चित में।

फिर भी यह बावरा हाथ
शून्य में चित्र बनाता है और मिटा देता है
हवा को मुट्ठी में जकड़ कर रखता है,
फिर फेंक देता है अंतरिक्ष में
पानी के ऊपर ही खींच देता है अजस्र रेखाएँ

अब हाथ को फूल की पंखुड़ियों-सी
घेर रखे हैं अनामिका, कनिष्ठा
तर्जनी और मध्यमा अपनी-अपनी जगह हैं सुरक्षित

बस सिर्फ़ अँगूठा माँग कर
चले गए हैं कब से एक गुरुवर कि
नाम भी नहीं ले रहे हैं और लौटाने का

अब उसे ही ढूँढ़ता फिर रहा है यह हाथ!

आत्महत्या करने वाले छात्रनेता रोहित वेमुला को समर्पित।

ऐसा कोई एक तो होता है

कितना भी जल्दी-जल्दी चलकर
हाँफते हुए पहुँचने पर भी
ऐसा कोई तो होता है
जो पकड़ नहीं पाता आख़िरी बस को।

निराशा की धूल
चेहरे पर मलकर लौटता है वह।

ऐसा कोई तो होता है
स्टेशन में पहुँचते-पहुँचते जिसके
गाड़ी चलना शुरू कर देती है और
आख़िरी डिब्बे की लालबत्ती
उसे चिढ़ाती रहती है।

इंतज़ार की लंबी क़तार में
ऐसा कोई तो होता है
जिसकी बारी आते ही
उसके मुँह पर धड़ से
बंद हो जाती राशन की दुकान की खिड़की।

होटल की हाँडी-देगची धोने-पोछने के बाद
टेबल पर सारी कुर्सियों को पलट कर रखते समय
कोई एक भूखा तो ज़रूर आकर पहुँचता है
और लौट जाता है बिना खाए—
अपने पेट की भूख को चुभलाते हुए।

बस्ती के एकमात्र नल के नीचे
कई क़िस्म के मटकों और बाल्टियों की भीड़ में;
साड़ी के पल्लू में ढके चेहरे और
चूड़ी खनकाते हाथों की हलचल के भीतर
ऐसी एक पिचकी टेढ़ी बाल्टी ज़रूर होती है
जिसके नल के नीचे आते ही
भक-भक की आवाज़ करते बंद हो जाता है पानी।

ऐसे कितने-कितने ख़ालीपन और मायूसी में
निरंतर भारी होती जाती है हमारी पृथ्वी।

ऐसे कुछ लोग शायद
गढ़े होते हैं हमारी दुनिया में,
ख़ासकर बाक़ी रह जाने के लिए
हर तरह की दौड़ के आख़िर में,
सभी के पीछे।

ख़ुद ईश्वर भी शायद
चिढ़ाता है उन्हीं लोगों को व्यंग्य से
जो पहुँच नहीं पाते हैं
ठीक जगह पर, ठीक समय पर।

शब्दों का दुःख

आदमियों की तरह
शब्दों के दुःखों की सूची भी
ख़ूब लंबी है।

शब्दों में भी होती है
बहुत कुछ अनकही वेदना
इसीलिए आजकल शब्द सारे
नज़र आते हैं
नितांत असहाय और विषण्ण।

भाव, अर्थ और संलाप के कोलाहल के बाहर रह कर
शायद वे भी जीना चाहते हैं,
निजता और एकांत जीवन।

सारा जीवन भावों का भार ढोते-ढोते
झुक कर चल रहे शब्द सारे अब निथर निःसंग
बहुत क्लांत हैं और अवसन्न-स्थिर, निःसंग

और कितने दिन शब्द भला सहते
प्रकाशन की मर्यादा
व्यंजना के क्षुर की धार
भावों की घोर यातना
अर्थ का अत्याचार?

शब्द भी बूढ़े होते हैं और मरते हैं
ठीक हमारी तरह
शब्द भी होते हैं लहूलुहान
और टूट-फूट जाते हैं काल के कर्षण में
शब्द भी चाहते हैं
इन सारे जंजालों से मुक्ति,
देखते रहते निरंतर एक ही सपना

खुल जाता भला उनकी देह से
भाव और अर्थ का यह धूसर पिंजरा
और वे उड़ जाते
मुक्त तितली की तरह
विषण्ण आकाश की फूल वाली नीरवता की तरफ़।

आदमियों की तरह
शब्दों के दुःखों की सूची भी
ख़ूब लंबी है।

करबद्ध हाथ

हँसते हुए जुड़े हाथ,
मेरा सबसे बड़ा डर!

जुड़े हाथों की लड़ियाँ
अब लटकी रहती हैं दीवारों पर
सजी रहती हैं भव्य तोरण में

शहर के चौक पर हँसते चेहरे से
लटके हुए हैं चमगादड़ की तरह पेड़ पर
झंडे की तरह फर-फर उड़ रहे हैं हवा में।

उस दिन एक जुड़े हाथ ने
मेरा पीछा किया ऐसा कि
मैं डर कर छिप कर बैठ गया
बहुत दिनों से व्यवहृत न होकर पड़े हुए
एक अश्लील शब्द के पीछे

जुड़े हाथ कभी भी किसी भी दिशा से
या किसी भी कोने से दौड़ते हुए कहीं आ जाएँ।

धारदार चमकती तलवार बन
हवा में झन्नाटे से घूम सकता है।

ख़ून से धूली सड़क पर भी
जुड़े हाथ दाँत दिखाते हुए
निर्विकार चलकर जा सकता है।

एक दिन रास्ता मोड़ कर
भाग जाते समय
खप से मेरा हाथ पकड़ लिया
एक जुड़े हाथ ने।

चाँद को अंकुश लगा कर पके फल-सा
तोड़कर मेरे हाथों में देने की बात कहते हुए
अंगार की तरह दप-दप जल रही थीं उसकी आँखें।

अब चाँद देखते ही याद आती है उसकी बात
तन के पुराने घाव के दाग़ की तरह
अस्पष्ट दिखने लगा है उसका चेहरा।

अब मेरे चारों तरफ़ हैं जुड़े हाथों की लड़ियाँ
सामने-पीछे दोनों तरफ़
कुटिल हँसी की भीड़।
जाने क्यों वे इतने घने हैं मेरे ही पास?
मैं तो किसी के बाएँ पैर की छोटी उँगली से
ख़ूब आसानी से सड़क के किनारे धकेल दिए जाने वाला
एक शून्य हूँ जिसने
ख़र्च कर दिया है एक लंबा जीवन
सिर्फ़ बेचारा नज़र आने में।

***

दुर्गा प्रसाद पंडा (जन्म : 1970) भारतीय कविता के सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। वह ओड़िया और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखते हैं। ओड़िया में उनकी कविताओं की तीन किताबें प्रकाशित हैं। साहित्य अकादेमी के लिए उन्होंने हाल ही में सुविख्यात अँग्रेज़ी साहित्यकार जयंत महापात्र पर Jayanta Mahapatra A Reader शीर्षक से एक किताब संपादित की है। उनसे durgaprasad2270@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुजाता शिवेन सुपरिचित अनुवादक हैं। उनसे sujata.shiven@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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