सुरेंद्र वर्मा के कुछ उद्धरण ::
प्रस्तुति : अविनाश मिश्र

Surendra Verma hindi writer
सुरेंद्र वर्मा

अपनी सीमाओं के हाशिए झकझोरने का यही एक उपाय है—हर जड़ और चेतन के साथ संयुक्त होने का प्रयास।

जिन प्राणियों की जीवन-शैली स्निग्ध और धवल होती है, उन्हीं के जीवन में कविता होती है। हमारा जीवन शुष्क और मलिन है। हम उस कोटि को छू भी नहीं सकते।

असफल कवि सफल शिक्षक नहीं हो सकता।

सजग पर्यवेक्षण, सटीक अभिव्यक्ति के सुचिंतित प्रकार, और कगार तोड़ने को व्याकुल कल्पना जिन कवियों के पास नहीं, उन्होंने उपमाओं को रंगहीन, बासी और थोथा बना दिया है।

एक अभिनीत स्थल बदलने से दृश्य बदल जाता है।

रोहिणी को केवल चंद्रमा ही चाहिए।

कई बार यंत्रणा तर्क के परे होती है।

दरिद्रता अभिशाप है और वरदान भी। वह व्यक्ति रूप में एक विशिष्ट समय तक तुम्हारा परिसंस्कार करती है—पर यह अवधि दीर्घ नहीं होनी चाहिए।

जिनके पास साधन होते हैं, उनके पास दृष्टि नहीं होती, जिनके पास दृष्टि होती है—केवल वही होती है, और शून्य होता है।

जलते और चलते रहो।

फल की चिंता के साथ किया गया कर्म, कर्म-अवधारणा का अपमान समझा जाना चाहिए।

सर्वश्रेष्ठ रूप में जीने का अर्थ है, सर्वश्रेष्ठ रूप में प्रेम करना।

भावना सतत परिवर्तनशील है।

स्वीकार करना बहुत पीड़ादायक होता है, पर जीने के लिए करना होता है।

स्त्री जन्मजात अभिनेत्री होती है।

तपोवन से शमशान तक—केवल विवाह-विमर्श!

कलात्मक महत्वाकांक्षा घातक होती है—प्रियजनों को संतप्त करती है।

परित्याग करो और सुखी हो जाओ।

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7 सितंबर 1941 को जन्मे सुरेंद्र वर्मा हिंदी के समादृत कथा-शिल्पी और नाटककार हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण साल 2010 में ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘काटना शमी का वृक्ष पद्मपखुंरी की धार से’ से लिए गए हैं। इस उपन्यास के केंद्र में कवि कालिदास का जीवन-संघर्ष समाहित है। कैसे कोई कृति एक आधुनिक क्लासिक बनती है, यह समझने के लिए इस उपन्यास को पढ़ने का समय निकालना चाहिए। समय निकालना यह यहाँ इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि अपने कलेवर में यह एक विराट उपन्यास है, जो संभवत: इधर के हिंदी साहित्य में दुर्लभ है, इसे विराट और दुर्लभ इसकी पृष्ठ-संख्या के आधार पर नहीं कहा जा रहा है, यहाँ इसकी विराटता और दुर्लभता से आशय इसमें उपस्थित भारतीय और क्लासिकीय तत्व हैं।

इस समय और हिंदी में किसी कृति की ये विशेषताएँ अपने साथ जो एक दुर्गुण या कहें संकट लेकर आती हैं, वह यह है कि एक बहुत बड़ी जनसंख्या उस तक पहुँच नहीं पाती और अगर अन्य साहित्येतर वजहों को छोड़ दिया जाए तब शायद यही एक वजह है इस उपन्यास की लगभग नहीं हुई पर्याप्त चर्चा का।

इस उपन्यास की व्यापक मीमांसा से बचकर अगर इस पर कुछ कहा जाए तब एक शब्द में इसे ‘क्लासिक’ ही कहा जा सकता है। लेकिन इसे क्लासिक कहना एक अर्थ में इससे मुक्त होना है, इसे समझना नहीं। इसे समझने के लिए इसके समीप जाना होगा और वह संगीत सुनना होगा जो इसके प्रत्येक अनुच्छेद में बज रहा है।

कालिदास के जीवन पर आधारित एक महाकाव्यात्मक संरचना और कालिदास की ही कृतियों से जगह-जगह दिए गए अवतरण इस कृति को एक बेमिसाल और बेपनाह पठनीयता प्रदान करते हैं। इसमें वर्णित कालिदास का जीवन और नियति उसे वर्तमान हिंदी लेखक/कवि से जोड़ती है। लेखक ने कालिदास की कथा कहते हुए इस बात का ध्यान रखा है कि कैसे उसे आज के संदर्भ में प्रासंगिक और महत्वपूर्ण बनाया जाए।

इस उपन्यास में एक जगह उपेक्षित कवि मार्तण्ड हताश और युवा कवि कालिदास से कहते हैं, ‘‘मेरा वर्तमान तुम्हारा भविष्य है।’’ भले ही मार्तण्ड का यह कथन कालिदास के संदर्भ में सच न हुआ हो, लेकिन कालिदास का गत और आगत भोगना आज लगभग उन सब कवियों के लिए अनिवार्य-सा हो गया है जिनका पहला प्यार तमाम सांस्कृतिक उपद्रवों और प्रलोभनों के बीच अब भी कविता है। आजीविका, प्रेम, विवाह, प्रकाशन, यात्राएँ, मूल्याकंन और इस सबके मध्य विस्थापित, एकाकी, उपेक्षित, तिरस्कृत, गृहत्यागी और कवि कालिदास लगभग एक प्रतीक की तरह प्रकट होते हैं—हमारे वर्तमान कविता-समय में, जहाँ कवि कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं और आलोकवर्धन जैसे प्राध्यापक-आलोचक भी।

नंदीग्राम त्यागकर उज्जयिनी प्रस्थान करते युवा कालिदास अतीत नहीं, आज के कई युवा कवियों का वर्तमान हैं। इस उपन्यास की कथा अपने प्रस्तुतिकरण के लिए जो तकनीक अपनाती है, वह इसकी पठनीयता के लिए कहीं अंतराय नहीं बनती, बल्कि वह सहायक और शक्ति ही दृश्य होती है। उपसंहार से आरंभ करना और पुन: उपसंहार तक पहुँचना और बीच-बीच में कुछेक फ्लैशबैक्स (पूर्वदीप्तियाँ), ये दरअसल विश्व क्लासिक सिनेमा के कुछ प्रचलित तत्व रहे हैं, जो इस उपन्यास में यहाँ-वहाँ वैसे ही प्रकट होते हैं : जैसे पूरहूत उत्सव, जैसे रंगमंच, जैसे नृत्य, जैसे काव्य-पंक्तियों की तरह अनुभव होते हुए उपशीर्षक।

सुरेंद्र वर्मा उन विरल रचनाकारों में से है जो एक ही भाषा को बार-बार नहीं बरतते हैं। वह प्रत्येक नई कृति के लिए एक नई भाषा अर्जित करते हैं। भाषा उनके यहाँ केवल एक साधन नहीं है जो कथ्य में खो जाए। वह नज़र आती है और जब वह नज़र आती है, तब वह रियाज़ भी नज़र आता है जो इससे जुड़ा हुआ है। इस उपन्यास की भाषा संस्कृतनिष्ठ है लेकिन क्लिष्ट नहीं, वह एक लगातार में संस्कृत के नज़दीक होने का जोख़िम उठाती है और कहीं नहीं फिसलती। कहीं-कहीं आश्चर्य भी होता है जब वह हिंदी में ससम्मान व्यवहृत ‘हनीमून’ जैसे एक अँग्रेज़ी शब्द के लिए ‘मधुचंद्रिका’ जैसा शब्द गढ़ते हैं। भाषा के प्रति ऐसा आग्रह अब अदृश्य हो चला है और इस अर्थ में ऐसा भाषिक-विन्यास ईर्ष्या का न भी सही, आकर्षण का विषय तो होना ही चाहिए।

सुरेंद्र वर्मा दिल्ली में रहते हैं। उनसे storymysoul@indiatimes.com पर बात की जा सकती है, अगर वह करना चाहें तो…

2 Comments

  1. अजय अक्टूबर 11, 2018 at 2:29 पूर्वाह्न

    जिनके पास साधन होते हैं, उनके पास दृष्टि नहीं होती, जिनके पास दृष्टि होती है—केवल वही होती है, और शून्य होता है।
    वाह

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    1. Neel जून 8, 2019 at 12:45 अपराह्न

      कुछ सोच के ही शायद इसी उपन्यास में मार्कण्डेय नाम के चरित्र का एक उद्घोष यहां नही रखा गया होगा, फिर भी मुझे लगता है कि वो यहां होना चाहिए था:
      “कवि का धर्म मनुष्य की आत्मा को बचाना नही, उसे बचाने योग्य बनाना है”

      Reply

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