सफ़र ::
आदित्य शुक्ल

आदित्य शुक्ल | क्लिक : सोमेश शुक्ल

विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो इस पृथ्वी पर सिर्फ़ सुंदरता ही सुंदरता हो, मानो अन्याय और पीड़ा और शोषण इस पृथ्वी पर कहीं हो ही नहीं। वह ऐसे शिल्पकार हैं जिनके पास छेनी-हथौड़ा होते हुए भी वह बाहर जाकर पत्थर तराशने की जगह घर में बैठकर सुई-धागे से महीन कलाकारी करते रहते हैं। उन पर एक दोस्त ने टिप्पणी करते हुए कहा कि वह गर्म पहाड़ों में रहते हैं, जहाँ लोगों के पास बहुत ख़ाली समय होता है, घर दूर-दूर होते हैं—अपने समय का इस्तेमाल वह तत्व-विवेचना करने में करते हैं। लेकिन उनके यहाँ दो घरों के बीच का जो ख़ालीपन है, वह उनके दिमाग़ तक में भर जाता है।

अपने कमरे में चहलक़दमी करते हुए खूँटी पर टँगी हुई क़मीज़ें देखता हूँ, ख़ुद को उनमें से एक क़मीज़ पहनते हुए देखता हूँ और उस क़मीज़ की पीठ पर लाल रेशमी धागे से ‘नौकर’ शब्द की कढ़ाई सभी देखने वालों को पढ़ते हुए देखता हूँ, टेबल पर एक किताब के पीले मार्जिन में ‘नौकर की क़मीज़’ लिखा हुआ पढ़ता हूँ और स्वयं को संतू में तब्दील हुआ पाता हूँ… फिर किताब का आख़िरी चैप्टर खोलकर ये पंक्तियाँ नोट करता हूँ—‘‘मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बस नौकरी कर सकता हूँ। बाबूजी भी नौकर थे…’’ और नौकरी से दो दिन की छुट्टी ले, झोला उठाकर पास के गर्म पहाड़ पर पहुँच जाता हूँ।

शाम ढलते गर्म रेतीले खेत और सड़कों के किनारे की झाड़ियाँ अब नवंबर की ठंड आत्मसात करने लगी थीं। पहाड़ी पर चढ़ते हुए स्मृतियों के जिन गह्वरों में हम उतरने लगे थे, वे अब उस पहाड़ का हिस्सा बन चुके हैं। अमरत्व कैसा बड़ा अभिशाप है, यह पहाड़ों को नज़दीक से देखकर जाना जा सकता है। धीरे-धीरे एक एक करके पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है, लेकिन नष्ट होने के बाद भी पहाड़ अपनी जड़ों में धरती के अंदर कहीं जीवित रहेंगे किसी महान प्रलय की प्रतीक्षा में जो अंततः उनका अस्तित्व मिटा दे। दोस्त ने बताया कि वे लोग इस तोड़-फोड़ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं। हालाँकि इस बात से मैं थोड़ा भी आश्वस्त नहीं हुआ। सीढ़ियों से पहाड़ी की चोटी बकरियों और भेड़ों को खड़े देखा जा सकता था। ऐसा लगता था मानो ये जीव हमारे ऊपर जाने को किसी गहन जिज्ञासा से देख रहे हों।

ऊपर पहुँचकर हमें एक कुआँ दिखा, जिसमें घिरनी के पास दो-तीन बाल्टियाँ, रस्सी और पास में एक छोटे से मंदिर की चौखट पर कुछ गिलास रखे हुए थे। थोड़ी दूरी पर एक जटाधारी साधु पौधों की देखभाल में व्यस्त था। हमने दूर से ही उन्हें प्रणाम करके पानी की उपलब्धता के बारे में पूछा, पर साधु ने उत्तर नहीं दिया। तभी नेपथ्य से किसी दूसरे आदमी ने चीख़कर कुएँ से पानी निकालकर पीने को कहा। दो-तीन अन्य पुरुष कुएँ के पास आ गए और वहाँ हमारे आने का प्रयोजन जानने लगे। उसी में से एक आदमी ने बताया कि जटाधारी साधु मौनव्रत पर है। दोस्त ने पहाड़ी के दूसरी और जाने की इच्छा ज़ाहिर की जिस पर मुझे मन ही मन आपत्ति हुई। फिर भी मैं उनके पीछे-पीछे चल पड़ा, रास्ते में पड़ने वाली झाड़ियों और कंदराओं से गुज़रते हुए, लेकिन हर वक़्त कोई साँप दिखने की आशंका से आक्रांत था। अनचाही मृत्यु से अधिक भयावह और क्या होगा? और मरें भी तो सर्प-दंश से? सबसे सुंदर मृत्यु होगी अपनी कनपटी पर गोली चलाकर या गृहयुद्ध में चिथड़े-चिथड़े होकर। भय, झाड़ी, कंदराओं और अवसाद से गुज़रते हुए मुझे यह तो समझ आ ही गया था कि आख़िर दोस्त को इतनी सुंदर और सशक्त कविताएँ मिली कहाँ से थीं। कविता किसी का पण्य नहीं है, इस बात पर मेरी आस्था थोड़ी और गहरी हुई और मैंने आश्वस्ति की एक गहरी साँस ली, और हम पहुँचे पहाड़ी के उस पार…

ढल रही थी शाम—सूर्यास्त! वहाँ सूर्यास्त होते देखना किसी कविता को जीने जैसा था। हमारे ऊपर विस्तृत नभ, पाँवों तले पहाड़ी के गर्म पत्थर, घाटी में गाँव और दूर क्षितिज पर डूबता, रंग और पैंतरे बदलता सूरज। प्रकृति का सुंदर संगीत। संगीत ही कविता और कविता ही संगीत—सूर्यास्त! पत्थर पर लेटकर मैं सूर्यास्त देखने लगा जब क्षितिज के उसी छोर को पार करते हुए एक हवाई जहाज़ गुज़रा—आसमान पर अपने धुएँ की एक लकीर छोड़ते हुए। इस जगह पर आकर मुझे अपने मित्र के मनस्वी होने का राज समझ आया, अपनी भौगोलिक दरिद्रता और इयत्ता का भी एहसास हुआ। मित्र ने फिर एक नई बात छेड़ते हुए कहा कि मुझे ऐसे उपन्यासों की ज़रूरत है जो मनुष्य के अंतहीन अकेलेपन का बयान करते हों। नारनौल लाइब्रेरी में किताबें पढ़ते हुए मेरे हाथ एक उपन्यास लगा—‘परिंदे’ (थारैये वसास, नार्वेजियन से हिंदी अनुवाद : तेजी ग्रोवर)। मैंने इस उपन्यास को पढ़ने के आधार पर मनुष्यों का तीन तरह से वर्गीकरण कर दिया है :

  • जो व्यक्ति इस उपन्यास को पूरा किए बग़ैर बीच में छोड़ दे, उसके अंदर मनुष्यता नाम की चीज़ नहीं बची।
  • जो इसे दो बार पढ़ जाए, वह बहुत ही संवेदनशील मनुष्य है।
  • जो इसे तीन या तीन से अधिक बार पढ़ जाए वो आत्महत्या की कगार पर है।

—आपने इसे कितनी बार पढ़ा है?
—तीन बार।

मैंने चुपचाप सूर्यास्त को देखा। मेरी आँखों के सामने बूढा लाइब्रेरियन, सृष्टि का अंत, गर्म पहाड़, सूर्यास्त, मुनि, कवि, तलहटी में एक गाँव दिख रहा था और दिल में एक टीस उभर रही थी। चुप्पी भंग करते हुए दोस्त ने कहा कि यह जगह मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि यहाँ प्रेम करने के लिए झाड़ियाँ और तप करने के लिए कंदराएँ हैं। एक बार अपनी प्रेमिका से पराजित होकर मैंने ख़ुद को वर्ष भर के लिए इन कंदराओं के हवाले कर दिया था। फिर लेह चला गया। लेह में कुछ दिन मैंने एक बौद्ध मठ में बिताए, भिक्षु बनने की लालसा में, लेकिन मैं वहाँ अधिक दिनों तक टिक नहीं सका। हाड़-गलाऊ ठंड और कठिन अनुशासन में मुझसे ग्यारह दिन से अधिक नहीं रहा गया। अब उस मठ को छोड़कर आने के अपने फ़ैसले पर बहुत पश्चात्ताप करता हूँ। वापस आकर मैंने दो साल तक किसी ओर पलटकर नहीं देखा, खेतों में जमकर पसीना बहाया। मैं मनस्वी बनना चाहता था, लेकिन एक किसान बन बैठा।

—क्या मैं अब भी एक मनस्वी हूँ, अपने खेतों में बैठा हुआ, रूठी हुई कविताओं के तलाश में?
—क्या विनोद कुमार शुक्ल एक मनस्वी हैं, मध्य प्रदेश के गर्म पहाड़ों में एक छोटी-सी गृहस्थी चलाते हुए?
—क्या दो मनस्वी जब पहली बार एक-दूसरे को देखते हैं तो एक-दूसरे को दूर से ही पहचान लेते हैं, आपस में बिना कोई संवाद किए?

तलहटी में एक गाँव है और गाँव से दूर क्षितिज में डूब रहा है सूरज। कितने कम क्षणों की होती है सुंदरता? कितनी भंगुर और अप्राप्य है प्रसन्नता! आसमान की नदी में एक हवाई जहाज़ अपने पुछल्ले छोड़ गया है, ताकि वे मनुष्य आज भी ऊपर देखकर उल्लास से ओत-प्रोत हो सकें जिनके मन में जीवन की तमाम कड़वाहटों के बावजूद कुछ मासूमियत बची रह गई है।

सूर्यास्त के बाद हम उतर चले। पहाड़ी से उतरते हुए मैं संतुष्ट और आश्वस्त था। हम दोनों स्मृति में हुई कुछ घटनाओं से एक-एक करके गुज़रने लगे। मित्र ने मेरे झोले को देखते हुए मुझसे प्रश्न किया :

—बंधु, आपके झोले में क्या है?
—इसमें सिर्फ़ कुछ ऐसी स्मृतियाँ हैं जिन्हें मैं हमेशा अपने सीने से लगाकर रखना चाहता हूँ। इसमें एक स्त्री की आवाज़ है, जिसमें प्यार भरे कुछ वाक्य हैं।
मैंने उन्हें झोला खोलकर दिखाया तो वह अवाक् रह गए।

मेरे पास अब काफ़ी चीज़ें जमा हो गई थीं—पहाड़ की ऊष्मा, गर्म पहाड़ी की एक झलक शायद जिस तरह की पहाड़ी पर विनोद कुमार शुक्ल अपने साहित्यिक तप में रत हैं, मनस्वी की आत्मीयता और शानदार कविताओं के उद्गम-स्थल के दर्शन, मौनी बाबा की कातर दृष्टि, झाड़ियाँ, कंदराएँ, सर्पदंश का भय, सूर्यास्त और हरियाणा की गर्म, साफ़-सुथरी सड़कें। हम जिस सड़क पर चल रहे थे, उसके बारे में मित्र ने बताया कि ये सड़क दिल्ली से भारत-पाकिस्तान सीमा को जोड़ने वाली सबसे तेज़ सड़क है, युद्ध की किसी भी स्थिति में इन्हीं सड़कों से होकर दिल्ली से सेना कूच करेगी। मुझे इतना ही समझ में आया कि युद्ध कि स्थिति में इस सड़क का महत्व स्थानीय लोक-चर्चा में काफी बढ़ जाता होगा।

पहाड़ का मनस्वी कौन है? विनोद कुमार शुक्ल, कवि-मित्र या पहाड़ों में अमरता का दंश झेल रहे पत्थर या उन पत्थरों की कोख में दफ़्न रहस्य जिसे वहाँ से गुज़रने वाले हर मनुष्य, पशु, पक्षी जाने-अनजाने छोड़ जाते हैं?

मित्र से यह पूछने का बहुत मन था कि उन्होंने कोई नौकरी क्यों नहीं की, लेकिन इस सवाल का जवाब मुझे पूछे बिना ही मिल चुका था।

मैंने ही नौकर की क़मीज़ पहन रखी है। पर मेरी नौकरी संतू की नौकरी जैसी नहीं है। मेरे दुःख संतू के दुःख जैसे हो सकते हैं, अगर उन दु:खों पर थोड़ी और छेनी-हथौड़ी मारकर दुरुस्त कर दिया जाए। मेरी क़मीज़ों में कोई आग नहीं लगाएगा, क्योंकि मैं उनका अकेला मालिक हूँ। मैं तो बस क़मीज़ें इकट्ठी कर रहा हूँ और इस तरह मेरे पास क़मीज़ों की भरमार हो गई है। जिधर देखता हूँ उधर क़मीज़ें ही क़मीज़ें दिखती हैं। मेरे पास दुनिया को गिनाने के लिए क़मीज़ों के सिवा और कुछ भी नहीं।

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आदित्य शुक्ल (जन्म : 27 नवंबर 1991) हिंदी कवि-अनुवादक-गद्यकार हैं। वह गुरुग्राम (हरियाणा) में रहते हैं। उनसे shuklaaditya48@gmail.com पर बात की जा सकती है। ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनका गद्य यहाँ पढ़ें :

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