देवीशंकर अवस्थी के कुछ उद्धरण ::
अनुभूति की अभिव्यक्ति ही कला का रूप धारण करती है।
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कला का मूल उत्स आनंद है।
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कला न सुनीतिमूलक है और न दुर्नीतिमूलक।
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वास्तविक कला कभी अशिव नहीं होती।
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कला की आत्मा है सौंदर्यानुभूति।
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कला मनुष्यत्व का चरम उत्कर्ष है।
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कला-सृष्टि जीवन की सार्थकता है। जीवन से उसे अलग देखना अपराध है।
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समकालीनता-बोध से रहित आलोचना को आलोचना नहीं कहा जा सकता—शोध, पांडित्य या कुछ और भले ही कह दिया जाए।
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जो चिरंतन है, वही ग्राह्य है।
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शाश्वत सत्य का समावेश ही काव्य और कला को स्थायित्व प्रदान करता है।
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वास्तव में श्रेष्ठ साहित्य की रचना परंपरा के भीतर युग के यथार्थ को समेट लेती है।
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आलोचना का प्राथमिक दायित्व नवलेखन के प्रति ही है।
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युग चेतना की अभिव्यक्ति के लिए अपना एक छंद चाहिए।
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जीवन की व्याख्या ही नहीं करनी पड़ती है, बल्कि जीवित रहने की प्रक्रिया भी खोजनी पड़ती है।
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कविता तुलना से बनती है।
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आज भी कविता और गद्य की भाषा का अंतर भावावेश की भाषा का अंत है।
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जब एक सही पंक्ति बन जाती है तो उसमें परिवर्तन संभव नहीं।
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जीनियस की प्रशंसा नहीं होती। या तो उसकी निंदा होती है या फिर applause होता है। प्रशंसा (Praise) सदैव ‘मीडियाकर’ की होती है। मसलन यह बहुत अच्छा पढ़ाता है, या उसका स्वभाव बहुत अच्छा है या वह बड़ा सज्जन है। ये सारे शब्द और विशेषण ‘मीडियाकर’ के पर्याय हैं।
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ख्याति न मिलने की कुंठा भीतर-भीतर विरोधी बना देती है।
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देवीशंकर अवस्थी (1930–1966) हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचक हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘देवीशंकर अवस्थी : संकलित निबंध’ (संपादक : मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट, पहला संस्करण : 2008) शीर्षक पुस्तक और ‘बहुवचन’ (जनवरी-मार्च 2009) में प्रकाशित देवीशंकर अवस्थी की डायरी से चुने गए हैं।
मैं अपने को उस बूढ़े के स्थान पर पाता हूँ जो रोज़ सुबह मुझे गांव के तालाब किनारे कपड़े धोते हुए दिखाई देता है, घण्टो वहां बैठ पानी से हरी घांस से बातें करने के बाद वो अपने जर्जर घर को लौट आता है पिछली रात की बांसी रोटी खाने, उसका अपना कोई नहीं।