गल्प ::
आदित्य शुक्ल
When the war will visit my city,
It will treat everyone equally.
जीवन यहाँ दुष्कर है। एक कमरे का एक छोटा-सा किराए पर लिया हुआ अपार्टमेंट। पानी की क़िल्लत, जगह की क़िल्लत, शोर, शोर और बहुत सारा शोर। टी.वी. का शोर, बच्चों का शोर और लोगों का शोर। बीवी-मियाँ के झगड़ों का शोर। पीटने-पिटने का शोर। दौड़ने का शोर। बच्चों के खेलने का शोर। यह सब, यह सब हर जगह, हर ओर। यक़ीन मानिए लोग बूढ़े या वयस्क नहीं होते, बल्कि सड़ते जाते हैं जिस प्रकार फल पकने के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ सड़ सकते हैं। हर ओर सड़े हुए मनुष्य! खानों के ऊपर भिनभिनाती हुई मक्खियाँ। चूहे, बिल्लियाँ, कुत्ते और साँप।
ऊपर से ये हैल्युसिनेशन! उफ्!
जब बाहर निकलता हूँ तो टूटी-फूटी, साबुत हर तरह की दीवारों पर जगह-जगह यह लिखा हुआ पाता हूँ : ‘‘वे हम सबकी हत्या नहीं कर सकते।’’ सिगरेट पीते हुए उन दीवारों पर लिखे हुए शब्दों को घूरते हुए गुज़रते मैं अक्सर अपनी मृत्यु के बारे में सोचता हूँ। क्या मैं भी इस युद्ध में मारा जाऊँगा? इस युद्ध में मैं जो किसी भी पक्ष में नहीं हूँ और जीवन से उकताया हुआ हूँ, मेरी क्या गति होगी? मैंने कई बम-धमाके सुने हैं, फिर भी लोग कहते हैं कि यहाँ कोई युद्ध चल ही नहीं रहा। इस शहर को किसी से ख़तरा नहीं सिवाय इसके अपने लोगों के। मैं हर शाम सात बजे रेडियो पर ख़बर में सुनता हूँ। मैंने पिछले दस दिनों का आँकड़ा अपनी डायरी में नोट कर रखा है। हर रोज़ कम से सौ-डेढ़ सौ लोगों की मृत्यु की ख़बर आ ही जाती है। पिछले रविवार की ख़बर में जो हेल्पलाइन दी गई थी, उस पर फ़ोन करने पर मुझे अपने एक परिचित व्यक्ति की मृत्यु की भी सूचना मिली। मैं उसके अंतिम-संस्कार में गया था। वहाँ मेरे सिवा सिर्फ़ दो-चार ही लोग थे। आजकल मृत्यु की इतनी घटनाएँ होती हैं, इतने अधिक अंतिम-संस्कार होते हैं कि लोगों के भीतर अंतिम-संस्कारों के प्रति कोई उत्साह ही नहीं बचा! वहाँ लोग मुझे निंदा की दृष्टि से देखते रहे। मैंने मृत के लिए प्रार्थना के कुछ शब्द बुदबुदाए और सिगरेट की डिब्बी से एक सिगरेट निकालकर जला ली और वापस चला आया। मुझे इन रिवाजों की कोई ख़ास जानकारी नहीं और लोग जो कुछ बताते हैं, मैं उसका पालन भी नहीं कर पाता। उस दिन फ़ोन तो मैंने सिर्फ़ जिज्ञासा में कर लिया था। लेकिन एक बात और, आख़िर जिस शहर में युद्ध का ऐसा माहौल बना हुआ है, वहाँ पर बाक़ी लोगों का जीवन अपनी सरल गति से चल कैसे रहा है? मैं देखता हूँ लोगों को बार में जाते, सिनेमा हॉल जाते, कैफ़े में बैठे उसके शीशे से शहर की गति को देखते हुए लोग। वे लोग इतने निश्चिंत अपना जीवन-यापन कैसे कर पा रहे हैं? क्या वे लोग इस क्षतिग्रस्त शहर को नहीं देख पा रहे? मैं तो इस युद्ध की वजह से लगभग विक्षिप्त हो गया हूँ। युद्ध से अधिक मैं इस युद्ध में जीवित बच गए लोगों की वजह से पागल हो गया हूँ। बार, सिनेमा हॉल में बैठे ये बुद्धिहीन लोग चेचक के फोड़े जितने घृणास्पद हैं, जो इस आपातकाल में भी अपनी सबसे चुनिंदा ड्रेसों में अपने-अपने ‘बैड फेथ’ की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। मैं पिछले दस दिन से सोया नहीं हूँ, न ही ठीक से कुछ खा सका हूँ और न ही मैंने अपना पसंदीदा वीडियो गेम खेला है।
आज घर लौटते हुए मुझे बहुत सारे ऐसे दृश्य दिखे जिन्हें कोलाज़ की तरह प्रस्तुत भर किया जा सकता है, जिनसे इस शहर की वास्तविक स्थिति का ठीक-ठीक अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता।
एक आदमी एक ओवरकोट अपने कंधे पर इस तरह टाँगकर ले जा रहा है, मानो कोई लाश ढो रहा हो।
एक औरत अपने बच्चे को घसीटते हुए ले जा रही है।
एक बच्ची चीख़ती हुई भाग रही है।
टूटी हुई दीवार पर बैठा एक नवयुवक आने-जाने वाली लड़कियों के वक्षों और नितंबों को वासनात्मक नज़र से घूर रहा है।
एक बूढ़ा अपनी व्हीलचेयर को पैदलपथ पर चढ़ाने की मुश्किल कोशिश कर रहा है।
एक पंडित संस्कृत के श्लोक पढ़ते हुए भीख माँग रहा है।
एक दुकानदार हर आने-जाने वाले को अपना सामान ख़रीदने के लिए आमंत्रित कर रहा है।
दो प्रेमी ओवरब्रिज की रेलिंग पर झूलते हुए एक दूसरे को चूम रहे हैं।
अचानक से बारिश आती है। सारे दृश्य अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। और एक और बम धमाका। आसमान में सारे लड़ाकू और यात्री विमान आपस में टकरा कर इधर-उधर गिर रहे हैं—सब ओर तबाही का मंज़र!
क्या आपने गोलियों की बौछार कभी देखी है? स्टेनगन से बरसने वाली गोलियों की आवाज़ें कभी सुनी हैं? कोई इस बात को बार-बार मुझे बता रहा है कि इस शहर में कोई बम-धमाका नहीं हो रहा, बल्कि यह सब मेरा मतिभ्रम है। मैं बम के रासायनिक समीकरणों के विषय में अधिक नहीं जानता और न ही मैंने कभी अपने हाथ में किसी बम या गोली को लेकर देखा है, लेकिन मैंने गोली लगने की पीड़ा ज़रूर भोगी है। वह यूनिवर्सिटी के आख़िरी दिनों में से एक दिन था। मैं रोज़ की तरह लैबोरेटरी से निकलकर पिछले गेट से गुरुद्वारे जा रहा था। फिर किसी शून्य में से निकलकर एक गोली मेरे कंधे पर लगी। मैं गिर गया। जब हॉस्पिटल में मेरे होश वापस आए तब तक मेरे उपचार के लिए मेरा घर, मेरी माँ के गहने और मेरा सब कुछ बिक चुका था, ऐसा इसलिए नहीं कि मुझे कोई बहुत घातक चोट लगी थी बल्कि इसलिए कि इन सबके अतिरिक्त मेरे पास कुछ और था भी नहीं। अस्पताल में लेटे-लेटे मैं एक ऐसी नर्स की कल्पना करता रहा जो हेमिंग्वे के उपन्यास की नायिका की तरह मुझे दिल दे बैठती। उस समय मैंने इस बारे में एक उपन्यास भी लिखने का मन बनाया था।
लोग मेरे ऊपर उपन्यास की भाषा में सोचने और बात करने का भी आरोप लगाते हैं।
सब कुछ खो चुकने के बाद आदमी आज़ाद हो जाता है, लेकिन जिसके पास कुछ आख़िरी चीज़ें बची हों, वह अपनी सुरक्षा के लिए बहुत हताशा भरे युद्ध लड़ता है, यह जानते हुए कि अब उसकी स्वतंत्रता के दिन अधिक दूर नहीं।
अब वे दिन दूर नहीं जब मेरे पास शेष सिगरेट की आख़िरी डिब्बी भी ख़त्म हो जाएगी और मेरे पास पड़ा हुआ अनार के जूस और खजूर का भंडार भी ख़ाली हो जाएगा। अगर शहर में युद्ध की यह स्थिति बनी रही और लोग मुझे इसी तरह घृणास्पद दृष्टि से देखते रहे तो मैं सोचने-विचारने के अपने सबसे ज़रूरी हथियारों को जल्द ही खो दूँगा। मुझे बताया गया कि जिस दोस्त के घर में मेरी किताबें रखी थीं (क्योंकि मेरे अपार्टमेंट में सोने के अलावे और किसी चीज़ के लिए जगह नहीं), वह भी बमबारी में नष्ट हो गया। इस सूचना के मिलने के बाद से मेरी उस दोस्त से कोई बातचीत नहीं हुई। मैंने उसका नंबर कई बार मिलाया था। मुझे अपनी किताबों की बहुत याद आती है, क्योंकि कब आपको किस क़िताब के कौन से अधूरे वाक्य की याद आ जाए और आपको उसे पूरा पढ़ने की तलब लगे, कुछ कहा नहीं जा सकता।
अब मैं पूरी तरह से अनाथ और कुजात हूँ।
मैं इस युद्ध में अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करता हूँ (हालाँकि मैं मरने से बहुत डरता हूँ), लेकिन इस युद्ध में मेरी एक सुरक्षित नागरिक से अधिक की कोई भूमिका नहीं। युद्ध में बहुत से सामान्य नागरिकों की सैनिक भर्ती ली गई, लेकिन मैं हर बार छाँट दिया गया। एक बार मुझे कुछ क्लर्कियल काम मिला। मैं रोज़ सुबह आठ बजे ऑफ़िस का शटर खोलता, अपनी कुर्सी पर जाकर कुछ देर बैठता और टेबल पर पैर रखकर ऊँघता रहता। इस दौरान मैंने कई उपन्यास पढ़े। मैं नींद में ज़्यादा अच्छा पढ़ लेता हूँ। नींद में पढ़े गए उपन्यासों की स्मृति, जाग्रत अवस्था में पढ़े उपन्यासों की स्मृति से कहीं अधिक ताक़तवर है। युद्ध में आप सर्वाइवर होना नहीं चुन सकते। युद्ध उन व्यक्तियों का चुनाव करता है जो सर्वाइव करेंगे।
उपसंहार :
एक हाथ कटा बच्चा सड़क के बीचोबीच लेटा हुआ सुबक रहा है। कुछ हथियारबंद सैनिक उसे उठाने के लिए सतर्कतापूर्वक उसकी ओर जाते हैं। बच्चे के पास पहुँचने के ठीक पहले उन सैनिकों पर ताबड़तोड़ गोलीबारी होती है। बीसियों सैनिकों की क़ुर्बानी के बाद उस बच्चे को वहाँ से ले आया जा सका। किसी को नहीं पता इस बच्चे के माँ-बाप कौन हैं। किसी को नहीं पता यह बच्चा यहाँ कैसे आया। इसकी एक बाँह कोई आवारा कुत्ता चबा गया था। बच्चा न जाने किस खंडहर में कितने दिनों से भूखा-प्यासा पड़ा हुआ था। शत्रुओं ने इस बच्चे को एक जाल की तरह इस्तेमाल किया। हमारे बीसियों सैनिक मारे गए। अस्पताल के लोगों ने अब बच्चे का नाम ‘डेनियल’ रखा है। यह बच्चा इस क्रूर युद्ध का सबसे मासूम और सर्वाधिक पीड़ित सर्वाइवर है। यहाँ ऐसे न जाने कितने ही सर्वाइवर हैं।
शहर के इस इलाक़े में हर ओर खंडहर ही खंडहर हैं। अस्पताल के खंडहर, बैंक के खंडहर, स्कूल के खंडहर, स्टेडियम का खंडहर, बार, कैफ़े और सिनेमाघरों के खंडहर, गोदाम, बाज़ार, आग से जर्जर रंगीन कारें, ठेले, मोटरबाइक, ढहे हुए बिजली के पोल… युद्धों में अक्सर ऐसा भी होता है, जब आप गोली किसी और पर चलाते हैं और वह जाकर लगती किसी और को है। हताशा में आप पेड़ों, पत्तों, फूलों पर भी गोलियाँ बरसाते हैं। मैं इस अपने ही शहर में ख़ुद को एक अजनबी की तरह पाता हूँ जो मानो किसी दूसरे शहर की त्रासदियों पर रिपोर्ताज लिखने यहाँ आया हो। आज भी बहुत-से खंडहरों की दीवारों पर ‘इस युद्ध में वे हम सबकी हत्या नहीं कर सकते हैं’ के अधूरे-पूरे वाक्य पढ़ने को मिल जाते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों की क़ब्रों और स्मारकों पर उग आई घास अधमरी बकरियाँ और गाय चरती हैं।
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यह गल्प नॉर्वेजियन फ़ोटोग्राफ़र अफ़शिन इस्माइली को समर्पित है, जिन्होंने इराक़ और सीरिया के युद्धग्रस्त शहरों मोसुल और राक्का का मार्मिक फ़ोटोशूट किया है।
(This fictional prose is dedicated to the Iraqi photographer Afshin Ismaeli who has captured painful images of war-torn cities Mosul and Raqqa in Iraq & Syria.)
आदित्य शुक्ल (जन्म : 27 नवंबर 1991) की गद्य-भाषा का स्वरूप स्मृति, तकलीफ़ और सरोकार से संस्कारित है। वह गद्य में एक बड़े काम की तरफ़ जाने की तैयारी में हैं। इन दिनों नवयुवक, अधेड़ और वयोवृद्ध एक साथ मिलकर हिंदी में बहुत बेशर्म, औसत और अपाठ्य कलावादी गद्य लिख रहे हैं। आदित्य इन सबसे अलग हैं। उनसे और परिचय और इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनके गद्य के लिए यहाँ देखें :