शोएब कियानी की नज़्में ::
उर्दू से लिप्यंतरण : ज़ुबैर सैफ़ी

मर्दाना कमज़ोरी
कोई अपना मरा, मेरा अपना मरा
मेरे आँगन में मातम की सफ़ बिछ गई
औरतें बैन करतीं रहीं, बच्चे रोते रहे
मैं नहीं रो सका
मेरी पहली मुहब्बत
जो सच्ची भी थी और सुच्ची भी थी
जब किसी ने उसे मुस्तरद कर दिया
मेरे सीने में यकदम घुटन भर गई
साँस रुकने लगी, मैं नहीं रो सका
मुझ पे तोहमत लगाई किसी शख़्स ने,
मेरे किरदार की लाश पर पाँव रखकर
वो ऊँचा हुआ
मेरे पैरों के नीचे ज़मीं ना रही,
मैं नहीं रो सका
जैसे चरवाहा झोली में पत्ते दिखाकर
जो होते नहीं हैं, बुलाता है अपनी तरफ़ बकरियाँ
मुझको ऐसे किसी ने कहा, “आ मुहब्बत करें!”
उसके नज़दीक जाकर खुला,
उसकी झोली में चाहत के पत्ते नहीं
मेरे चीख़ें गले में दबी रह गईं,
मैं नहीं रो सका
मैंने दफ़्तर में इक नौकरी ढूँढ़ ली
थोड़ा-थोड़ा वहाँ रोज़ मरता रहा,
काम करता रहा
मेरे कानों में लावा उँड़ेला गया,
मेरे चेहरे की रौनक़ मिटाई गई,
इक-इक रग से ख़ूँ को निचोड़ा गया
मेरा सारा बदन ज़र्द होता रहा,
दर्द होता रहा, मैं नहीं रो सका
मेरे काँधे पे औरत को रखा गया
पुश्त पर बाप का कुनबा लादा गया
सर पर कौए भी भूखे बिठाए गए
मेरे हाथों में तलवार दे दी गई
मुझ को मेरे ख़ुदा से डराया गया
जब कमर झुक गई मैं घिसट कर चला
कोहनियाँ छिल गईं, घुटने ज़ख़्मी हुए
ख़ून रिसता रहा, मैं नहीं रो सका
हादसों, आफ़तों, बम-धमाकों, वबाओं में और जंग में
मेरे अपनों की लाशें उठाईं गईं,
मेरा दिल भर के आँखों तलक आ गया
मैं नहीं रो सका
रात दुनिया से छुपकर
मैं ऐसे जहाँ को ख़्यालों में लाता हूँ
जिसमें सभी दोस्त हों
इस तरह, जिस तरह पेड़ की एक टहनी कटे
तो सभी टहनियाँ ख़ुद पे महसूस करती हैं आरे के दाँत
और सभी टहनियाँ अपना रस बाँटती हैं कटी शाख़ से
फिर कई टहनियाँ फूटती हैं उसी शाख़ से
एक ऐसे जहाँ को ख़्यालों में लाता हूँ
जिसमें सभी औरतें शादमानी में खुलकर हँसें
दर्द में मर्द भी रो सकें
मैं बहुत रो के चिल्ला के दुनिया को बतला सकूँ
मेरे आसाब में किस क़दर दर्द है
मैं तसव्वुर में लाता हूँ ऐसी जगह
मुझको रोता हुआ देखकर कोई ये न कहे :
“मर्द बन! मर्द बन!”
सुबह होते ही मैं अपनी सारी अज़ीयत को
काँधों पे लादे हुए काम पर जाता हूँ
उस जहाँ के ख़्यालों से बाहिर निकल आता हूँ
क्योंकि ऐसा जहाँ मेरी मर्दानगी को गवारा नहीं।
बम
कोई कितनी मशक़्क़त से पैदा हुआ
एक क़तरे को गबरू जवाँ करते-करते
किसी के बदन का लहू लग गया
या कोई नेज़ा-क़ामत कमाँ बन गया
बम नहीं सोचता
एक जवाँ हाथ में पकड़े सीवी से लफ़
आ’ला तालीमी डिग्री के क़ागज़ पे कुनबे की तक़दीर है
एक बस में नफ़ासत से चलती हुई
हॉस्टेस के क़रीने से रखे हुए
उसके पैरों में आटे की ज़ंजीर है
बम नहीं देखता
कोई पंडित है, फ़ादर है, मुल्ला है
या कोई पहुँचा हुआ पीर है
बम नहीं पूछता
कोई ज़म-ज़म से धोया हुआ है
या गंगा नहाया हुआ
बम नहीं सूँघता
बम को पहने हुए ख़ूब-रू नौजवानों की
आँखों में जो सब्ज़-बाग़ों का नक़्शा है
वो बाग़ हैं
बम नहीं मानता
बम जो फटता है तो
मस्जिदों, मंदिरों, कोठियों, गाड़ियों, घोंसलों,
छोटे बच्चों, बुज़ुर्गों, ख़िरदमंद ज़हनों
और अहमक़ दिमाग़ों को खा जाता है
बम पे हैरत नहीं, बम से शिकवा नहीं
बम की आँखें नहीं, बम तो बेजान है
मुझको हैरत है तो बस इसी बात पर
बम पे इतराने वाला तो इंसान है
वो नहीं सोचता
क्यों नहीं सोचता?
क्यों नहीं सोचता?
क्यों नहीं सोचता?
ग़ुलामी आसमानों से नहीं उतरी
डरो उस वक़्त से जंगल के फ़ुर्तीले शिकारी को किसी दिन बकरियों का कोई रेवड़ जब पलटकर अपने सींगों पर उठा लेगा
डरो उस वक़्त से सैलाब का पानी उतरते ही हज़ारों चीटियाँ जब मछलियों को खाने आएँगी, उन्हीं सब मछलियों को जो कभी सैलाब में इन चीटियों को खाया करतीं थीं
डरो उस वक़्त से ताँगे के आगे भागते घोड़ों को जब आँखों पे पहने खोंपों से बाहर नज़र आने लगेगा और वो चाबुक चलाते कोचवानों के दिखाए रास्तों को छोड़ कर अपनी मनाज़िल, अपने रस्ते ख़ुद बना लेंगे
तब उन पर चाबुकें जितनी पड़ें सब बे-असर होंगी
डरो उस वक़्त से पिंजरे में बैठे सब्ज़ तोते अपने मालिक की रटाई बोलियों को भूल कर जब ऐसे—ऐसे लफ़्ज़ सीखेंगे,
जिन्हें पढ़ते ही लोहे की सलाख़ें टूट जाती हैं
डरो उस वक़्त से सब फ़ाख़्ताएँ घोंसलों में साँस लेती अगली नस्लों को तहफ़्फ़ुज़ के लिए जब यक-ज़ुबाँ होंगी
तो फिर उस दिन सब उक़ाबों और साँपों को घरों से बाहर आते ख़ौफ़ आएगा
डरो उस वक़्त से सर्कस के शेरों को जब इक दिन जंगलों की पुर-फ़ज़ा, आज़ाद दुनिया याद आएगी
तो वो अपने ट्रेनर को दबोचेंगे और उस की शाहरग में दाँत गाड़ेंगे
डरो उस वक़्त से ऐ बाला-दस्तों!
जब तुम्हारे ज़ेर-दस्तों को समझ आ जाएगी उन पर ग़ुलामी आसमानों से नहीं उतरी।
रास्ता
ओ पड़ोसी! सुन ज़रा दीवार के नज़दीक आ
एक-सा मंज़र है इस दीवार के दोनों तरफ़
दोनों जानिब एक जैसी जानलेवा भूख है
दोनों जानिब दूर तक फैले हुए अमराज़ हैं
हाँ! मगर दोनों के हाथों में नई बंदूक़ है
तेरे बग़ीचे से सब्ज़ी खा गई हैं सुंडियाँ
मेरे पेड़ों को भी दीमक ने बुरादा कर दिया
हम ने इस दीवार की ईंटें बचाने के लिए
आने वाली पीढ़ियों को बे-ठिकाना कर दिया
हम बदल सकते हैं अपने दोस्त और दुश्मन मगर
लाख चाहें भी तो हमसाये बदल सकते नहीं
साथ रहना ही है हमने जब तलक संसार है
नफ़रतों से ज़िंदगी के काम चल सकते नहीं
नफ़रतों को भूलकर अपनी अनाएँ छोड़ दो
आ! ज़रा सोचें हमें इस दुश्मनी से क्या मिला?
बन गया अपना मुक़द्दर जंग का बे-अंत ख़ौफ़
दूर तक फैला हुआ है वहशतों का सिलसिला
गर अलग करती है ये दीवार दोनों के मकाँ
इनको आपस में मिलाती भी यही दीवार है
आ इसी दीवार के अंदर बना लें दर कोई
आने वाली पीढ़ियों को रास्ता दरकार है
ओ पड़ोसी! सुन ज़रा दीवार के नज़दीक आ
बाग़ी
लोग कहते रहे
शहरियों के सर पर ये बंदूक़ ताने हुए नौजवाँ
दुश्मन-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत हैं या नासूर हैं
इनके मरने से मशरूत है ज़िंदगी
हम सभी इनकी दहशत से महसूर हैं
लोग कहते रहे
मौत के ख़ौफ़ से
अपनी नस्लों के कल के लिए फ़िक्रमंद
अपनी महदूद-बयानी से देखते अक़्ल-मंद
अपनी बेबस ज़बानों की लुक़नत छिपाते हुए
लोग कहते रहे
कहने वालों के हमराह बैठा हुआ
मैं यही सोचता रह गया
ये हसीं ख़ूब-रू नौजवाँ
जिनकी उम्रें मुहब्बत के नग़्मे सुनाने की हैं
ये गाड़ियाँ उठाकर नहीं घूमते?
ढोल की थाप पर क्यों नहीं झूमते?
इनके हाथों में इश्क़िया नॉवेल नहीं
इनके सेलफ़ोन के वॉलपेपर में कोई हसीना नहीं
इनकी उँगली पे कोई नगीना नहीं
मैं यही सोचता रह गया
इनकी आँखों को सुर्ख़ी कहाँ से मिली?
इनके चेहरों पे दहशत की कालिख कहाँ से लगी?
इनके सीने में बारूद किसने भरा?
इनको जीने की ख़्वाहिश से महरूम किसने किया?
सारे असबाब, जो ज़िंदगी की बक़ा के लिए चाहिए,
दूर किसने किए?
फूल उठाने की उम्रों में ये नौजवाँ
असलहे लेके चलने को मजबूर किसने किए?
सेक्स वर्कर्स
सड़क किनारे, स्टेशनों पर
पुराने कोठे की बालकनी में
होटलों की बहिश्त-मिसाल लॉबियों में
बड़े बुज़ुर्गों के मक़बरों और हस्पतालों के गेट के पास
शब गए जो खड़े हुए हैं
ये लोग क्या हैं?
सुना है ये सारे बिक रहे हैं
हसीन लड़के, ट्रांसजेंडर या लड़कियाँ
जिनके बुझते चेहरों की ज़र्द रंगत
चमकता मेकअप छुपा न पाए
इन्हें हवस है या कोई लालच?
जो अपनी मर्ज़ी से ख़ुद को नीलाम कर रहे हैं
मुझे किसी से बहुत मुहब्बत हुई तो सोचा
इन्हें भी कोई पसंद होगा
इन्हें भी मेरी तरह किसी से बहुत मुहब्बत हुई हो शायद…
तो क्यों भला ये ग़लीज़ जिस्मों को ओढ़ते हैं,
ये गंदे मुँहों को सूँघते हैं
ये पाँच रातों का कर्ब सहते हैं
आधी शब के मुआवज़े में
ये भर के लाते हैं
अपने कानों में घटिया लफ़्ज़ों का गर्म सीसा
ये अपने तन पर बहुत से घाव लिए हुए हैं
ये अपने मन में बहुत से घाव लिए हुए हैं
भला कोई होश-मंद मर्ज़ी से अपना नुक़सान क्यों करेगा?
मुझे मुहब्बत मिली तो सोचा
अगर वो सब कुछ जो शरीफ़ों में बँट गया है
इन्हें भी थोड़ा-सा मिल सके तो
ये अपना मनचाहा जिस्म ओढ़ें
जो इनकी रूहों में बस रहा हो
जो इनको ज़हनों में खिल रहा हो
जो इनकी साँसों में इत्र घोले
जो इनके तन-मन के घाव भर दे
ये आम लोगों की इज़्ज़तों से बने
घरों की सम्त आते हवस के पाने के
बिफरे रेले को सँभालते हैं
वो जिनके मेदे भरे हुए हैं
उन्हें बता दो
ये दीन-ओ-दुनिया से मावरा हैं
इन्हें जहन्नम से मत डराएँ
ये रोज़ अपने बदन जहन्नम में डालते हैं
ये अपनी रूहों को बेचते हैं तो अपने जिस्मों को पालते हैं
एक मंज़ूम ख़त
ख़ुदकुशी कर रहे हो?
करो!
नोट भी लिखके जाओगे?
वो भी लिखो!
हाँ! मगर इक बड़ा मसअला है
कि जल्दी में लिक्खे हुए नोट में तुम
जो बचपन से अब तक भुगत आए हो, सब नहीं आएगा
नोट में मास्टर की छड़ी, दोस्तों की दग़ाबाज़ियाँ,
घर के झगड़ों से ज़ख़्मी हुई नफ़सियात
और उम्मीदों की लाशें नहीं आएँगी
नोट में वो बदन भी नहीं आएँगे,
जिनकी ख़्वाहिश में तुम रोज़ मरते रहे
नोट में फ़ितरी जज़्बे नहीं आएँगे,
जो किसी ज़ाब्ते, अक़ीदे या मज़हब के डर के तले दब गए
नोट में एक ही रंग-ओ-मज़हब के लोगों में
ज़र की मिक़दार का फ़र्क़ है, वो नहीं आएगा
नोट में तुम कोई इक सबब ख़ुदकुशी का लिखोगे,
जो शायद सबब ही न हो
तुम किसी शख़्स, महबूब या दोस्त को आख़िरी कॉल,
पैग़ाम या ख़त में बतलाओगे तुमको उसके रवैए ने तोड़ा है
और वो रवैया भी शायद इरादी न हो
फिर कोई तो तरीक़ा निकालोगे
जिससे ज़माने को ये बात समझा सको—
ख़ुदकुशी क़त्ल है
ख़ुदकुशी क़त्ल है,
ये मुझे तो पता है मगर यार-ए-मन,
पोस्टमॉर्टम में ऐसा नहीं आएगा
तो फिर ऐसा करो!
नोट ही न लिखो
कॉल भी मत करो
बल्कि ऐसा करो ख़ुदकुशी मत करो
जो मसाइल तुम्हें इस नहज पर ले आए हैं,
वो सबके सब और भी कितने लोगों को दरपेश हैं,
उनसे भी पूछ लो
मुझको लगता है सब मिलके सोचें तो,
सारे मसाइल का हल भी निकल आएगा
ख़ुदकुशी बुज़दिली तो नहीं है मगर,
और भी कितने रस्ते लड़ाई के हैं!
शोएब कियानी उर्दू की नई नस्ल के लोकप्रिय कवि हैं। वह अपनी नज़्मों में अनूठे विषय उठाने के लिए जाने जाते हैं। ज़ुबैर सैफ़ी से परिचय के लिए यहाँ देखिए : ज़ुबैर सैफ़ी